हिंदी को भारत पर थोपना संवैधानिक दायित्व नहीं बल्कि एक राजनीतिक एजेंडा


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अखिल भारतीय संयुक्त प्रवेश परीक्षा, मेन्स (JEE mains) की हालिया अधिसूचना ने एक बार फिर भारत में भाषा की बहस छेड़ दी है. अखिल भारतीय संयुक्त प्रवेश परीक्षा के लिए जारी नई अधिसूचना में केवल तीन भाषाओं, हिंदी, अंग्रेजी और गुजराती को परीक्षा के माध्यम के लिए शामिल किया गया है.

आवेदन करते समय छात्रों को इनमें से किसी एक भाषा को चुनने के लिए कहा गया है. वर्ष 2014 में केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड ने इस परीक्षा के माध्यम के लिए उर्दू, मराठी और गुजराती को शामिल किया था. हालांकि, 2016 में उर्दू और मराठी को परीक्षा के माध्यम की सूची से हटा दिया गया था लेकिन हिंदी और अंग्रेजी के अलावा गुजराती भाषा में यह परीक्षाएं जारी रहीं.

2019 के बाद से यह परीक्षाएं नेशनल टेस्टिंग एजेंसी (NTA) द्वारा आयोजित की जाती हैं जिसकी वर्तमान अधिसूचना में केवल तीन भाषाओं का विकल्प ही बचा है. इन तीन भाषाओं के चयन में न तो कानूनी और न ही कोई तार्किक आधार है, यह केवल एक राजनीतिक एजेंडा है. यह वर्तमान केंद्र सरकार की भाषा सम्बंधित नीति का ही परिचायक है.
 
केंद्र की बीजेपी सरकार समय-समय पर हमारी देश की भाषाई विविधता को कमतर मानते हुए किसी एक भाषा (ज्यादातर हिंदी) को थोपने का प्रयास कर रही है. ऐसा ही एक प्रयास था नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति के मसौदे में त्रिभाषीय फॉर्मूला को लागू करने का प्रस्ताव, जिसमें भारत के सभी स्कूलों में दो अन्य भाषाओं के साथ-साथ हिंदी सीखने की अनिवार्यता थी.

प्राथमिक स्तर पर त्रिभाषीय फॉर्मूला अव्यावहारिक और छात्रों पर अतिरिक्त बोझ डालने वाला है. भाषा कौशल संज्ञानात्मक क्षमताओं के विकास के लिए महत्वपूर्ण है, लेकिन प्रारंभिक स्तर पर तीन भाषाओं को थोपना छात्रों के लिए एकतरफा है और इससे छात्रों पर पढ़ाई का अधिक बोझ पड़ेगा.
 
भारत का संविधान भारत की विविध संस्कृति को पहचानता है. इस विविधता और बहुलता को पहचानने और सम्मान किए बिना हम एक राष्ट्र के रूप में भारत की कल्पना नहीं कर सकते. इस विविधता में विविध जलवायु और जैव विविधता के अलावा,विविध संस्कृति और भाषाएँ हैं.

लोगों के जीवन में ही नहीं बल्कि सभ्यताओं के विकास में भी भाषा की केंद्रीय भूमिका है. भाषा केवल संचार के लिए एक माध्यम नहीं है, बल्कि पहचान की एक केंद्रीय और परिभाषित विशेषता भी है. भाषा का किसी की पहचान बनाने में महत्वपूर्ण योगदान है इसलिए इसे संरक्षित किया जाना चाहिए व देश की विविध संस्कृति के सम्मान के लिए सभी भाषाओं का सम्मान होना चाहिए.

इस तथ्य को हमारे संविधान के अनुच्छेद 29 में भी परिभाषित किया गया है, ‘भारत के राज्यक्षेत्र या उसके किसी भाग के निवासी नागरिकों के किसी अनुभाग को, जिसकी अपनी विशेष भाषा, लिपि या संस्कृति है, उसे बनाए रखने का अधिकार होगा. राज्य द्वारा पोषित या राज्य-निधि से सहायता पाने वाली किसी शिक्षा संस्था में प्रवेश से किसी भी नागरिक को केवल धर्म, मूलवंश, जाति, भाषा इनमें से किसी के आधार पर वंचित नहीं किया जाएगा.’

इसलिए ऐसा कोई भी प्रयास जो भारत की विविधता पर एकरूपता थोपता हो भारत के संविधान के खिलाफ है. बीजेपी सरकार द्वारा पूरे देश पर एक भाषा थोपना भी संविधान के ही खिलाफ है. केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह का 4 सितंबर को नई दिल्ली में राष्ट्रीय हिंदी दिवस पर बोलते हुए दिया बयान इसी विचार द्वारा निर्देशित था जिसमें वह भारत के सभी क्षेत्रों में हिंदी को ले जाने और हिंदी को देश की भाषा बनाने की आवश्यकता पर बल देते है. अमित शाह का बयान भारत की विविधता के मूल सिद्धांतों पर हमला है. हालाँकि, इस बयान से किसी को हैरानी नहीं होनी चाहिए क्योंकि हम भाषा के प्रति आरएसएस और हिंदुत्ववादी ताकतों के रुख को अच्छे से जानते हैं.

वीडी सावरकर ने सबसे पहले ‘हिंदी, हिंदू, हिंदुस्तान’ के सिद्धांत का आह्वान किया था. आरएसएस ‘एक राष्ट्र, एक भाषा, एक संस्कृति’ की वकालत करता रहा है. हिन्दुत्ववादी ताकतें देश की भाषाई और सांस्कृतिक विविधता के खिलाफ एक राष्ट्रीय भाषा के विचार को स्थापित करने का प्रयास करती आई हैं. एकमात्र समस्या यह है कि यह बयान गृह मंत्री के
द्वारा दिया गया था जिनकी जिम्मेदारी है संवैधानिक मूल्यों को बरकरार रखने की न कि आरएसएस के दृष्टिकोण को प्रचारित करने की.
 
हिंदी को भारत की ‘राष्ट्रभाषा’ के रूप में बहस उस समय से चली आ रही है जब संविधान लिखा जा रहा था, हालांकि हमें याद रखना चाहिए कि जब हमने संविधान को अपनाया था तो आरएसएस के इस दृष्टिकोण की निर्णायक हार हुई थी. संविधान सभा में हिंदी को राष्ट्र भाषा घोषित किए जाने की मांग की जा रही थी. श्यामा प्रसाद मुखर्जी, जो उस समय हिंदू महासभा के प्रमुख थे और बाद में भारतीय जनसंघ के अध्यक्ष बने, ने सभा में मांग की थी कि हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाया जाए. लेकिन यह स्वीकार नहीं किया गया. हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि पेरियार और जस्टिस पार्टी के नेतृत्व में 1937-40 में तमिलनाडु में और 1946-50 में द्रविड़ कज़गम के नेतृत्व में हिंसक हिंदी विरोधी आंदोलन हुए थे.

संविधान ने हिंदी को आधिकारिक भाषा का रूप प्रदान किया और यह भी कहा कि आने वाले 15 वर्षों की अवधि के लिए अंग्रेजी भी आधिकारिक भाषा होगी. अंग्रेजी के उपयोग को जारी रखने के लिए 1965 में राजभाषा अधिनियम में संशोधन किया गया. एक राष्ट्रीय भाषा के बजाय, संविधान की आठवीं अनुसूची ने 14 क्षेत्रीय भाषाओं को सूचीबद्ध किया जिनकी संख्या अब 22 हो गई है. इन सभी अनुसूचित भाषाओं को एक समान दर्जा प्राप्त है. राज्यों को अपनी आधिकारिक भाषा घोषित करने के लिए संविधान में भी प्रावधान है. संविधान में भाषाओं के निर्माण में भारत के बहुभाषी चरित्र को ध्यान में रखा. इसके तुरंत बाद भाषा के आधार पर राज्यों का गठन भी इसी भाषाई सिद्धांत की एक और मान्यता थी. 

अक्सर यह सवाल आता है कि क्या भारत की एक राष्ट्रीय भाषा है? आम तौर पर यह तर्क दिया जाता है कि कई देशों में एक राष्ट्रीय भाषा है, इसलिए भारत में एक राष्ट्रीय भाषा क्यों
नहीं हो सकती है? इसका उत्तर बहुत सरल है, उन देशों में उस तरह की विविधता नहीं है जैसी हमारे देश में पाई जाती है. इसलिए हमारे यहाँ कोई एक राष्ट्रीय भाषा नहीं है.

ग्रीनबर्ग के विविधता सूचकांक के अनुसार, भारत भाषा विविधता में दुनिया में तीसरे स्थान पर है. हमारे जैसे बेहद बहुसांस्कृतिक और बहुभाषी देश के लिए किसी भी एक भाषा को अपनी राष्ट्र भाषा घोषित करना अव्यावहारिक ही नहीं असंवैधानिक भी है. सामान्यता संस्कृति और भाषा से राष्ट्र एकजुट हो सकते हैं और राष्ट्रीय पहचान की भावना पैदा करने में योगदान कर सकते हैं. लेकिन भारत के हमारे अपने अनुभव रहें हैं हमने जब कभी किसी एक संस्कृति या भाषा को थोपने की कोशिश की है तो इस मुद्दे पर हिंसक संघर्ष देखे हैं. वास्तव में, यह राष्ट्र के संस्थापकों की परिपक्वता और संविधान के प्रति उनकी वचनबद्धता का प्रमाण है कि सांस्कृतिक और भाषाई विविधता को पहचानते हुए सभी विश्वास, संस्कृति, भाषा और जाति के नागरिकों के लिए भारतीय पहचान व्यापक अर्थों में एकजुट हुई है.

हालाँकि हिंदी और अंग्रेजी को अधिक महत्त्व का, अन्य भाषाओं और उनके बोलने वालों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है. यह भी सच है की अन्य भाषा बोलने वालों के बीच भी हिंदी और अंग्रेजी सिखने का चलन बड़ा है. इसका मुख्य कारण है कि इन दोनों भाषा में निपुणता सफलता का साधन मानी जाती है. वह लोग सरकारी काम निपटाने के लिए मानक भाषा सीखना चाहते हैं, अन्यथा उन्हें साक्षर नहीं माना जाएगा और उनकी आवाज नहीं सुनी जाएगी. लेकिन वे कभी भी इस बात के लिए तैयार नहीं हैं कि उनकी मानक भाषा उनकी बोली जाने वाली भाषा को बदल देगी. वे सत्ता की शक्ति सीखना चाहते है ताकि इससे वह शक्ति प्राप्त कर सके लेकिन ऐसा वह अपनी भाषाओं को दबाकर नहीं करना चाहते.

हिंदी को बढ़ावा देना एक संवैधानिक दायित्व नहीं वल्कि एक राजनीतिक एजेंडा है. ऐसी नीतियों से भारत की विविधता और संघवाद को खतरा है. शिक्षा और भाषा के एकाधिकार की केंद्र सरकार की विचारधारा से राज्यों का विश्वास केंद्र में कम होगा जिसका भारतीय राजनीतिक व्यवस्था पर प्रतिकूल प्रभाव डालेगा.

इस पूरी बहस का सारांश यह है कि एक भाषा को दूसरों पर थोपने का मतलब होगा संस्कृति, साम्राज्यवाद का एक रूप. अपनी भाषा पर गर्व करने में कोई बुराई नहीं है, लेकिन दूसरी तरफ, किसी की भाषा का अनादर करना किसी की संस्कृति का अपमान करने का पर्याय है. लोगों से केवल इसलिए नफरत करना कि वे एक अलग जुबान बोलते हैं, किसी घृणा अपराध से कम नहीं है.

हिंदी को राज्य-प्रायोजित राष्ट्रीय भाषा बनाने की कोशिश से देश की एकता को नुकसान होगा. सभी भारतीय भाषाओं को एक समान दर्जा दिया जाना चाहिए और अपने-अपने राज्यों में
जीवन के सभी क्षेत्रों में बढ़ावा दिया जाना चाहिए. भाषाओं की समानता और भाषाई अल्पसंख्यकों के अधिकारों की मान्यता लोकतंत्र और संघवाद को मजबूत करेगी. इस लोकतांत्रिक भाषा नीति के खिलाफ किसी भी कदम का विरोध किया जाना चाहिए.


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