लोकतंत्र में असहमति की आवाज़ हैं कन्हैया कुमार
बीते डेढ़ दशक में हिन्दू कट्टरवादी ताकतों के उभार और उनके दुस्साहस में अप्रत्याशित वृद्धि देखने को मिली है. गुजरात 2002 दंगों के बाद गुजरात के तात्कालीन मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी की कट्टर हिंदूवादी नेता की बनी छवि को बीजेपी ने खूब भुनाया. देश के प्रधानमंत्री बनने के बाद नरेन्द्र मोदी ने खुद को हिन्दू राष्ट्रवादी भी घोषित किया.
न्यूज़ एजेंसी रॉयटर को दिए एक इंटरव्यू में उन्होंने कहा था, “वो राष्ट्रवादी हैं और हिन्दू भी हैं, इसलिए हिन्दू राष्ट्रवादी कहलाने में उन्हें कोई ऐतराज नहीं है.” नरेन्द्र मोदी के ऐसे बयानों से कट्टरपंथी ताकतों का मनोबल बढ़ा.
मोदी सरकार के दौरान गाय व्यापारियों के साथ मारपीट, गोमांस के नाम पर मॉब लिंचिग के साथ-साथ राष्ट्रवाद का हिन्दू संस्करण भारतीय लोकतंत्र पर हावी होने की कोशिश करता रहा है.
देश में कट्टरपंथी ताकतों पर सवाल उठाने वाले को कठघरे में खड़ा किया गया. धर्मनिरपेक्षता के पक्षधर को ‘सिकुलर’ कहकर मजाक उड़ाया गया. उग्र और अंध राष्ट्रवाद की आलोचना करने वालों के लिए बीजेपी और आरएसएस ने ‘टुकड़े-टुकड़े गैंग’ जैसे शब्दों को गढ़ा. उन तमाम प्रगतिशील आवाजों को दबाने की कोशिश की गई जो सरकार के खिलाफ थे. मोदी सरकार की आलोचना को देश की आलोचना करार दिया जाने लगा.
बीते कुछ वर्षों में ऐसी मुखर आवाजों को दबाने के लिए उनकी हत्याएं तक की गईं. अगस्त 2013 में अंधविश्वास के खिलाफ मुहिम चलाने वाले नरेन्द्र दाभोलकर की गोली मारकर हत्या कर दी गई.
20 फरवरी 2015 में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी(सीपीआई) के नेता गोविंद पनसारे की हत्या महाराष्ट्र के कोल्हापुर में कर दी गई. उन्होंने ‘शिवाजी कौन थे’ किताब लिखी थी, जिससे मराठी समाज का एक धड़ा नाराज हो गया था.
लेखक प्रोफेसर कलबुर्गी की हत्या 30 अगस्त 2015 में कर दी गई थी. इसके दो साल बाद बेंगलुरू में रहने वाली पत्रकार गौरी लंकेश की हत्या सितंबर 2017 में कर दी गई.
सीबीआई दाभोलकर की हत्या की जांच कर रही है. महाराष्ट्र की एसआईटी को पनसारे हत्याकांड की जांच भी सौंपी गई. कलबुर्गी मामले की जांच कर्नाटक की सीआईडी कर रही है. गौरी लंकेश की हत्या की जांच कर्नाटक की एसआईटी के जिम्मे में है.
11 दिसंबर को सुप्रीम कोर्ट ने सीबीआई को कहा कि पत्रकार गौरी लंकेश और कार्यकर्ता नरेन्द्र डाभोलकर, गोविंद पनसारे और एमएम कलबुर्गी की बर्बरतापूर्ण हत्याओं का संबंध एक सूत्र से बंधा हुआ है. कोर्ट ने सभी मामलों की जांच किसी एक एजेंसी से करवाने की सलाह दी है.
चारों हत्याओं में एक समानता है. ये चारों हिन्दू राष्ट्रवाद का विरोध कर रहे थे. बीजेपी और उनकी हिन्दूवादी राजनीति के ये चारों मुखर विरोधी आवाज थे. सुप्रीम कोर्ट ने भी सुनवाई के दौरान ये व्याख्या की है कि ये हत्याएं दो विचारधाराओं की लड़ाई की वजह से हुई हैं.
जांच में भी कलबुर्गी और गौरी लंकेश की हत्या में जुड़ाव के संकेत मिले हैं. कर्नाटक पुलिस ने सुप्रीम कोर्ट को बताया था कि पुलिस को दोनों मामले में कनेक्शन मिले हैं. जांच में पता चला है कि गौरी लंकेश और एमएम कलबुर्गी की हत्या करने के लिए एक ही बंदूक का इस्तेमाल किया गया था. इसके अलावा इन चारों की हत्याओं के लिए एक ही तरह के हथियार का इस्तेमाल किया गया.
कट्टरपंथी ताकतें अक्सर तर्कवादियों की आवाज़ को खामोश करने की कोशिश करते हैं. अभी तक मिले प्रमाणों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि इन तर्कवादियों की हत्याएं भी इसी वजह से हुई हैं. ये सभी तर्कवादी थे और अपने अपने क्षेत्र में कट्टरपंथी ताकतों के खिलाफ मुहिम चला रहे थे.
फरवरी 2016 में बीजेपी और संघ की नीतियों के खिलाफ ऐसी ही एक आवाज़ जेएनयू छात्र संघ के पूर्व अध्यक्ष कन्हैया कुमार के रूप में उभरी.
जेएनयू में भारत विरोधी नारे के आरोप में उन्हें कैम्पस से गिरफ्तार किया गया था. उन्हें तिहाड़ जेल में डाल दिया गया. कोर्ट में पेशी के दौरान उन पर हमला किया गया. इसके बाद मीडिया के खास तबके में उन्हें देशद्रोही साबित करने का प्रचार अभियान शुरू हो गया. कट्टरपंथी ताकतों से जुड़े लोग सोशल मीडिया पर घृणा अभियान चलाने लगे. इन सबका असर आम जनमानस की सोच पर भी हुआ. नतीजतन समाज का एक तबका कन्हैया कुमार को ‘देशद्रोही’ और हिन्दू विरोधी मानने लगा.
जेल से निकलने के बाद धारदार भाषण शैली और सरलता के साथ अपनी बात रखने की वजह से एक बड़ा तबका उनके साथ भी आया. इसके बाद मीडिया कार्यक्रमों में वो बुलाए जाने लगे और मोदी सरकार की स्पष्ट भाषा में आलोचना करने लगे. आज सोशल मीडिया पर वो मोदी विरोध की आवाज़ के तौर पर काफी लोकप्रिय हैं.
उम्मीद की जा रही थी कि मौजूदा लोकसभा चुनाव में वो मोदी विरोध की आवाज़ के तौर पर विपक्षी एकता के एक चेहरा होंगे और चुनावी मैदान में उतरेंगे. लेकिन बिहार के राजनीतिक समीकरण में उनकी पार्टी को राजद-कांग्रेस वाले महागठबंधन में जगह नहीं मिल पाई.
इसकी जगह महागठबंधन की ओर से पिछली दफा दूसरे स्थान पर रहे तनवीर हसन को बेगूसराय से उम्मीदवार घोषित किया गया. बिहार की राजनीति पर नज़र रखने वालों के हवाले से पिछले दिनों मीडिया में इस बात की खूब चर्चा रही है कि तेजस्वी यादव के राजनीतिक सलाहकारों ने उन्हें कन्हैया से सतर्क रहने को कहा है.
मोदी सरकार के कामकाज की आलोचना करने वाली हर तरह की आवाज को दबाने की पुरजोर कोशिश तेज हुई है. इसके बावजूद कन्हैया कुमार दलित उत्पीड़न, तर्कवादियों की हत्या और बीजेपी की नीतियों के खिलाफ मीडिया और सोशल मीडिया पर बोलते रहे हैं.
संगठित घृणा अभियानों के बाद उनकी सुरक्षा को लेकर चिंताएं बढ़ी हैं. आदर्श आचार संहिता लागू होने के बाद कन्हैया कुमार को सरकार की ओर से मिली सुरक्षा भी हटा ली गई हैं. इसी बीच कन्हैया कुमार ने चुनाव प्रचार के दरम्यान बीजेपी उम्मीदवार गिरिराज सिंह के समर्थकों पर हमले का आरोप लगाया है.
असहमति की आवाज़ को महत्व देना लोकतंत्र की अनिवार्य शर्त है. जब सरकार और सरकार समर्थित कट्टरवादी ताकतों के द्वारा असहमति के स्वर को दबाने के खुलेआम प्रयास हो रहे हैं तो ऐसे वक्त में कन्हैया कुमार जैसे युवा जोश और विवेक रखने वाले युवा नेताओं की संसद में सख्त जरूरत महसूस होती है.
खैर, ये तो बेगूसराय की जनता को तय करना है कि वो कन्हैया कुमार पर भरोसा जताती है या नहीं. लेकिन इस बात में कोई शक नहीं कि कन्हैया कुमार एक संभावनाओं वाले युवा नेता हैं जो भारत की राजनीति में लंबी पारी खेल सकते हैं.