जोतीराव फुले: भारतीय सामाजिक क्रांति के अग्रदूत


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आधुनिक भारत में शूद्रों-अतिशूद्रों, महिलाओं और किसानों के मुक्ति-संघर्ष के पहले नायक जोतीराव फुले हैं. डॉ. आंबेडकर ने गौतम बुद्ध और कबीर के साथ जोतीराव फुले को अपना तीसरा गुरु माना है.

28 अक्टूबर 1954 को पुरुदर स्टेडियम, मुंबई में भाषण देते हुए डॉ. आंबेडकर ने कहा था, ‘‘मेरे तीसरे गुरु जोतीराव फुले हैं. केवल उन्होंने ही मानवता का पाठ पढ़ाया. शुरुआती राजनीतिक आंदोलन में हमने जोतिबा के पथ का अनुसरण किया. मेरा जीवन उनकी शिक्षाओं से प्रभावित है.’’

आंबेडकर अपनी किताब ‘शूद्र कौन थे?’ में लिखते हैं, ‘‘जिन्होंने हिन्दू समाज की छोटी जातियों को उच्च वर्णों के प्रति उनकी ग़ुलामी की भावना के सम्बन्ध में जाग्रत किया और जिन्होंने विदेशी शासन से मुक्ति पाने से भी सामाजिक लोकतंत्र की स्थापना अधिक महत्त्वपूर्ण है, इस सिद्धांत का प्रतिपादन किया. उस आधुनिक भारत के महान शूद्र महात्मा फुले की स्मृति में सादर समर्पित.’’

जाति-भेद से मुक्ति को फुले ने अपने जीवन का सबसे महत्त्वपूर्ण मिशन बनाया. उन्होंने ‘जाति भेद विवेकानुसार’ (1865) में लिखा, ‘‘धर्मग्रंथों में वर्णित विकृत जाति-भेद ने हिंदुओं के दिमाग को सदियों से ग़ुलाम बना रखा है. उन्हें इस पाश से मुक्त करने के अलावा कोई दूसरा महत्त्वपूर्ण काम नहीं हो सकता है.’’

जोतीराव फुले को पराधीनता और असमानता का कोई रूप स्वीकार नहीं था. वर्ण-जाति, स्त्री-पुरुष या किसी अन्य आधार पर मनुष्य-मनुष्य के बीच भेदभाव उन्हें स्वीकार नहीं था.

उन्होंने साफ शब्दों में अपनी किताब ‘सार्वजनिक सत्य धर्म’ में घोषणा की था कि ‘‘इस पृथ्वी पर सभी स्त्री-पुरुष को गांव, घर, एक परिवार की तरह रहना चाहिए. ईश्वर ने स्वतंत्र मनुष्य की रचना की है. उसने प्रसन्नतापूर्वक रहने का अधिकार सभी मनुष्यों को दिया है. विधाता ने सभी स्त्री-पुरुष को सोच और विचार के आधार पर बिना किसी दूसरे को दुख पहुँचाए अपनी बात कहने की स्वतंत्रता दी है. यही सात्विक व्यवहार है. परमात्मा ने सभी को समान मानव अधिकार दिया है. अतः कोई भी व्यक्ति या समुदाय दूसरे व्यक्ति या समुदाय पर अधिकार नहीं जमा सकता. इसका अनुपालन ही सच्चा कर्म है. सृजनहार ने सभी स्त्री-पुरुषों को धार्मिक एवं राजनीतिक अधिकार दिए हैं. पृथ्वी की छाती पर जन्म लेने वाला हर इंसान खुदा की नज़र में एक समान है तो फिर कैसे हो सकता है कि कुछ लोग जन्मना श्रेष्ठ हों और कुछ नीच और निकृष्ट.’’

जोतीराव फुले का जन्म 11 अप्रैल 1827 को शूद्र वर्ण के माली जाति में महाराष्ट्र में हुआ था. उनके पिता का नाम गोविन्दराव और माता का नाम चिमणाबाई था. फुले जब एक वर्ष के थे, तभी उनकी मां चिमणाबाई का निधन हो गया. उनका पालन-पोषण उनके पिता की मुंहबोली बहन सगुणाबाई ने किया. सगुणाबाई ने उन्हें आधुनिक चेतना से लैस किया.

साल 1818 में ब्राह्मणों का पेशवाई शासन भले ही अंग्रेजों ने खत्म कर दिया, लेकिन सामाजिक जीवन पर उनका नियंत्रण कायम था. पुणे में शूद्रों-अतिशूद्रों और महिलाओं के लिए शिक्षा के दरवाजे बंद थे. ईसाई मिशनरियों ने शूद्रों-अतिशूद्रों और महिलाओं के लिए शिक्षा के दरवाजे खोले. सात वर्ष की उम्र में जोतीराव को पढ़ने के लिए स्कूल भेजा गया, लेकिन जल्दी ही सामाजिक दबाव में जोतीराव के पिता गोविंदराव ने उन्हें स्कूल से बाहर निकाल लिया. वे अपने पिता के साथ खेतों में काम करने लगे. उनकी जिज्ञासा और प्रतिभा से उर्दू-फारसी के जानकार गफ्फार बेग और ईसाई धर्मप्रचारक लिजीटसाब बहुत प्रभावित थे. उन्होंने गोविंदराव को सलाह दी कि वे जोतीराव को पढ़ने के लिए भेजें और फिर से जोतीराव स्कूल जाने लगे.

इसी बीच 13 वर्ष की उम्र में ही 1840 में जोतीराव का विवाह 9 वर्षीय सावित्रीबाई फुले से कर दिया गया. 1847 में जोतीराव स्काटिश मिशन के अंग्रेजी स्कूल में पढ़ने लगे. होनहार विद्यार्थी जोतीराव का परिचय आधुनिक ज्ञान-विज्ञान से हुआ.

स्काटिश मिशन स्कूल में दाखिले के बाद जोतीराव फुले के रग-रग में धीरे-धीरे समता और स्वतंत्रता का विचार बसने लगा. उनके सामने एक नई दुनिया खुल गई. तर्क उनका सबसे बड़ा हथियार बन गया. हर चीज को वे तर्क और न्याय की कसौटी पर कसने लगे. अपने आस-पास के समाज को एक नए नज़रिए से देखने लगे.

कई मौकों पर उन्हें जाति की वजह से भेदभाव का शिकार होना पड़ा और अपमानित किया गया.

उन्होंने 1847 में मिशन स्कूल की पढ़ाई पूरी की. जोतिबा फुले को इस बात का अहसास अच्छी तरह से हो गया था कि शिक्षा ही वह हथियार है जिससे शूद्रों-अतिशूद्रों और महिलाओं की मुक्ति हो सकती है. उन्होंने अपनी एक कविता में लिखा- विद्या बिना मति गई/मति बिना नीति गई/नीति बिना गति गई…
सबसे पहले शिक्षा की ज्योति उन्होंने अपने घर में जलाई. अपनी पत्नी जीवन-साथी सावित्रीबाई फुले को शिक्षित किया. उन्हें ज्ञान-विज्ञान से लैस किया. उनके भीतर यह भाव और विचार भरा कि स्त्री-पुरुष दोनों बराबर हैं. दुनिया का हर इंसान स्वतंत्रता और समता का अधिकारी है. सावित्रीबाई फुले, सगुणाबाई, फ़ातिमा शेख़ और अन्य सहयोगियों के साथ मिलकर हजारों वर्षों से ब्राह्मणों द्वारा शिक्षा से वंचित किए गए समुदायों को शिक्षित करने और उन्हें अपने मानवीय अधिकारों के प्रति सजग करने का बीड़ा उठाया.

इस कार्य में उन्हें मिशनरी स्कूलों से काफी प्रेरणा मिली थी. अछूतों और महिलाओं के लिए शिक्षा की ज़रूरत के संदर्भ में उन्होंने कहा कि ‘‘मेरे देश-बंधुओं में महार, मांग और चमार दुख और अज्ञान में डूबे हुए हैं. दयानिधान परमात्मा ने उनकी स्थिति में सुधार लाने की प्रेरणा मुझे दी. स्त्रियों के स्कूल ने सबसे पहले मेरा ध्यान आकर्षित किया. पूर्ण विचारोपरांत मेरा यह निश्चित मत हुआ कि लड़कों के स्कूल के बजाय लड़कियों का स्कूल होना ज़रूरी है. महिलाएं दो-तीन साल की आयु में संस्कार अपने बच्चों पर डालती हैं उसी में उन बच्चों के भविष्य के बीज होते हैं. अमहमदनगर के अमेरिकन मिशन में मिस फैरार ने जो स्कूल चलाया, उसे मैंने अपने मित्रों के साथ देखा. जिस ढंग से उन लड़कियों को शिक्षा दी जाती है, वह पद्धति मुझे बहुत अच्छी लगी.’’

अपने इन विचारों को व्यवहार में उतारते हुए फुले ने 1848 में लड़कियों के लिए पहला स्कूल खोला. यह स्कूल महाराष्ट्र में ही नहीं, पूरे भारत में किसी भारतीय द्वारा लड़कियों के लिए विशेष तौर पर खोला गया पहला स्कूल था. यह स्कूल खोलकर जोतीराव फुले और सावित्रीबाई फुले ने खुलेआम धर्मग्रंथों को चुनौती दी. उन्होंने मनुस्मृति सहित अन्य ब्राह्मण-धर्मग्रंथों का खंडन करना भी शुरू कर दिया. ब्राह्मणवादी बौखला उठे. ब्राह्मणवादियों के दबाव में फुले के पिता ने उन्हें और उनकी जीवन-साथी सावित्रीबाई फुले को घर से निकाल दिया.

फुले का पहला स्कूल सिर्फ 6 महीने ही चल पाया. इसके बाद तीन जुलाई 1851 को उन्होंने दूसरा स्कूल खोला. इन स्कूलों के संचालन में सावित्रीबाई फुले और जोतीराव फुले ने एक साथ कार्य किया. फुले ने प्रौढ़ उम्र के लोगों के लिए 1855 में रात्रि पाठशाला खोली. यह पूरे भारत में अपने तरह की पहली पाठशाला थी.

उन्होंने 1852 में मराठी पुस्तकों की प्रथम पुस्तकालय की स्थापना की. इसी तरह उन्होंने 1851 में ‘फीमेल एजुकेशन सोसाइटी’ तथा 1853 में ‘सोसाइटी फार प्रमोटिंग दी एजूकेशन ऑफ माहार्स और माँगस’ की स्थापना करके शिक्षा प्रबंधन के क्षेत्र में बहुत महत्त्वपूर्ण योगदान किया. फुले के ये स्कूल भारत में अछूतों और महिलाओं के लिए शिक्षा की रोशनी लेकर आए थे.

फुले द्वारा शूद्रों-अतिशूद्रों और महिलाओं को शिक्षित करने का उद्देश्य अन्याय और उत्पीड़न पर आधारित सामाजिक व्यवस्था को उलट देना था. जब 1873 में अपनी किताब ‘ग़ुलामगिरी’ की प्रस्तावना में उन्होंने इस किताब को लिखने का उद्देश्य इन शब्दों में प्रकट किया- ‘‘सैकड़ों वर्षों से शूद्रादि अतिशूद्र ब्राह्मणों के राज में दुख भुगतते आए हैं. इन अन्यायी लोगों से उनकी मुक्ति कैसे हो, यह बताना ही इस ग्रंथ का उद्देश्य है.’’

फुले जितने बड़े समर्थक शूद्रों-अतिशूद्रों की मुक्ति के थे, उतने ही बड़े समर्थक स्त्री-मुक्ति के भी थे. उन्होंने महिलाओं के बारे में लिखा कि ‘‘स्त्री-शिक्षा के द्वार पुरुषों ने इसलिए बंद कर रखे थे ताकि वह मानवीय अधिकारों को समझ न पाए. जैसी स्वतंत्रता पुरुष लेता है, वैसी ही स्वतंत्रता स्त्री ले तो? अगर अपनी कामवासनाएं पूरी करने के लिए पुरुष दो-दो, तीन-तीन स्त्रियों से विवाह करता है और उन विवाहों के लिए धर्मशास्त्र का आधार लेता है, स्त्रियों को भी अपनी मनोकामनाएं पूरी करने के लिए दो-दो, तीन-तीन पति करने की सहूलियत मिलनी चाहिए. हम सब पुरुषों को तब कैसा लगेगा?

जोतीराव फुले स्त्री-पुरुष के समान अधिकारों के हिमायती थे. उन्होंने व्यवहार में भी यह कर दिखाया. सावित्रीबाई फुले जीवन के सभी क्षेत्रों में उनके साथ बराबर का हिस्सेदार थीं. उन्होंने महिलाओं को पुरुषों के बराबर मानते हुए ब्राह्मणवादी विवाह पद्धति को ख़ारिज कर दिया, जिसमें लड़की पिता की संपत्ति जैसी होती है और वह उसे किसी को भी दान दे सकता है, जिसे कन्यादान कहा जाता है. जोतीराव फुले ने लड़के-लड़की को समान मानते हुए नई विवाह पद्धति तैयार किया जिसे ‘सत्यशोधक विवाह पद्धति’ कहा गया.

सच तो यह है कि स्त्री मुक्ति का कोई भी ऐसा संघर्ष नहीं है, जिसे फुले ने अपने समय में न चलाया हो. डॉ. एमबी शहा ने बिल्कुल सही लिखा है कि ‘‘स्त्री मुक्ति की कोई ऐसी लड़ाई नहीं है, जिसे जोतिबा ने अपने समय में न लड़ी हो. उच्च वर्ग अपनी स्त्रियों के लिए जो सुधार नहीं कर सके, वे जोतिबा ने उनके लिए किए. वे भली-भांति जानते थे कि परिवार प्रमुख की तानाशाही नहीं नष्ट होगी, तब तक स्त्री की ग़ुलामी भी नहीं नष्ट होगी और सामाजिक विषमता भी नहीं हटेगी. उनकी यही मान्यता थी कि यदि समानता की भावना पर स्थित रहा तो समाज और राष्ट्र भी समानता की डोर में गुंथ जाएंगे.’’

जोतीराव फुले ने सावित्रीबाई के साथ मिलकर अपने परिवार को स्त्री-पुरुष समानता का मूर्त रूप बना दिया और एक साथ मिलकर समाज और राष्ट्र में समानता कायम करने के लिए संघर्ष में उतर पड़े. एक बराबर के साथी की तरह दोनों एक दूसरे का हाथ पकड़े दुख-सुख में एक दूसरे का साथ देते हर तरह के अन्याय के खिलाफ आजीवन लड़ते रहे.
फुले ने समाज सेवा और सामाजिक संघर्ष का रास्ता एक साथ चुना. सबसे पहले उन्होंने हजारों वर्षों से वंचित लोगों के लिए शिक्षा का द्वार खोला. विधवाओं के लिए आश्रम बनवाया, विधवा पुनर्विवाह के लिए संघर्ष किया और अछूतों के लिए अपना पानी का हौज खोला.

इस सबके बावजूद वह यह बात अच्छी तरह समझ गए थे कि ब्राह्मणवाद का समूलनाश किए बिना अन्याय, असमानता और ग़ुलामी का अंत होने वाला नहीं है. इसके लिए उन्होंने 24 सितंबर 1873 को ‘सत्यशोधक समाज’ की स्थापना की. सत्यशोधक समाज का उद्देश्य ब्राह्मणों की पौराणिक मान्यताओं का विरोध करना, शूद्रों-अतिशूद्रों को ब्राह्मणों की मक्कारी के जाल से मुक्त कराना, पुराणों द्वारा पोषित जन्मजात ग़ुलामी से छुटकारा दिलाना और लोगों को यह बताना कि ईश्वर एक है, जो सर्वव्यापी निर्गुण और निराकार है. वह प्रत्येक वाणी में बसता है. किसी भी जाति और धर्म का व्यक्ति खंडेराव देव के नाम की शपथ लेकर इस संस्था का सदस्य बन सकता था.

सत्यशोधक समाज के सदस्य मुस्लिम, ईसाई, पारसी, यहूदी, ब्राह्मण, मराठा, कोली, महार, माग, चमार और माली आदि धर्मों और जातियों के लोगों से बने थे. इसमें जाति, लिंग, धर्म और वर्ण आदि के आधार पर भेदभाव के लिए कोई जगह न थी. यह एक जनांदोलन बन गया था. इसके माध्यम से फुले ने ब्राह्मणवाद के विरुद्ध एक सांस्कृतिक क्रांति की शुरुआत की थी.

सत्यशोधक समाज के मुख्यतः तीन लक्ष्य थे. एक, भक्त और भगवान के बीच किसी बिचैलिये की ज़रूरत नहीं है और बिचैलियों (ब्राह्मण पुरोहितों) द्वारा लादी गयी ग़ुलामगिरी को नष्ट करना, अन्धश्रद्धा का खात्मा करना और अज्ञानी लोगों को उनकी ग़ुलामी से मुक्त करना.

दूसरा सभी जातियों के स्त्री-पुरुषों को शिक्षा उपलब्ध कराना

और तीसरा साहूकारों एवं जमींदारों के शिकंजे से किसानों को मुक्त करना.

सत्यशोधक आंदोलन महाराष्ट्र में एक जनांदोलन बन गया था. सत्यशोधक समाज के कार्यों में जाोतिराव फुले के साथ सावित्रीबाई फुले की बराबर की हिस्सेदारी थी. 1890 में जोतीराव फुले के देहांत के बाद सत्यशोधक समाज की अगुवाई की जिम्मेदारी सावित्रीबाई फुले ने उठायी.

शूद्रों-अतिशूद्रों और महिलाओं के अलावा जिस समुदाय के लिए जोतीराव फुले ने सबसे ज़्यादा संघर्ष किया. वह समुदाय किसानों का था. उन्होंने ‘किसान का कोड़ा’ (1883) ग्रंथ में किसानों की दयनीय अवस्था को दुनिया के सामने उजागर किया. उनका कहना था कि किसानों को धर्म के नाम पर भट्ट-ब्राह्मणों का वर्ग, शासन-व्यवस्था के नाम पर विभिन्न पदों पर बैठे अधिकारियों का वर्ग और सेठ-साहूकारों का वर्ग लूटता-खसोटता है. असहाय-सा किसान सबकुछ बर्दाश्त करता है.

इस ग्रंथ को लिखने का उद्देश्य बताते हुए वे लिखते हैं कि ‘‘फिलहाल शूद्र-किसान धर्म और राज्य सम्बन्धी कई कारणों से अत्यन्त विपन्न हालात में पहुंच गया है. उसकी इस हालात के कुछ कारणों की विवेचना करने के लिए इस ग्रंथ की रचना की गई है.’’ दो मार्च 1888 को पूना में ब्रिटेन के राजकुमार के सम्मान में बड़ा भोज दिया गया था, जिसमें देश के नामी-गिरामी लोग उपस्थित थे. जोतीराव फुले को भी उसमें बुलाया गया था.

आमजन की वेशभूषा में पहुंचे जोतीराव फुले ने ड्यूक (राजकुमार) को संबोधित करते हुए कहा कि ‘‘यहाँ उपस्थित मेहमानों के बहुमूल्य कपड़ों और उन पर चमचमाते हीरों को देखकर यह मत समझना कि हिंदुस्तान बड़ा सुखी और समृद्ध देश है. सच्चाई कुछ अलग है. ये सोने-चांदी के गहनों से लदे और सुगंधित वस्त्र पहने हुए अमीर लोग इस देश की जनता के सच्चे प्रतीक नहीं हैं. यहां के अधिकांश किसानों के ये प्रतिनिधि नहीं हो सकते. सच्चा हिंदुस्तान देहातों में है. वहां के लोग निर्धन, भूखे, नंगे और बेघर रहते हैं. नंगे पैर ही चलते हैं….अगर राजकुमार सच्चा हिंदुस्तान देखना चाहते हैं, तो वे पास-पड़ोस के देहातों में जाएं, वहां की अज्ञानी जनता की भीषण दरिद्रता को प्रत्यक्ष देखें. अछूतों की झुग्गी झोपड़ियों में जाएं और वहां यह देखें कि कूड़े करकट से भी बदतर हालात में उनकी बस्तियां कैसे जी रही हैं, यह सब प्रत्यक्ष देखकर राजकुमार और उनकी पत्नी जाकर महारानी विक्टोरिया से कहें कि हिंदुस्तान की गरीब जनता दरिद्रता की खाई में पड़ी सड़ रही है.’’

जोतीराव फुले चिंतक, लेखक और अन्याय के खिलाफ निरंतर संघर्षरत योद्धा थे. वे दलित-बहुजनों, महिलाओं और गरीब लोगों के पुनर्जागरण के अगुवा थे. उन्होंने शोषण-उत्पीड़न और अन्याय पर आधारित ब्राह्मणवादी व्यवस्था की सच्चाई को सामने लाने और उसे चुनौती देने के लिए अनेक ग्रंथों की रचना की.

जिसमें प्रमुख रचनाएं निम्न हैं-
1- तृतीय रत्न (नाटक, 1855), 2- छत्रपति राजा शिवाजी का पंवड़ा (1869), 3- ब्राह्मणों की चालाकी( 1869), 4- ग़ुलामगिरी(1873), 5- किसान का कोड़ा (1883), 6- सतसार अंक-1 और 2 (1885), 7- इशारा (1885), 8-अछूतों की कैफियत (1885), 9- सार्वजनिक सत्यधर्म पुस्तक (1889), 10- सत्यशोधक समाज के लिए उपयुक्त मंगलगाथाएं तथा पूजा विधि (1887), 11-अंखड़ादि काव्य रचनाएं (रचनाकाल ज्ञात नहीं).

महात्मा जोतीराव फुले अन्याय के सभी रूपों के खिलाफ खुली जंग छेड़ने वाले आधुनिक भारत के पहले योद्धा थे. ब्राह्मणवाद-मनुवाद के चलते शूद्रों, अतिशूद्रों, महिलाओं और किसानों और निम्न वर्गों पर जो अन्याय हो रहा था, उसके खिलाफ खड़े होने का साहस सबसे पहले जोतीराव फुले ने दिखाया. वे जिस तरह के समाज का सपना देखते थे, वैसे समाज के निर्माण में जाति व्यवस्था और महिलाओं की ग़ुलामी उन्हें सबसे बड़ा अवरोध दिखाई देती थी क्योंकि जाति व्यवस्था और महिलाओं की दासता को हिन्दू धर्म का समर्थन प्राप्त है.

उन्होंने हिन्दू धर्म पर निर्णायक हमला बोल दिया. ब्राह्मणवाद-मनुवाद के समूलनाश का संकल्प उनके जीवन का सबसे बड़ा ध्येय था, क्योंकि उनका मानना था कि यह सभी प्रकार के अन्यायों को जायज ठहराता है, लोगों को अज्ञान और अंधविश्वास में रखकर उनका शोषण और उत्पीड़न करने वालों का समर्थन करता है.

भले ही 1890 में जोतीराव फुले हमें छोड़कर चले गए, लेकिन जोतीराव फुले ने सावित्रीबाई फुले के साथ मिलकर शूद्रों-अतिशूद्रों और महिलाओं के शोषण के खिलाफ जागरण की जो मशाल जलाई, आगे चलकर उनके बाद उस मशाल को सावित्रीबाई फुले ने जलाए रखा. सावित्रीबाई फुले के बाद इस मशाल को शाहूजी महाराज ने अपने हाथों में ले लिया. बाद में उन्होंने यह मशाल डॉ. भीमराव आंबेडकर के हाथों में थमा दिया. डॉ. आंबेडकर ने मशाल को एक धधकती आग में बदल दिया. उस आग की ताप और रोशनी आज भी दलित-बहुजनों और महिलाओं की सबसे बड़ी ताकत है. आज हजारों दलित-बहुजन कार्यकर्ता अपने हाथों में उस मशाल को लेकर स्वतंत्रता, समता और बंधुता पर आधारित लोकतांत्रिक भारत के निर्माण के लिए संघर्ष कर रहे हैं.


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