कलंक: जिसकी ग्रैंड खूबसूरती एक विजुअल ट्रीट है


kalank's sophastication is a visual treat

 

यूं तो इश्क अपने आप में एक खूबसूरत एहसास है, लेकिन हमारे समाज में अक्सर वह कलंक की तरह देखा जाता है. खासतौर से यदि वह किसी लड़की/विवाहित स्त्री के संदर्भ में हो तो. ऐसे में यदि मामला अंतर धार्मिक प्रेम/विवाह का हो तो यह कभी न धोई जा सकने वाली कालिख में बदल जाता है.

असल जिंदगी में हिंदू-मुस्लिम के बीच का इश्क जितना तूफानी है, फिल्मी पर्दे पर भी वह कुछ उसी तरह का रोमांच रचता है. कुछ ऐसे ही रोमांचक सफर पर हमें ले जाती है फिल्म ‘कलंक’. इस फिल्म के नाम में भले ही कालिख पुती हो, लेकिन इसकी शानदार रंगीनियत आपका मन मोह लेगी.

फिल्म की कहानी शुरू होती है आजादी से पहले के भारत में मौजूद हुसैनाबाद(जो अब पाकिस्तान का हिस्सा है) से. यहां चौधरी परिवार की कहानी को दिखाया गया है जिसके अंदर कई राज दफ्न हैं. भारत-पाकिस्तान विभाजन से पहले, लाहौर के नजदीक स्थित हुसैनाबाद में बड़ी संख्या में लोहार रहते हैं और यहां की जनसंख्या में प्रमुख तौर पर मुस्लिम शामिल हैं. यहां रहने वाला चौधरी परिवार हुसैनाबाद का सबसे समृद्ध और शक्तिशाली परिवार है. इस परिवार में बलराज चौधरी (संजय दत्त) और उनका बेटा देव चौधरी (आदित्य रॉय कपूर) शामिल हैं.

देव डेली न्यूज नाम का अखबार भी चलाता है. देव (आदित्य रॉय कपूर) की पत्नी सत्या (सोनाक्षी सिन्हा) मरने वाली है और उससे पहले वो चाहती है कि देव की जिदंगी में कोई आ जाए. किसी मजबूरी के चलते गांव की एक लड़की रूप (आलिया भट्ट) से देव (आदित्य रॉय कपूर) को शादी करनी पड़ती है. लेकिन देव, सत्या से इतना प्यार करता है कि रूप से शादी तो कर लेता है लेकिन उसे अपनी जिंदगी में जगह नहीं दे पाता है.

एक दिन जब रूप, बहार बेगम (माधुरी दीक्षित) से संगीत की शिक्षा लेने जाती है तो उसकी मुलाकात जफर (वरुण) से होती है. कुछ मुलाकातों के बाद दोनों के बीच प्यार पनपने लगता है, जो फिल्म के सभी किरदारों की जिंदगी में भूचाल ले आता है. जफर हुसैनाबाद के बदनाम मोहल्ले रहता है.

अपने हालातों से लड़ते हुए जफर और रूप दोनों अपने प्यार को जीना चाहते हैं. लेकिन तभी शहर हिंदू-मुस्लिम दंगों की आग में झुलसने लगता है. रूप और जफर मिल पाते हैं या नही? या फिर उनका प्यार सिर्फ कलंक बनकर ही रह जाता है? ये जानने के लिए आपको फिल्म देखनी होगी. त्रिकोणीय प्रेम संबंधों और हिंदू-मुस्लिम प्रेम और विवाद के इर्द-गिर्द घूमती कहानी में यूं तो कुछ भी बेहद खास या नया नहीं है.

अभिनय की बात करें तो वरुण धवन इस फिल्म की जान हैं. जफर के रोल में इंतकाम और गुस्से से भरे बेटे के किरदार को वरुण ने पूरी सिद्दत से जिया है. वरुण धवन की पॉवर पैक्ड परफॉर्मेंस सही लगती है. हालांकि वो अपनी पिछली फिल्मों से ज्यादा अलग कुछ नहीं कर पाए हैं. रूप के किरदार में एक बार फिर से आलिया भट्ट ने बेहद प्रभावी काम किया है. वे अद्भुत अभिनेत्री हैं. हर किरदार में सहजता से ढल जाना उनकी खासियत है. फिल्म में आलिया भट्ट और वरुण धवन की केमिस्ट्री जबरदस्त है. उन दोनों की आंखें बेतहाशा बोलती हैं. लव हो या लॉस, वे हर चीज को मैजिक में बदल देते हैं.

वहीं संजीदा पति और बेटे के रोल में आदित्य रॉय कपूर पूरी फिल्म में सिर्फ दिखाई ही देते हैं, करने को उनके पास ज्यादा कुछ नहीं है. हां इक्के-दुक्के डायलॉग्स उन्हें मिल गए हैं. सत्या के रोल में सोनाक्षी के पास भी करने को ज्यादा कुछ नहीं था, हां कई जगह वे खूबसूरत लगती हैं.

फिल्म में माधुरी दीक्षित बहार बेगम नाम की एक तवायफ का किरदार अदा कर रही हैं, वहीं संजय दत्त बलराज चौधरी की भूमिका में नजर आते हैं. 21 साल बाद फिल्मी पर्दे पर दोनों की जोड़ी एक साथ फिर से देखना सुखद लगता है. दो बेटों के बाप के रोल में संजय दत्त बिलकुल फिट बैठते हैं और काफी प्रभावी लगते हैं. तो वहीं प्रेमी की बेवफाई और बेटे की नफरत से जूझती मां के रोल में माधुरी दीक्षित बढ़िया लगती हैं. कुणाल खेमू का काम भी अच्छा है.

‘कलंक’ एक पीरियड ड्रामा मूवी है, जिसे 1940 के बैकड्रॉप पर बनाया गया है. फिल्म के ग्रैंड विजुअल्स और ग्लोरियस परफॉर्मेंस बेहद लुभाते हैं. पूरी फिल्म में आपको सिर्फ भव्यता ही दिखती है. फिल्म के भव्य सेट्स के देखकर संजय लीला भंसाली बार-बार याद आते हैं. यूं लगता है अभिषेक वर्मन फिल्म के डायरेक्टर नहीं बल्कि आर्ट डायरेक्टर हैं. अभिषेक ‘जोधा अकबर’ में असिस्टेंट डायरेक्टर रह चुके हैं. भव्य सेट्स के अपने अनुभव का उन्होंने इस फिल्म में बेहतरीन प्रयोग किया है. सेट्स के साथ-साथ फिल्म की लाइटिंग भी कमाल की है. ज्यादातर गानों को बहुत बड़े लेवल पर शूट किया गया है.

फिल्म के डायलॉग से लेकर किरदारों के बीच की ट्यूनिंग जमती है. नफरत और बदले के बीच पनपने वाले प्यार को यहां खूबसूरती से पेश किया गया है. फिल्म में कुछ संवाद काफी असरदार हैं, लेकिन हिंदी-उर्दू मिक्स करके हो रही इस बातचीत से बहुत जगह आप कान बचाकर निकल जाना चाहते हैं. करण जौहर ने इस फिल्म के लिए श्रीदेवी का चयन किया था, लेकिन उनके निधन के बाद बेगम का रोल माधुरी दीक्षित को मिल गया.

गानों की बात करें तो ‘घर मोरे परदेसिया’ गाने में आलिया भट्ट और माधुरी दीक्षित की जुगलबंदी काफी मोहक है. कलंक का टाइटल ट्रैक काफी सुखद है, वो जितना सुंदर लिखा गया है, उतना ही सुंदर गाया गया है. ‘तबाह हो गए’ गाने में माधुरी दीक्षित अपना जादू रचने में सफल होती हैं. माधुरी ने कत्थक और अपने चेहरे की अदाओं के साथ फिर से देवदास वाला जादू बिखेरा है. ये गाना सुनने और देखने दोनों में उम्दा लगता है. प्रीतम के संगीत और श्रेया घोषाल की आवाज ने इस गाने में अपना कमाल दिखाया है. फिल्म का म्यूजिक प्रीतम और अंकित बल्हारा ने दिया है. कुल मिलाकर फिल्म का संगीत पसंद आने लायक है.

फिल्म के साथ समस्या ये है कि कहीं भी आप इससे कनेक्ट नहीं कर पाते हैं. ‘कलंक’ में कई जगह क्रिएटिव फ्रीडम ऐसी है जो आपको हैरान करने के साथ-साथ खीज भी पैदा कर सकती है. जैसे पहले ही गाने में राजपुताना की बात हो रही है और गाना चलते-चलते बर्फ की वादियों का दृश्य चलने लगता है. राजपुताना और राजस्थान की शान के साथ बर्फ कहां से आई, यह सोच कर आप चौंक सकते हैं!

फिल्म में ड्रामा, ट्विस्ट, एक्टिंग, विजुअल्स सब सही हैं. लेकिन स्क्रीनप्ले थोड़ा टाइट किया जाना चाहिए था. फिल्म की लंबाई आपको थका देती है. लेकिन कुल मिलाकर ‘कलंक’ एक ‘विजुअल ट्रीट’ तो है ही.


Big News