मध्य प्रदेश: कांग्रेस के रणनीतिकारों के आगे बीजेपी पस्त
मध्य प्रदेश की 15 वीं विधानसभा के पहले ही सत्र में नाटकीय घटनाक्रम में कांग्रेस विधायक नर्मदा प्रसाद प्रजापति बीते मंगलवार को अध्यक्ष चुन लिए गए. कमलनाथ सरकार को अल्पमत की सरकार बता रही बीजेपी नियमों में ऐसी उलझी कि उसे अपने प्रत्याशी का प्रस्ताव रखने का मौका तक न मिला. खीझकर बीजेपी विधायक दल सड़क पर उतर आया और उसने राजभवन तक पैदल मार्च किया.
सवाल उठ रहे हैं कि क्या यह बीजेपी की रणनीतिक विफलता है या यह कांग्रेस के रणनीतिकारों की चतुराई का कमाल है कि विधान सभा की प्रक्रियाओं के जानकार पूर्व मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान, पूर्व विधानसभा अध्यक्ष डॉ.सीतासरन शर्मा, पूर्व संसदीय कार्यमंत्री डॉ. नरोत्तम मिश्र और नेता प्रतिपक्ष गोपाल भार्गव नियमों के दांव में चित हो गए.
बीते दिनों विधानसभा का दृश्य ऐतिहासिक था. बीजेपी द्वारा अध्यक्ष पद के लिए प्रत्याशी उतारने के फैसले के बाद अध्यक्षीय दीर्घा में पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह, पूर्व केन्द्रीय मंत्री सुरेश पचौरी और विधानसभा के पूर्व उपाध्यक्ष राजेन्द्र सिंह की मौजदूगी इस दिन के महत्व को साफ-साफ बता रही थी. 230 सदस्यों वाली विधानसभा में कांग्रेस के साथ 121 विधायक हैं और बीजेपी के साथ 109.
फिर भी बीजेपी के कई नेता कमलनाथ सरकार को अल्पमत वाली सरकार बताते रहे और विधायकों की नाराजगी को भुनाने के लिए ही भाजपा ने परंपरा तोड़ते हुए अध्यक्ष पद पर प्रत्याशी उतारने का फैसला किया. जबकि 1972 के बाद से आपसी सहमति से सत्ता पक्ष का विधायक अध्यक्ष तथा विपक्ष का विधायक उपाध्यक्ष बनाया जाता रहा है. बीजेपी ने यह जानते हुए भी अध्यक्ष पद का दांव खेला कि कांग्रेस के साथ 120 विधायक रहे तो उपाध्यक्ष पद भी उसकी झोली से चला जाएगा. संघर्ष को कांटेदार बनाने के लिए ही बीजेपी ने अपना उम्मीदवार उतारने का निर्णय लिया.
मगर, माना जा रहा है कि बीजेपी के कुछ नेता इतनी आक्रामक राजनीति के पक्षधर नहीं हैं. कहा तो जा रहा है कि स्वयं शिवराज इस पक्ष में नहीं थे कि तोड़फोड़ कर अध्यक्ष पद का चुनाव जीतने की कोशिश की जाए. पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह तो विधायकों को 100 करोड़ का लालच देने का आरोप लगा ही चुके हैं. इस तरह, बीजेपी ने अधूरे मन से यह चुनाव लड़ने की तैयारी की.
फिर, यह विश्वास भी नहीं होता कि 15 सालों से सत्ता में काबिज रहे बीजेपी के वरिष्ठ नेताओं से नियमों को न जानने की चूक कैसे हो गई? जिस पुस्तक से विधानसभा के पूर्व अध्यक्ष डॉ. शर्मा नियम पढ़ रहे थे, उसी के नियम 7(4) का हवाला लेकर संसदीय कार्यमंत्री डॉ. गोविंद सिंह ने बीजेपी को मैदान से बाहर कर दिया. क्या बीजेपी नेताओं ने इस नियम की अनदेखी की या वे नियमों की बाजीगरी में कांग्रेस के रणनीतिकारों के आगे कमतर साबित हो गए?
बीजेपी ने केवल नियमों को समझने में ही चूक नहीं की, बल्कि वह नियमों के पालन में भी चूक गई. विधानसभा के पूर्व प्रमुख सचिव बीडी इसरानी के अनुसार, नियम 7(4) में स्पष्ट उल्लेख है कि जो पहले प्रस्ताव देगा उसका नाम प्रस्ताव के क्रम में पहले आएगा. अध्यक्ष का नामांकन भरते हुए कांग्रेस ने पहले चार प्रस्ताव दे दिए थे, जबकि बीजेपी अध्यक्ष का नाम तय करने में पिछड़ गई. वह चाहती तो सबसे पहले नामांकन दाखिल कर पहले नंबर पर अपने प्रत्याशी का प्रस्ताव रखवा सकती थी. ऐसा होता तो बीजेपी के प्रस्तावकों को कांग्रेस के एनपी प्रजापति के पहले प्रस्ताव रखने का मौका मिलता.
नियमों में उलझी बीजेपी ने न केवल सदन में हंगामा किया, वॉकआउट किया, बल्कि राजभवन तक पैदल मार्च भी किया. यह उसकी उतावलेपन और अगंभीरता को दर्शाता है. दबाव की राजनीति करते हुए बीजेपी नेता यह भूल गए कि मप्र विधानसभा प्रक्रिया और कार्य संचालन नियमों के अनुसार मत विभाजन के बाद प्रोटेम स्पीकर के निर्णय को चुनौती नहीं दी जा सकती है. इस तरह, उनका राजभवन तक जाना व्यर्थ ही साबित हुआ.
बीजेपी की अनुपस्थिति में बसपा विधायक संजीव सिंह ने मत विभाजन की मांग की और इस तरह कांग्रेस प्रत्याशी ने 120 मत पाकर बहुमत को साबित किया. इसके पूर्व भी राज्यसभा चुनाव में तीसरी सीट पर अपना प्रत्याशी उतार दिया था जबकि परंपरानुसार वह सीट कांग्रेस के प्रत्याशी को मिलनी थी. इस तरह बीजेपी को राज्यसभा चुनाव में भी हार मिली थी और विधानसभा अध्यक्ष की रेस में भी वह हार गई.