वे नाटक और सामानांतर सिनेमा को नई ऊंचाई पर ले गए
बहुमुखी प्रतिभा के धनी गिरीश कर्नाड ना केवल फिल्मी पर्दे पर बेहतरीन कलाकार थे, बल्कि उन्होंने भारतीय नाटक जगत को कई बेहतरीन नाटक दिए हैं. आलोचकों की सराहना पाने वाले कर्नाड ने कन्नड़ भाषा में कई नाटक लिखे और उनका निर्देशन किया. इसके साथ ही भारतीय सामानांतर सिनेमा में उनका योगदान उल्लेखनीय रहा है.
कर्नाड का जन्म 19 मई 1938 को बॉम्बे प्रेसीडेंसी (अब महाराष्ट्र) में हुआ था. 1958 में कर्नाटक विश्वविद्यालय से स्नातकोत्तर पूरा करने के बाद गिरीश पढ़ने के लिए ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी चले गए थे. यहां साल 1960-63 में रहते हुए उन्होंने दर्शनशास्त्र, राजनीति और अर्थशास्त्र की पढ़ाई की.
ऑक्सफोर्ड में रहते हुए ही साल 1961 उन्होंने अपना पहला नाटक ‘ययाति’ लिखा. इस नाटक की कहानी एक पौराणिक राजा की इर्द-गिर्द घूमती है. पौराणिक और ऐतिहासिक विषय-वस्तु के जरिए कही गई इसी कहनी के लिए कर्नाड को आलोचकों की खूब सराहना मिली.
कर्नाड के अगले नाटक का नाम ‘तुगलक’ था. 14वीं शताब्दी के सुलतान मोहम्मद बिन तुगलक की जिंदगी पर लिखा गया नाटक उनके द्वारा लिखे गए बेहतरीन नाटकों की सूची में आता है. साल 1970 में ‘संस्कार’ के जरिए कर्नाड ने फिल्म जगत में प्रवेश किया. इस फिल्म की पटकथा कर्नाड ने लिखी थी और साथ ही उन्होंने फिल्म में मुख्य भूमिका भी निभाई थी. यह फिल्म यूआर अनंतमूर्ति के जातिविरोधी उपन्यास संस्कार पर आधरित थी.
इसके बाद साल 1971 में उन्होंने सह निर्देशक बीवी कारंत के साथ मिलकर फिल्म ‘वंशवृक्ष’ बनाई. इस दौरान कर्नाड ने लगातर नाटककार के रूप में काम करना जारी रखा. ‘हयवदन’ (1971) स्वतंत्रता के बाद बनाए गए सबसे महत्तवपूर्ण नाटकों की श्रेणी में आता है. नाट्य जगत में उनके योगदान के लिए उन्हें साल 1974 में पद्म श्री से सम्मानित किया गया था.
‘तब्बालियू नीनादे मगाने’ (1977) और ‘ओंडानोडू कालाडाल्ली’उनकी बेहतरी कन्नड़ फिल्मों में शामिल हैं. ‘नागमंडल’ (1988) नाटक में कर्नाड ने कन्नड़ लोक-कथाओं से प्रेरणा लेते हुए शादी के बंधन में नाखुश दंपत्ति की कहानी कही. कर्नाड का कला जगत से रिश्ता जारी रहा और उन्होंने ‘कोनूरू हेग्गादिथी’ (1999) फिल्म का निर्देशन किया. वहीं साल 2005 में ‘इकबाल’ और साल 2009 में उन्होंने ‘लाइफ गोज ऑन’ में काम किया.
उनके पूरे करियर के दौरान उन्हें अनेक सम्मानों से नवाजा गया. सबसे पहले 1974 में उन्हें पद्मश्री से नवाजा गया, इसके बाद 1992 में भारत सरकार ने उन्हें पद्म भूषण प्रदान किया. 1998 में उन्हें साहित्य का प्रतिष्ठित ज्ञानपीठ अवॉर्ड भी मिला.