झारखंड में मोदी मैजिक पर भारी हैं स्थानीय मुद्दे


local issues are gaining ground over modi magic in jharkhand

 

झारखंड का चुनावी परिदृश्य अब साफ होने लगा है. गैर आदिवासियों के बीच नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री के लिए पहली पसंद बने हुए हैं. मगर उनकी लोकप्रियता वोट में तब्दील होगी या नहीं, इसको लेकर कई सवाल हैं. अनुमान है कि यदि विपक्षी गठबंधन ने ठीक से काम किया तो बीजेपी को कम से कम सात सीटों का नुकसान हो सकता है. यानी इन सीटों पर राज्य का विकास, निवर्तमान सांसदों के कामकाज, जातीय समीकरण और जल जंगल व जमीन के मुद्दे मोदी फैक्टर पर भारी पड़ सकते हैं.

पिछले लोकसभा चुनाव में राज्य की कुल चौदह संसदीय सीटों में से बारह सीटों पर बीजेपी का कब्जा हो गया था. तब मोदी का जादू चल रहा था. विकास के गुजरात मॉडल की बात लोगों के सिर चढ़कर बोल रही थी. बावजूद संथालपरगना की दो सीटें क्षेत्रीय दल झारखंड मुक्ति मोर्चा (जेएमएम) के खाते में गई थीं. लेकिन 2014 और 2019 में एक बड़ा फर्क आया है. ऐसे लोगों की संख्या कम नहीं है जो मोदी को प्रधानमंत्री के तौर पर तो देखना चाहते हैं लेकिन राज्य के विकास और सांसदों के कामकाज की अनदेखी करने के मूड में नहीं हैं.

वैसे बीजेपी के अनेक नेताओं और सामान्य कार्यकर्त्ताओं से बात करें तो उनकी नजर में राज्य में बीजेपी की आंधी है. ऐसी आंधी कि संथालपरगना की दो सीटें भी बीजेपी के खाते में ही जानी हैं. कहा जा सकता है कि वे “फील गुड” वाली मन:स्थिति में हैं. लेकिन बीजेपी के रणनीतिकार स्थिति की गंभीरता समझ रहे हैं. तभी संघ परिवार से जुड़े गैर राजनीतिक संगठनों को भी सक्रिय किया गया है. तेरह सीटों के लिए प्रत्याशी काफी पहले घोषित किए जा चुके हैं. गिरिडीह सीट आजसू पार्टी के लिए छोड़ दी गई थी. वहां रामगढ़ के विधायक और रघुवर सरकार के मंत्री चंद्रप्रकाश चौधरी प्रत्याशी हैं. राजग के प्रत्याशी बिना समय गंवाए चुनाव अभियान में जुटे हुए हैं.

देश के चौथे चरण का चुनाव झारखंड का पहला चरण होगा. राज्य में चार चरणों में चुनाव होने हैं. प्रचार के मामले में बीजेपी लीड ले चुकी है. सोशल मीडिया के जरिए प्रचार किसी पेशेवर कंपनियों जैसा है. पहले पाकिस्तान के विरूद्ध सर्जिकल स्ट्राइक और बीते सत्तर सालों में कांग्रेस की कथित नाकामियों पर फोकस था. अब जो स्टीकर जारी किए जा रहे हैं, उनमें बीजेपी के संकल्प पत्र की बाते हैं. बीजेपी की पूरी कोशिश है कि राज्य का विकास और जल जंगल जमीन मुद्दा न बनने पाएं. मतदाता उम्मीदवार को भी न देखें, मोदी को देखें. इसलिए मोदी को केंद्र में रखकर ही चुनाव प्रचार किया जा रहा है. केंद्र सरकार की उपलब्धियों का ही बखान किया जा रहा है.

टिकटों के बंटवारे में जातीय समीकरणों का भी ख्याल रखा गया है. एनडीए के चौदह उम्मीदवारों में पांच आदिवासी, दो राजपूत और दो कुरमी के अलावा ब्राह्मण, यादव, दलित, वैश्य और कायस्थ जाति के एक-एक प्रत्याशी मैदान में हैं. हालांकि भूमिहार जाति उपेक्षित रह गई है. इस जाति का एक भी प्रत्याशी मैदान में नहीं है. कोडरमा के निवर्तमान सांसद रवींद्र कुमार राय का टिकट कट जाने से ऐसी स्थिति बनी है. उनकी जगह हाल ही में आरजेडी से बीजेपी में शामिल हुईं यादव जाति की अन्नपूर्णा देवी को प्रत्याशी बनाया गया है. 2014 के चुनाव में ब्राह्मण जाति के दो प्रत्याशी मैदान में उतारे गए थे. गिरिडीह से रवींद्र कुमार पांडेय और गोड्ड़ा से निशिकांत दूबे. दोनों ही जीत गए थे. लेकिन इस बार रवींद्र कुमार पांडेय का टिकट कट चुका है. यह सीट गठबंधन के दल आजसू के खाते में है.

घात-प्रतिघात एनडीए में है तो विपक्षी गठबंधन के दलों में भी है. सच तो यह है कि विपक्षी गठबंधन में ज्यादा तकरार है. मोदी फैक्टर के बावजूद विस्थापन, जल जंगल जमीन, सीएनटी-एसपीटी एक्ट में संशोधन की कोशिश, बेरोजगारी, किसानों की समस्याओं, सार्वजनिक क्षेत्र के प्रतिष्ठानों में बढ़ती निजी भागीदारी आदि वजहों से आदिवासियों और झारखंड के मूलवासियों के साथ ही बीजेपी के वोटरों में नाराजगी है. इसलिए एनडीए के विपरीत विपक्षी गठबंधन के दल मोदी सरकार की कथित विफलताओं के साथ ही राज्य के ज्वलंत मुद्दों को आधार बनाकर चुनाव मैदान में हैं.

पूर्व केंद्रीय मंत्री और रांची से कांग्रेस प्रत्याशी सुबोधकांत सहाय कहते हैं,“राज्य में बेरोजगारी है, गरीबी है. जाहिर है कि कुपोषण जानलेवा साबित हो रहा है. ऐसे में मोदी जी के नारों से किसका पेट भरना है? पांच सालों में सार्वजनिक क्षेत्र के प्रतिष्ठानों को बेमौत मारने का इंतजाम किया जा चुका है. कारपोरेट घरानों को गरीबों की जमीन लूटने की छूट दे दी गई है. केंद्र या राज्य सरकार को आदिवासियों और मूलवासियों की चिंता नहीं है.”

कांग्रेस के अलावा पूर्व मुख्यमंत्री शिबू सोरेन की अगुआई वाली पार्टी जेएमएम और पूर्व मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी की अगुआई वाली पार्टी जेवीएम(पी) भी इन मुद्दों को उछाल रही है. इन पार्टियों के नेता आदिवासियों-मूलवासियों को यह समझाने में कामयाब दिख रहे हैं कि सरकार की नीयत में खोट है. सुप्रीम कोर्ट में जब वन अधिकार कानून 2006 के संदर्भ में सुनवाई की जा रही थी, तब केंद्र सरकार चुप बैठी रही. उसके दिल में आदिवासियों के लिए जगह होती तो एकतरफा सुनवाई नहीं हुई होती और आदिवासियों-मूलवासियों के विरूद्ध फैसला नहीं आया होता. हालांकि आदिवासियों के आक्रोश के बाद सरकार हरकत में आई और सुप्रीम कोर्ट से बेदखली के खिलाफ स्टे मिल गया है. लेकिन यह मामला उन्हें अंदर तक छू गया है.

संविधान की पांचवीं अनुसूची को पूरी तरह लागू नहीं किए जाने और सीएनटी-एसपीटी एक्ट में संशोधन के प्रयासों से आदिवासी-मूलवासी पहले से ही नाराज हैं. वे मानकर चल रहे हैं कि सरकार हर हाल में स्थानीय लोगों को जमीन से बेदखल करके अदानी जैसे कारपोरेट घरानों को उपकृत करने पर आमादा है. हालांकि विरोध के बाद राज्य सरकार को जमीन अधिग्रहण संबंधी कानूनों में संशोधन के मामले में भी कदम पीछे करना पड़ा था. लेकिन आदिवासियों और मूलवासियों को भरोसा नहीं है कि सरकार भविष्य में इस दिशा में आगे नहीं बढ़ेगी. सरकार का तर्क है कि झारखंडियों की जमीनों का अधिग्रहण करके जितने उद्योगों की स्थापना की जानी हैं, उनमें पांच लाख युवाओं को रोजगार मिल जाएगा. इस बाबत राज्य सरकार औद्योगिक विकास के लिए चार बार मोमेंटम झारखंड का आयोजन करके 88 परियोजनाओं को मंजूरी दे चुकी है. झारखंड में जल जंगल जमीन को लेकर चलाए जा रहे जनांदोलनों के संयुक्त मोर्चा का कहना है कि पांच लाख लोगों को रोजगार मिलेगा या नहीं, यह तो समय बताएगा. लेकिन इन परियोजनाओं के लिए स्थानीय लोगों की जमीनें ली गईं तो कुछ वर्षों के भीतर पचास लाख लोग सड़क पर आ जाएंगे.

स्थानीयता का मुद्दा भी बरकरार है. आदिवासी मूलवासी जनाधिकार मंच चाहता है कि स्थानीय उन्हें माना जाए, जिनके पास अपने या पूर्वजों के नाम खतियानी ज़मीन है. ऐसे लोगों के परिवार वालों को ही सरकारी नौकरियां दी जाएं. झारखंड राज्य बनने के बाद से लेकर अब तक अठारह वर्षों में स्थानीयता की व्याख्या अलग-अलग तरीके से की जाती रही है. मामला आज भी अनसुलझा है.

राज्य के मनरेगा श्रमिक अपनी मजदूरी में मात्र तीन रूपए का इजाफा किए जाने से बेहद नाराज हैं. वित्तीय वर्ष 2019-2020 के लिए अधिसूचित मजदूरी के हिसाब से मनरेगा श्रमिकों को 171 रुपए मिलेंगे, जबकि न्यूनतम खेती मजदूरी 239 रुपए पहले से ही तय है. इससे पहले राज्य में यह वृद्धि एक रुपया की गई थी, जबकि अन्य राज्यों में अधिकतम 17 रूपए तक का इजाफा हो चुका है. मनरेगा श्रमिकों की मजदूरी में विषमता दूर करके सम्मानजनक मजदूरी दिलाने की गरज से भारत सरकार ने चार साल पहले अर्थशास्त्री एस महेंद्र देव की अध्यक्षता में एक कमेटी बनाई थी. उस कमेटी ने सिफारिश की थी कि मनरेगा श्रमिकों को मजदूरी राज्य के लिए निर्धारित न्यूनतम मजदूरी से कम किसी हालत में नहीं मिलनी चाहिए. मगर यह सिफारिश ठंडे बस्ते में रह गई. ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि सरकार के खजाने पर ज्यादा बोझ पड़ना था. अब स्थिति यह है कि मनरेगा के तहत वे श्रमिक ही काम करते हैं, जिन्हें अन्यत्र काम नहीं मिल पाता है.

राज्य के ज्यादातर बीजेपी सांसदों को पहले से यह डर सताता रहा है कि आदिवासियों के मुद्दे और राज्य सरकार के काम करने तौर-तरीकों से चुनाव के वक्त संकट खड़ा हो सकता है. इसलिए वे प्रकारांतर से राज्य सरकार की अनेक नीतियों की मुखालफत करते रहे हैं. राज्य सरकार के मंत्री सरयू राय तो इस्तीफे तक की धमकी दे चुके हैं. उनके मुताबिक, राज्य सरकार के कई ऐसे फैसले हैं, जो मोदी सरकार की उपलब्धियों के प्रभाव को कम कर देती है. उधर, अनेक सांसद मुख्यमंत्री को पत्र लिखकर अपनी चिंता से अवगत कराते रहे हैं.

इनमें एक मामला स्कूलों के विलय से संबंधित है. बीते साल अगस्त में झारखंड से जीते केंद्र सरकार के दो मंत्रियों सहित बीजेपी के सभी बारह सांसदों ने मुख्यमंत्री रघुवर दास को पत्र लिखकर चेतावनी दी थी कि स्कूलों का विलय न रोका गया तो बीजेपी को इसका खमियाजा भुगतने को तैयार रहना होगा. जनता में आक्रोश है. वे नहीं समझ पा रहे हैं कि स्कूल खोलने के बदले सरकार स्कूल बंद क्यों किए जा रही है. क्या निजी स्कूलों को बढावा देने के लिए? उपलब्ध जानकारी के मुताबिक अब तक लगभग सात हजार स्कूलों को बंद करके उनके छात्रों और शिक्षकों को दूसरे स्कूलों में समायोजित किया जा चुका है. झारखंड विधानसभा में विपक्ष ने भी यह मसला उठाया था.

मुख्यमंत्री रघुवर दास को इस बात का अहसास है कि यदि राज्य का विकास और जल जंगल और जमीन का मुद्दा चुनाव में प्रमुखता से स्थान पा गया तो बीजेपी की मुश्किलें बढ़ जाएंगी. उन्होंने खुद 25 अगस्त 2017 को गोड्डा में एक कार्यक्रम में घोषणा की थी कि वर्ष 2018 तक सूबे के सभी घरों में बिजली नहीं पहुंचा पाया तो वर्ष 2019 में वोट नहीं मागूंगा. और यह वायदा पूरा न हो सका. अब मुख्यमंत्री अपने ही बुने जाल में फंस चुके हैं. इसलिए वे चाहते हैं कि नरेंद्र मोदी के करिश्मे और केंद्र प्रायोजित कुछ योजनाएं जैसे प्रधानमंत्री आवास योजना, उज्जवला योजना आदि चुनावी मुद्दे बनें.

मुख्यमंत्री ने हाल ही में एक सभा में कहा कि झारखंड के लोग लोकसभा चुनाव में केंद्र में एक बार फिर से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार बनाने के लिए मतदान करें. इसलिए कि मोदी जी ने पिछले पांच वर्षों के दौरान पूरी दुनिया में देश का मान सम्मान बढ़ाया है. देश में हर संप्रदाय तथा हर समुदाय के लोगों को सरकारी योजनाओं का लाभ मिला है. आजादी के बाद 70 वर्षों में जितना विकास नहीं हुआ, उससे ज्यादा विकास पांच वर्षों के दौरान हुआ. तथ्यों से साफ है कि झारखंड में लोकसभा का चुनाव केवल राष्ट्रीय मुद्दों पर नहीं होना है. जनता के अनेक मुद्दों के साथ ही जातीय समीकरणों की भी बड़ी भूमिका होगी. ऐसे में प्राय: सभी संसदीय क्षेत्रों में रोचक मुकाबला होने के आसार हैं.

जेएमएम के कार्यकारी अध्यक्ष और पूर्व मुख्यमंत्री हेमंत सोरन कहते हैं – “जनता समझ रही है कि राज्य सरकार अपनी नाकामियों पर पर्दा डालने के लिए किस तरह भटकाने की कोशिश में है. पर ऐसा होगा नहीं. वैसे भी मोदी जी ने ही कौन-सा तीर मार लिया है कि उनकी बात पर लोग आंख मूंदकर वोट दे देंगे? वे सवाल करते हैं – मोदी जी का वायदा था कि विदेशों से कालाधन वापस लाया जाएगा. क्या आया? मोदी जी ने वायदा किया था कि किसानों की आय दोगुनी हो जाएगी. क्या हुआ? मोदी जी ने वायदा किया था कि एक करोड़ युवाओं को नौकरी दी जाएगी. कितनी दी गई? हां, नोटबंदी और जीएसटी की वजह से उद्योग-व्यापार चौपट हुआ और विशेष रूप से असंगठित क्षेत्र में रोजगार का टोटा हो गया. जिस सरकार को झारखंड लोकसेवा आयोग के जरिए नौकरियों के लिए चयन करने में चार साल लगा देती हो, उससे क्या उम्मीद की जा सकती है”?

इस चुनाव में बीजेपी के भीतर एक बड़ा फर्क देखने को मिल रहा है. नरेंद्र मोदी के सत्ता में आने के बाद किसी में शीर्ष नेतृत्व के किसी भी फैसले के खिलाफ चूं तक करने की हिम्मत नहीं थी. बीते चुनाव में टिकटों के बंटवारे से अनेक नेता असहज हुए थे. पर कुछ बोल नहीं पाए थे. इस बार सब कुछ बदला-बदला है. बीजेपी के अनेक नेता नेतृत्व के फैसले को खुलेआम चुनौती दे रहे हैं. खूंटी के निवर्तमान सांसद कड़िया मुंडा, रांची के निवर्मान सांसद रामटहल चौधरी, गिरिडीह के निवर्तमान सांसद रवींद्र कुमार पांडेय और कोडरमा के निवर्तमान सांसद रवींद्र कुमार राय के टिकट काट दिए गए हैं.

रामटहल चौधरी और रवींद्र कुमार पांडेय पार्टी नेतृत्व के फैसले के विरोध में खुलकर सामने हैं. चौधरी ने बीजेपी से नाता तोड़कर रांची संसदीय क्षेत्र से निर्दलीय चुनाव लड़ने का फैसला कर लिया है. उन्होंने प्रेस कांफ्रेंस करके इस बात की घोषणा कर दी है. यह स्थिति कांग्रेस के प्रत्याशी और पूर्व केंद्रीय मंत्री सुबोधकांत सहाय के लिए सुविधाजनक हो गई है. रवींद्र कुमार पांडेय भी अखबारों में बयान दे चुके हैं कि वे गिरिडीह से हर हाल में चुनाव लड़ेंगे. कड़िया मुंडा ने खुद तो अपनी नाराजगी जाहिर नहीं होने दी. पर उनके समर्थक बगावत का झंडा उठाए हुए हैं. रवींद्र कुमार राय भी अपनी नाराजगी नहीं छिपा पा रहे हैं. कोडरमा में आम धारणा है कि उनके समर्थकों के वोट बीजेपी के खाते नहीं जाने हैं.

बीजेपी को थोड़ी राहत इस बात से है कि विपक्षी गठबंधन अनेक इलाकों में मजबूत नहीं बन पाया, जैसा कि शुरू में उम्मीद की जा रही थी. मसलन, कांग्रेस, जेएमएम और जेवीएम के बीच तो तालमेल ठीक-ठीक हो गया. पर लालू यादव की आरजेडी के साथ पंगा हो चुका है. एक तो गठबंधन ही देर से हुआ. गठबंधन के बाद प्रत्याशियों की सूची जारी करने में काफी देरी की गई. जब सूची जारी हुई तो चतरा संसदीय क्षेत्र में पेंच फंस गया. यह सीट कांग्रेस के खाते में थी. पर वहां आरजेडी ने भी अपना प्रत्याशी खड़ा कर दिया. जेएमएम के कार्यकारी अध्यक्ष और पूर्व मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन गठबंधन में वामपंथी दलों को भी शामिल करना चाहते थे. पर कांग्रेस ज्यादा सीटों पर चुनाव लड़ने को अड़ी रह गई. इसलिए वामपंथी दलों को गठबंधन से बाहर रहना पड़ा है. हालांकि धनबाद में पूर्व सांसद एके राय की अगुआई वाली एमसीसी ने अपना प्रत्याशी न उतार कर विपक्षी गठबंधन से कांग्रेस के प्रत्याशी कीर्ति आजाद को समर्थन देने का फैसला कर रखा है.

कुल मिलाकर बात इतनी कि विपक्षी गठबंधन के दलों के वोट स्थानांतरित हो पाए तो बीजेपी मुश्किल में पड़ जा सकती है.


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