कीर्ति की उम्मीदवारी से खिंचीं बीजेपी के माथे पर चिंता की लकीरें
पूर्व क्रिकेटर और बिहार के दरभंगा से लगातार तीन बार के सांसद रहे कीर्तिवर्द्धन भागवत झा आजाद के धनबाद से चुनाव लड़ने की घोषणा के साथ ही ये संसदीय सीट रातों-रात हाई प्रोफाइल बन गई है.
इसके साथ ही यह तय हो गया है कि सन् 2014 के आम चुनाव की तरह इस बार बीजेपी के प्रत्याशी व निवर्तमान सांसद पशुपतिनाथ सिंह को वाक ओवर मिलने वाला नहीं है.
धनबाद संसदीय क्षेत्र को बीजेपी का गढ़ माना जाता है. पहली बार सन् 1991 में प्रोफेसर रीता वर्मा ने बीजेपी प्रत्याशी के रूप में वामपंथ के इस गढ़ को भेदा था. उसके बाद सन् 2004 के आम चुनाव को छोड़ दें तो अब तक इस सीट पर बीजेपी की मजबूत पकड़ बनी हुई है.
बीजेपी के कार्यकर्त्ता अगले आम चुनाव में भी मोदी मैजिक बरकरार रहने की उम्मीद लगाए बैठे हैं. चर्चा आम है कि बीजेपी कार्यकर्त्ता फील गुड वाली मन:स्थिति में है, जबकि मौजूदा राजनीतिक समीकरण पिछले चुनाव जैसा नहीं है. ऐसे में कीर्ति आजाद को प्रत्याशी बनाकर कांग्रेस ने जो दांव खेला है, वह बीजेपी के लिए परेशानी का सबब बन सकता है.
बीजेपी चुनावी रणनीति के तहत हवा बनाने की कोशिश में है कि कीर्ति आजाद सन् 2014 में कांग्रेस के प्रत्याशी अजय दूबे जैसे ही कमजोर साबित होंगे. पर बीजेपी के रणनीतिकार दबी जुबान स्वीकार कर रहे हैं कि कीर्ति आजाद और अजय दूबे में जमीन-आसमान का फर्क है. अजय दूबे जमीनी नेता कभी नहीं रहे. उन्होंने पहले कभी कोई चुनाव नहीं लड़ा था. उन्हें बीजेपी के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष व सांसद पशुपतिनाथ सिंह के मुकाबले जैसे ही चुनाव मैदान में उतारा गया, सब ने मान लिया था कि मोदी लहर में बीजेपी प्रत्याशी को वाक ओवर मिल गया. ऐसा हुआ भी. श्री सिंह 2,92,954 मतों के अंतर से जीत गए थे. यह निर्विरोध जीत जाने जैसी स्थिति थी.
कीर्ति आजाद को कमजोर प्रत्याशी साबित करने की कोशिश इस तर्क के आधार पर है कि वे झारखंड के लिए बिल्कुल नए हैं. इसलिए बीजेपी के स्थापित नेता पशुपतिनाथ सिंह के साथ मुकाबला नहीं कर पाएंगे. पर आरएसएस से जुड़े कई लोग, जो दरभंगा में कीर्ति आजाद के लिए काम कर चुके हैं, वे मान रहे हैं कि कीर्ति आजाद को हल्के में लेना जोखिम भरा काम हो सकता है.
दिल्ली के हाई प्रोफाइल गोल मार्केट विधानसभा क्षेत्र से बीजेपी की टिकट पर चुनाव जीतकर अपने राजनीतिक करियर की शुरूआत करने वाले श्री आजाद को पहली बार सन् 1999 के आम चुनाव में दरभंगा से प्रत्याशी बनाया गया था. उस समय बिहार में लालू यादव का जलवा था. उनके राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी) के कद्दावर नेता व दरभंगा से तीन बार के सांसद मुहम्मद अली अशरफ फातमी चुनाव मैदान में थे. आजाद का बाहरी होना भी उनके पक्ष में नहीं था. उनका दरभंगा से इतना ही नाता था कि वहां उनका ससुराल है.
आरजेडी के नेताओं को भरोसा था कि बिहार की राजनीति के नए खिलाड़ी आजाद सूखे पत्ते की तरह उड़ जाएंगे. पर मृदुभाषी, देश-दुनिया की घटनाओं पर व्यापक दृष्टिकोण रखने वाले बेहतरीन वक्ता आजाद चुनावी मैदान में उतरे तो मतदाताओं के दिलों में भी उतरते चले गए थे. नतीजा यह हुआ कि आजाद ने फातमी को 55 हजार से भी ज्यादा मतों से पराजित करके सबको चौंका दिया था. फिर तो वहीं से दो बार और चुनाव जीते.
सन् 2000 में झारखंड राज्य बनने से पूर्व अविभाजित बिहार के मुख्यमंत्री रहे भागवत झा आजाद के पुत्र कीर्ति आजाद के लिए झारखंड और धनबाद संसदीय क्षेत्र नया जरूर है. पर कई बातें उनके पक्ष में भी हैं. मसलन, वह मजबूत विपक्षी गठबंधन के प्रत्याशी हैं. लोगों को आज भी याद है कि उनके पिता ने मुख्यमंत्री रहते कोयला उद्योग में जमे माफियों का सफाया किया था. तब इस अभियान के समर्थन में वामपंथी संगठनों से लेकर संघ परिवार तक था. कांग्रेस में आज भी ऐसे नेताओं की कमी नहीं, जिनका भावनात्मक जुड़ाव भागवत झा आजाद से रहा है.
धनबाद से जुड़े कुछ अन्य बातें भी उनके पक्ष में हैं. मसलन, धनबाद में एक अनुमान के मुताबिक लगभग ढाई लाख ब्राह्मण मतदाता हैं. इनमें लगभग सत्तर हजार मैथिल ब्राह्मण हैं. कीर्ति आजाद झा भी मैथिल ब्राह्मण हैं. इनके अलावा लगभग साढ़े तीन लाख अल्पसंख्यक मतदाता हैं. पिछले चुनाव में मार्क्सवादी समन्वय समिति (एमसीसी) के प्रत्याशी आनंद महतो को 110,185 वोट, झाविमो के प्रत्याशी समरेश सिंह को 90,926 वोट और कांग्रेस से बगावत करके तृणमूल कांग्रेस के प्रत्याशी बने धनबाद के पूर्व सांसद चंद्रशेखर दूबे को 29,937 वोट मिले थे. इस बार इन वोटों का ध्रुवीकरण कांग्रेस के पक्ष में हो सकता है.
धनबाद कोयलांचल में और भी कई मुद्दे हैं, जिन्हें उठाकर आजाद मतदाताओं को अपनी ओर आकर्षित कर सकते हैं. जैसे, तीन दशकों बाद फिर से नए किस्म का माफियावाद कोयलांचल में अपनी जड़ें जमा चुका है. सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यम संकट में हैं. कोयला उद्योग, जहां इंदिरा गांधी की वजह से स्वर्णिम बिहान हुआ था, वह फिर से संकटग्रस्त है. बीते साल ही कानून बनाकर सार्वजनिक क्षेत्र की महारत्न कंपनी कोल इंडिया लिमिटेड का एकाधिकार समाप्त कर दिया गया था. निजी क्षेत्र में भी कोयला खनन की इजाजत दी गई थी. इस बात से कोयला श्रमिक बेहद नाराज हैं.
सबसे बड़ी बात यह कि बीते दस सालों में रोजगार सृजन के लिए ऐसा कोई उल्लेखनीय काम नहीं हुआ. इन वजहों से मौजूदा सांसद के प्रति लोगों का आक्रोश उजागर होते रहता है. बीजेपी के सांसद अपने उल्लेखनीय कार्यों में सिंदरी में नए खाद कारखाने की स्थापना और भारतीय खनि विद्यापीठ को आईआईटी का दर्जा दिए जाने को गिनाते हैं. पर ये उपलब्धियां जनता को कितना लुभा पाएंगी, इसको लेकर सवाल है. युवाओं को रोजगार चाहिए. आईआईटी में स्थानीय निवासियों के लिए रोजगार के अवसर गिने-चुने हैं. सिंदरी में नए खाद कारखाने से बमुश्किल पांच सौ अभियंताओं व अन्य दक्ष युवाओं को रोजगार मिलना है.
भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू की पहल पर धनबाद संसदीय क्षेत्र के सिंदरी में सार्वजनिक क्षेत्र का प्रथम उद्यम भारतीय खाद निगम (एफसीआई) के उर्वरक संयंत्र की स्थापना की गई थी. कोई 6,500 एकड़ में फैली सार्वजनिक क्षेत्र की इस कंपनी में पच्चास के दशक में लगभग 17 हजार लोगों को नौकरी मिली थी. सन् 2003 में एनडीए सरकार के शासनकाल में जब यह कारखाना बंद हुआ था तो लोगों के गुस्से का आलम यह था तत्कालीन सांसद प्रोफेसर रीता वर्मा के खिलाफ वोट दिया था. नतीजतन, कांग्रेस के प्रत्याशी चंद्रशेखर दूबे जीत गए थे.
इसके बाद केंद्र की यूपीए सरकार ने इस खाद कारखाने की अहमियत समझी और सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यम के रूप में ही गैस आधारित नया खाद कारखाना स्थापित करने का आधार तैयार किया. पर उस योजना को जमीन पर उतारने का मौका मोदी सरकार को मिला. छह सौ एकड़ जमीन में 1.3 मिलियन टन क्षमता वाले गैस आधारित इस संयंत्र में बमुश्किल 456 लोगों को नौकरी मिलनी है. यानी रोजगार सृजन में इस संयंत्र की भी खास भूमिका नहीं बन पाई है. यही हाल सार्वजनिक क्षेत्र के कोयला उद्योग का है. श्रमिक रिटायर होते गए और उनके हिस्से का काम आऊटसोर्स किया जाता रहा. नतीजतन, लगभग एक लाख श्रमिक बिना किसी सामाजिक सुरक्षा के निजी कंपनियों में काम कर रहे हैं. खास बात यह कि उनके काम स्थायी प्रकृति के हैं. जाहिर है कि श्रमिकों में असंतोष है.
पिछले आम चुनाव में भी बीजेपी का सीधा मुकाबला कांग्रेस से था. पर तब बीजेपी प्रत्याशी को कई फायदे थे. मोदी लहर थी. कांग्रेस के कमजोर प्रत्याशी के मैदान थे. दिग्गज वामपंथी नेता व पूर्व सांसद एके राय की मार्क्सवादी समन्वय समिति (एमसीसी) और पूर्व मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी की पार्टी झारखंड विकास मोर्चा (प्रजातांत्रिक) के साथ ही ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस, बसपा व आम आदमी पार्टी के प्रत्याशी भी मैदान में थे. इस वजह से बीजेपी विरोधी वोट बंट गए थे.
इस बार कांग्रेस का झारखंड के क्षेत्रीय दलों के साथ मजबूत गठबंधन है. गठबंधन की सक्रियता का अंदाज इस बात से लगाया जा सकता है कि कीर्ति आजाद को प्रत्याशी घोषित किए जाने के कुछ घंटों के भीतर गठबंधन के सभी दलों के नेताओं ने साझा बैठक करके एकजुटता का संदेश दे दिया था. धनबाद सीट कांग्रेस के खाते में होने के बावजूद झारखंड विकास मोर्चा की ओर से धनबाद के रणधीर वर्मा स्टेडियम में धनबाद व बोकारो ज़िलों के पंचायत स्तरीय कार्यकर्त्ताओं का सम्मेलन आयोजित किया गया. इसमें पार्टी के केंद्रीय अध्यक्ष बाबूलाल मरांडी ने कार्यकर्ताओं को बीजेपी को उखाड़ फेंकने का संकल्प दिलाया.
धनबाद कोयलांचल की राजनीति में दिवंगत मजदूर नेता सूरजदेव सिंह के परिवार की मजबूत दखल है. उनके बेटे संजीव सिंह झरिया विधानसभा क्षेत्र से बीजेपी के विधायक हैं. अपने ही चचेरे भाई की हत्या के आरोप में मौजूदा समय में जेल में हैं. सूरजदेव सिंह के निधन के बाद बीते दस वर्षों में उनका परिवार बंट चुका है. सूरजदेव सिंह की पत्नी और एक लड़के ने बीजेपी का झंडा थाम रखा है.
सूरजदेव सिंह के छोटे भाई व झारखंड सरकार में मंत्री रहे बच्चा सिंह और उनके एक भाई के लड़के कांग्रेस के साथ हैं. संजीव सिंह अपने चचेरे भाई और कांग्रेस के नेता नीरज सिंह की हत्या के आरोप में जेल गए तो उन्हें जरूर उम्मीद रही होगी कि सत्तारूढ़ दल के साथ होने का लाभ मिलेगा. पर ऐसा नहीं हो पाया. मुख्यमंत्री रघुवर दास दूरी बनाकर ही रहे. संभवत: इस कारण से ही विधायक संजीव सिंह के छोटे भाई बीजेपी के खिलाफ बगावत पर उतारू हैं. वे लोकसभा का चुनाव निर्दलीय लड़ने के लिए ताल ठोके हुए हैं.
ये तमाम वजहें हैं, जिनके कारण आरएसएस के लोग आजाद की उम्मीदवारी को चुनौती के रूप में देख रहे हैं.