मौलाना अंतिम सांस तक नहीं स्वीकार पाए बंटवारे को


 

‘यदि आज एक फरिश्ता स्वर्ग से उतरकर आता है और कुतुब मीनार की बुलंदियों से यह घोषणा करता है कि देश को चौबीस घंटों के भीतर स्वराज तो मिल जाएगा लेकिन इसके लिए देश में रहने वाले हिंदुओं और मुसलमानों को अलग होना पड़ेगा, तो मैं ऐसा स्वराज नहीं चाहूंगा. स्वराज मिलने में देरी से देश को नुकसान तो होगा, लेकिन अगर हिन्दू-मुस्लिम एकता टूटती है तो यह सम्पूर्ण मानवता के लिए अपूरणीय क्षति होगी.’

यह बात 1923 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के सबसे युवा अध्यक्ष ने पार्टी के एक विशेष अधिवेशन में कही थी और इसके बहुत गहरे मायने थे. गहरे इसलिए क्योंकि तब अंग्रेजों की शह पर तरह-तरह की साम्प्रदायिक ताकतें देश को आधुनिकता की ओर जाने से रोकने का भरकस प्रयास कर रही थीं. यह बात कहने वाले कोई और नहीं बल्कि आधुनिक भारत के स्वप्नद्रष्टा नेताओं में से एक मौलाना अबुल कलाम आज़ाद थे. उन्होंने न केवल हिन्दू-मुस्लिम एकता का योद्धा बनकर साम्प्रदायिक ताकतों के खिलाफ युद्ध छेड़ा बल्कि आज़ादी के बाद भारत के पहले शिक्षा मंत्री बनकर आधुनिक शिक्षा भवनों की नींव भी डाली थी.

मौलाना अबुल कलाम आज़ाद का जन्म 1888 में हुआ था. शुरुआत से ही वे एक जहीन विद्यार्थी रहे. यही कारण था कि मात्र 16 वर्ष की उम्र में उन्होंने धार्मिक शिक्षा पूरी कर ली थी. लेकिन धार्मिक शिक्षा उनके लिए मात्र रूढ़िवादी बनकर सिमट जाने तक नहीं थी. उन्होंने उसे तर्क की कसौटी पर कसा था और हर प्रकार की रूढ़ि से खुद को आज़ाद कर लिया था.

बहुत ही कम उम्र में उन्होंने पत्रकारिता करनी शुरू की और अपने साप्ताहिक पत्र अल-हिलाल के साथ खुद को आजादी के आंदोलन के प्रति समर्पित कर दिया. वे एक मुसलमान होने और एक भारतीय होने को समानार्थी मानते थे. उन्होंने घोषणा की थी कि एक मुसलमान के तौर पर मैं भारतीय राष्ट्रवाद का अटूट हिस्सा हूं, मैं इसके बिना अधूरा हूं और ये मेरे बिना.

गांधी से प्रभावित होकर वे 1920 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में शामिल हो गए. शामिल होते ही उन्होंने हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच खोदी गई खाई को पाटना शुरू किया. इसकी वजह से उन्हें दोनों तरफ की साम्प्रदायिक शक्तियों का निशाना बनना पड़ा. जिन्ना ने तो उन्हें कांग्रेस का पोस्टर ब्वाय तक घोषित कर दिया. लेकिन इसके बाद भी वे अपने रास्ते से डिगे नहीं.

1942 में जब भारत छोड़ो आंदोलन शुरू हुआ तो मौलाना अबुल कलाम आजाद जेल जाने वाले कांग्रेस के प्रथम पंक्ति के नेताओं में शामिल थे. वे तीन साल जेल में बंद रहे. जेल से आने के बाद उन्होंने कांग्रेस और मुस्लिम लीग के बीच सुलह कराने का भरकस प्रयास किया, लेकिन उन्हें सफलता हासिल नहीं हुई.

1947 में आजादी के साथ विभाजन की त्रासदी भी आई और इसने उनके दिल को पूरी तरह से तोड़ दिया. कांग्रेस ने भले ही विभाजन को स्वीकार कर लिया था, लेकिन मौलाना इसे अपनी अंतिस सांस तक स्वीकार नहीं कर पाए. दस साल बाद उन्होंने अपनी किताब ‘इंडिया विन्स फ्रीडम’ में लिखा कि एक मुसलमान के तौर पर यह मेरे लिए कायरता की बात है कि कोई मेरी मातृभूमि का एक हिस्सा मुझसे छीन ले गया. अखण्ड भारत माडल का कोई भी पैरोकार आज तक इस बात को उनसे बेहतर तरीके से नहीं कह पाया है.

आजादी के बाद वे देश के पहले शिक्षा मंत्री बनाए गए और एक प्रगतिशील एवं स्वप्नद्रष्टा नेता की तरह उन्होंने अपनी जिम्मेदारी बखूबी निभाई. उन्होंने विश्वविद्यालय अनुदान आयोग से लेकर उच्च शिक्षा के तमाम संस्थानों की स्थापना की.

आज आजादी के इतने वर्षों के बाद जब उच्च शिक्षा पर लगातार नव-उदारवादी हमले हो रहे हैं और साम्प्रदायिक शक्तियों द्वारा देश के धर्मनिरपेक्ष ढांचे को तोड़ने के प्रयास लगातार तेज गति से बढ़ते जा रहे हैं, तब मौलाना अबुल कलाम आजाद की विरासत को सहेजना वक्त की एक आवश्यक जरूरत बन गई है.


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