बदहाल कामगार: ज्यादा काम, कम वेतन


labourer: More work and less salary

 

रोजगार पर नेशनल सैंपल सर्वे (एनएसएसओ) की रिपोर्ट को छिपाने के लिए सरकार ने भले ही एड़ी-चोटी का जोर लगाया हो, लेकिन रिपोर्ट के कुछ हिस्से सार्वजनिक होने लगे हैं. ऐसी ही एक हिस्से के आधार पर अंग्रेजी अखबार द टेलीग्राफ ने लिखा है कि ज्यादातर भारतीय कामगार हर सप्ताह 48 घंटे से अधिक देर तक काम करने को मजबूर हैं.

भारत में प्रति सप्ताह काम करने की कानूनी सीमा 48 घंटे की है. अंतराष्ट्रीय श्रम संगठन ने भी 48 घंटे की सीमा को मान्यता दी है. भारत में 48 घंटे से अधिक काम करने को वैकल्पिक रखा गया है. आवश्यक होने पर अतिरिक्त घंटे काम करने पर छुट्टी या वेतन के रूप में क्षतिपूर्ति का प्रावधान है.

रिपोर्ट के मुताबिक 52-55 फीसदी ग्रामीण कर्मचारी और 68-70 फीसदी शहरी कामगारों को प्रति सप्ताह 48 घंटे से अधिक काम करना पड़ता है. शहरी इलाकों में औसतन हर सप्ताह 53 घंटे और ग्रामीण क्षेत्रों के कामगारों को औसतन 46 घंटे काम करना होता है. यह जुलाई 2017 से जुलाई 2018 के बीच के आंकड़ें हैं.

घर से बाहर काम करने वाली ग्रामीण क्षेत्रों की 50 फीसदी से अधिक महिलाएं आंशिक बेरोजगार हैं.  आधी महिला कामगारों को प्रति सप्ताह 36 घंटे से कम काम मिलता है. एनएसएसओ के मुताबिक, इनमें खाना पकाने, सफाई करने और कपड़ा धोने जैसे घरेलू कामों को पूरी तरह से शामिल नहीं किया जा सका है.

रिपोर्ट के मुताबिक शहरों में कुछ मजदूरों को प्रति सप्ताह 84 घंटे से अधिक काम करना पड़ता है.

साल 2017 में हुए एक सर्वे में पता चला था कि 55 फीसदी कर्मचारी अपने काम से संतुष्ट नहीं हैं. इस सर्वे में 1800 कामगारों ने भाग लिया था. सर्वे से यह भी पता चला था कि 55 फीसदी कर्मचारियों को ओवरटाइम के लिए अतिरिक्त भुगतान नहीं किया गया. इनमें केवल 40 फीसदी कर्मचारियों ने ही माना कि उन्हें केवल एक बार अतिरिक्त घंटे काम करने के एवज में भुगतान हुआ.

एनएसएसओ की रिपोर्ट और सर्वे से पता चलता है कि अतिरिक्त घंटे काम करने के बावजूद कामगारों को न तो अतिरिक्त भुगतान किया गया न ही उन्हें कोई अन्य सुविधाएं दी गईं. ज्यादातर कामगार अपने काम से असंतुष्ट हैं.  कामगार कम वेतन पर काम कर रहे हैं और वेतन वृद्धि की दर काफी धीमी है. इसके साथ ही कामगारों के बीच वेतन का अंतर भी बहुत बड़ा है.

कामगारों की बदहाल स्थिति के बावजूद उनके अधिकारों की बात करना पुराने जमाने की बात हो गई है. कामगारों के अधिकारों की बात करने के लिए यूनियन बने ही नहीं हैं या वह खत्म हो चुके हैं.


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