महाभारत और संस्कृत को लेकर नेहरू की क्या थी राय?


opinion of nehru on mahabharat and sanskrit

 

वर्ष 1956 में जब भंडारकर ओरियंटल रिसर्च इंस्टीट्यूट द्वारा महाभारत के तीन खंडों का प्रकाशन किया गया, तब भारत के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू पुणे के इस प्रतिष्ठित संस्थान में मौजूद थे. अगस्त 1956 में संस्थान में हुए इस आयोजन की इस तस्वीर में जवाहरलाल नेहरू के साथ इस परियोजना के संपादक डॉक्टर एसके बेलवलकर भी मौजूद हैं.

इस मौके पर पंडित नेहरू ने एक संक्षिप्त भाषण दिया था, महाभारत और संस्कृत भाषा की महत्ता पर बोलते हुए. पर जवाहरलाल नेहरू का यह भाषण शुरू हुआ लोकमान्य तिलक को याद करते हुए. कारण कि उस दिन तारीख थी 1 अगस्त यानी बालगंगाधर तिलक की पुण्यतिथि. 1920 में इसी दिन असहयोग आंदोलन औपचारिक तौर पर शुरू होना था और उसी दिन तड़के तिलक का निधन हुआ था. अकारण नहीं कि नेहरू के जेहन में उस महान राष्ट्रवादी नेता की यादें अब भी ताजा थीं.

महाभारत के बारे में नेहरू ने कहा कि महाभारत ने समय के साथ हिंदुस्तान में लाखों लोगों को प्रभावित किया है, वह उनके जीवन और संस्कृति का अनन्य हिस्सा बन चुका है. उन्होंने कहा कि वे संस्थान की इस परियोजना के लिए और भंडारकर इंस्टीट्यूट के लिए कभी भी आर्थिक संसाधनों की कमी नहीं होने देंगे. संस्कृत भाषा पर बोलते हुए नेहरू ने कहा कि यद्यपि हजार से भी ज्यादा वर्षों से संस्कृत हिंदुस्तान में लोगों की बोलचाल की भाषा नहीं रह गई है, पर फिर भी संस्कृत की जीवनशक्ति और भारतीय संस्कृति से इसका जुड़ाव अद्भुत है.

संस्कृत की इसी जीवनशक्ति और इसकी दृढ़ता की चर्चा करते हुए अपनी प्रसिद्ध किताब ‘डिस्कवरी ऑफ इंडिया’ में एक पूरा अध्याय ही लिखा था नेहरू ने. जिसका शीर्षक था: ‘वाइटलिटी एंड परसिसटेन्स ऑफ संस्कृत’. 1946 में छपी यह किताब नेहरू ने अहमदनगर जेल में रहते हुए 1944 में लिखी थी.

संस्कृत भाषा पर केन्द्रित इस अध्याय में नेहरू ने लिखा है कि भाषा महज व्याकरण या भाषाशास्त्र नहीं होती, वह इन सबसे कहीं व्यापक है. उनके अनुसार, ‘भाषा एक समूची संस्कृति की प्रतिभा, उसकी मेधा और विद्वत्ता की काव्यात्मक अभिव्यक्ति है. वह उस संस्कृति के विचारों का मूर्त और जीवंत रूप है.’ हिंदुस्तान के संदर्भ में, नेहरू ने संस्कृत को एक ऐसी ही भाषा के रूप में देखा. आधुनिक भारतीय भाषाओं को संस्कृत की देन की भी चर्चा अपनी किताब में नेहरू ने की है.

नेहरू की रुचि को देखते हुए यह संयोग नहीं कि ‘डिस्कवरी ऑफ इंडिया’ में महाभारत और गीता पर भी अध्याय हैं. नेहरू ने लिखा है कि महाभारत प्राचीन भारत की राजनीतिक और सामाजिक संस्थाओं तथा हिंदुस्तान की परंपरा और पुराकथाओं का विश्वकोश है.

भगिनी निवेदिता को उद्धृत करते हुए नेहरू ने लिखा कि महाभारत विविधता और जटिलता में एकता का परिचायक है. 1944 में ‘डिस्कवरी ऑफ इंडिया’ लिखते हुए नेहरू इस बात से अवगत थे कि भंडारकर इंस्टीट्यूट में कुछ भारतीय विद्वान महाभारत का एक समालोचनात्मक संस्करण तैयार कर रहे हैं. इसका ज़िक्र नेहरू ने महाभारत वाले अध्याय में किया है.

इसी क्रम में कुछ बातें भंडारकर ओरियंटल रिसर्च इंस्टीट्यूट के बारे में भी. इस संस्थान की स्थापना 1917 में पूना (पुणे) में हुई थी, रामकृष्ण गोपाल भंडारकर (1837-1925) के 81वें जन्मदिन के अवसर पर. रामकृष्ण गोपाल भंडारकर समाज-सुधारक होने के साथ-साथ दक्कन के आरंभिक इतिहास के अधिकारी विद्वान थे. 1918 में बंबई सरकार ने पांडुलिपियों के अपने संकलन को भंडारकर इंस्टीट्यूट को दे दिया. और अगले ही वर्ष 1919 में संस्थान ने महाभारत के समालोचनात्मक संस्करण प्रकाशित करने की परियोजना पर काम शुरू किया. वीएस सुकथनकर 1925 में इस बृहद परियोजना के मुख्य संपादक नियुक्त हुए. विष्णु सीताराम सुकथनकर (1887-1943) संस्कृत के प्रकांड विद्वान और प्रसिद्ध भारतविद् थे. 1943 में उनके निधन के बाद श्रीपाद कृष्ण बेलवलकर इस परियोजना के मुख्य संपादक बने.

अंततः 1966 में महाभारत के इन संस्करणों का कुल 19 खंडों में प्रकाशन का काम पूरा हुआ. सितंबर 1966 में भारत के राष्ट्रपति और भारतीय दर्शन के विद्वान सर्वपल्ली राधाकृष्णन द्वारा इन सभी खंडों का विमोचन किया गया. सुकथनकर और बेलवलकर के अलावा एसके डे और आरएन दांडेकर सरीखे विद्वान भी संपादक की हैसियत से इस परियोजना से जुड़े रहे.

1919-1966 तक विद्वानों ने बारह सौ से अधिक पांडुलिपियों के गहन अध्ययन और विश्लेषण के बाद महाभारत के इन संस्करणों को तैयार किया. महाभारत की इस परियोजना के अलावा संस्थान ने 1939 से ‘भंडारकर ओरियंटल सीरीज’ का प्रकाशन भी शुरू किया था.


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