आज के सन्दर्भ में मई दिवस


May day in Today's context

 

1 मई 1886 के ऐतिहासिक दिन पूंजीपति मालिकों से अपने हक की लड़ाई लड़ने के लिए अमेरिका में मजदूर बड़े पैमाने पर उठ खड़े हुए थे, जब पूरे अमेरिका के लाखों मज़दूरों ने एक साथ हड़ताल शुरू की. इसमें 11,000 फ़ैक्टरियों के कम से कम तीन लाख अस्सी हज़ार मज़दूर शामिल थे. मज़दूरों का यह शानदार संघर्ष आठ घंटे काम के दिन के लिए था. उसके पहले मज़दूर चौदह से लेकर सोलह-अठारह घंटे तक खटते थे. कई देशों में काम के घंटों का कोई नियम ही नहीं था. “सूरज उगने से लेकर रात होने तक” मज़दूर कारख़ानों में काम करते थे. 19वीं सदी के मध्य से ही दुनिया भर में अलग-अलग जगह इस मांग को लेकर आन्दोलन होते रहे थे. भारत में भी 1862 में ही मज़दूरों ने इस मांग को लेकर कामबंदी की थी. 1866 में श्रमिकों के पहले अंतरराष्ट्रीय संगठन ने यूरोप और अमेरिका में 8 घंटे के कार्यदिवस को अपनी मुख्य मांग घोषित किया था. लेकिन पहली बार बड़े पैमाने पर इस संघर्ष की शुरुआत अमेरिका में हुई.

3 मई 1886 को इस आंदोलन के केंद्र शिकागो शहर के हालात बहुत तनावपूर्ण हो गए जब मैकार्मिक हार्वेस्टिंग मशीन कम्पनी के मज़दूरों ने दो महीने से चल रहे लॉक आउट के विरोध में और आठ घंटे काम के दिन के समर्थन में कार्रवाई शुरू कर दी. जब हड़ताली मज़दूरों ने पुलिस पहरे में हड़ताल तोड़ने के लिए लाये गए तीन सौ ग़द्दार मज़दूरों के ख़िलाफ़ मीटिंग शुरू की तो निहत्थे मज़दूरों पर गोलियां चलायी गईं.

चार मज़दूर मारे गए और बहुत से घायल हुए. इस बर्बर पुलिस दमन के ख़िलाफ़ चार मई की शाम को शहर के मुख्य बाज़ार हे मार्केट स्क्वायर में एक जनसभा रखी गई. मीटिंग रात आठ बजे शुरू हुई. क़रीब तीन हज़ार लोगों के बीच पार्सन्स और स्पाइस ने मज़दूरों का आह्वान किया कि वे एकजुट और संगठित रहकर पुलिस दमन का मुक़ाबला करें. तीसरे वक्ता सैमुअल फ़ील्डेन बोलने के लिए जब खड़े हुए तो रात के दस बज रहे थे और ज़ोरों की बारिश शुरू हो गई थी. इस समय तक स्पाइस और पार्सन्स अपनी पत्नी और दो बच्चों के साथ वहां से जा चुके थे.

मीटिंग क़रीब-क़रीब ख़त्म हो चुकी थी कि 180 पुलिसवालों का एक जत्था धड़धड़ाते हुए हे मार्केट चौक में आ पहुंचा. मीटिंग में शामिल लोगों को चले जाने का हुक्म दिया गया. सैमुअल फ़ील्डेन पुलिसवालों को यह बताने की कोशिश ही कर रहे थे कि यह शान्तिपूर्ण सभा है, कि इसी बीच किसी ने मानो इशारा पाकर एक बम फेंक दिया. आज तक बम फेंकने वाले का पता नहीं चल पाया है. यह माना जाता है कि बम फेंकने वाला पुलिस का भाड़े का आदमी था. बम का निशाना मज़दूर थे लेकिन चारों और फैले पुलिसवालों पर भी इसका प्रहार हुआ. एक मारा गया और पाँच घायल हुए. पुलिस ने चौक को चारों ओर से घेरकर भीड़ पर अन्धाधुन्ध गोलियां चलानी शुरू कर दीं.

जिसने भी भागने की कोशिश की उस पर गोलियां और लाठियाँ बरसायी गयीं. छ: मज़दूर मारे गए और 200 से ज्यादा जख्मी हुए. बम फेंकने की इस घटना के लिए पुलिस ने मजदूर नेताओं के खिलाफ फर्जी मामला बनाया और अंत में अन्य सजाओं के अतिरिक्त 11 नवम्बर 1887 के काले शुक्रवार को 4 मजदूर नेताओं पार्सन्स, स्पाइस, एंजेल और फ़िशर को शिकागो की कुक काउण्टी जेल में फांसी दे दी गई.

पर उस दिन हक और इंसाफ की मांग करते इन मजदूरों पर मालिकों की पिठ्ठू पुलिस ने निर्दयतापूर्ण हमला कर जो खून बहाया था उससे ही रंगकर दुनिया के मजदूरों के झंडे का रंग लाल हुआ. दुनिया भर के मजदूरों ने लाल झंडे के साथ मई दिवस को मनाना शुरू किया शिकागों के उन्हीं बलिदानी मजदूरों को श्रद्धांजलि देने और यह शपथ लेने के लिये कि यह लडाई पूंजीवाद को उखाड फेंकने व शोषण मुक्त समाज कायम करने की जिम्मेदारी पूरे होने तक जारी रखी जायेगी. इसे ‘अन्तरराष्ट्रीय मजदूर दिवस’ नाम दिया गया यह बताने के लिये कि दुनिया भर के मजदूर एक दूसरे के बंधु-बांधव हैं और उनका साझा दुश्मन है दुनिया का पूंजीपति वर्ग जो उनकी लडाई को कमजोर करने के लिये उन्हें राष्ट्र, क्षेत्र, भाषा, मजहब, आदि के नाम पर बांटकर आपस में भिड़ाए रखना चाहता है.

दुनिया भर के संगठित मजदूरों के ऐसे ही दीर्घकालीन बलिदानी संघर्षों से मजदूरों ने यूनियन बनाने, 8 घंटे के कार्यदिवस, न्यूनतम मजदूरी, कार्यस्थल पर सुरक्षा, आदि सीमित ही सही पर कई अधिकार हासिल किए जिसे उनके जीवन में कुछ हद तक सुधार भी हुआ. लेकिन बीसवीं सदी के उत्तरार्ध में विभिन्न कारणों से मजदूर आंदोलन वैचारिक विभ्रम व बिखराव का शिकार होकर कमजोर पड़ने लगा.

आज दुनिया और भारत में मजदूर वर्ग के संगठन बहुत कमजोर हो चुके हैं तथा मालिकों के मुकाबले में संगठित होकर उन्हें मिलने वाली सामूहिक सौदेबाजी की उनकी ताकत का बहुत हद तक क्षरण हो चुका है. साथ वैश्विक पूंजीवादी आर्थिक संकट ने जिस भयानक बेरोजगारी को पैदा किया है उससे बेकारी से तबाह मजदूरों की एक बड़ी फौज भी उनकी सौदेबाजी की शक्ति को क्षीण कर रही है क्योंकि मांग और पूर्ति के नियम से पूर्ति अधिक होने से श्रम शक्ति का मूल्य गिर गया है.

इस स्थिति में पिछले कुछ दशकों से काम के घंटे फिर से बढ़ने लगे हैं. कुछ संगठित उद्योग जिनमें मजदूर यूनियन अभी भी शक्तिशाली हैं को छोड़कर सभी उद्योगों में 8 घंटे के कार्यदिवस का अस्तित्व या तो समाप्त होता जा रहा है या वह कागज पर रह गया है. खास तौर पर उन नए उद्योगों में जहां  यूनियन कभी बनी ही नहीं और जिनमें काम करने वाले खुद को श्रमिक नहीं कर्मचारी कहलाना पसंद करते हैं काम के घंटों की सीमाएं लगभग समाप्त हो चुकी हैं और सप्ताह में 60-80 घंटे काम आम होता जा रहा है.

सूचना प्रौद्योगिकी एवं अन्य तथाकथित ‘बुद्धि उद्योग’, वित्त, डिलीवरी सेवायें, आदि इसके बड़े उदाहरण हैं. मजदूर संगठनों की कमजोरी से पूंजीपति वर्ग अभी इतनी हिम्मत हासिल कर चुका है कि चीन व विश्व के बड़े अमीर पूंजीपति जैक मा ने कुछ दिन पहले ही अपने कर्मचारियों को कहा कि रोजगार में रहना है तो ‘996’ के सूत्र पर अमल करें अर्थात सुबह नौ बजे से रात के नौ बजे या बारह घंटे सप्ताह के 6 दिन काम करने के लिए तैयार रहें. वास्तविकता यह है कि पहले ही बहुत से श्रमिक इतना या इससे भी अधिक काम कर रहे हैं.

यहां इस बात को समझना बहुत जरूरी है कि आखिर काम के घंटों का सवाल क्यों इतना महत्वपूर्ण है कि उसको लेकर श्रमिकों और मालिकों में द्वंद्व इतने दीर्घकाल से जारी है, जबकि पिछले कुछ दशकों से ये बताया जा रहा था कि तकनीक और सूचना प्रौद्योगिकी के विकास ने अब पूंजीवाद की प्रकृति को बदल दिया है तथा काम करने वाले अब मजदूर नहीं बल्कि ‘ज्ञान-बुद्धि’ वाले पार्टनर बन चुके हैं जो खुद उद्योग में हिस्सेदार हैं. वास्तव में पूंजीवादी व्यवस्था का मूल ही पूंजीपति और श्रमिक के बीच इस करार में है कि श्रमिक पूंजी मालिक को अपने जिंदा रहने लायक साधनों के मूल्य या मजदूरी के बदले अपनी श्रम शक्ति के उपयोग का अधिकार देता है जिससे पैदा माल पर पूंजीपति का अधिकार होता है.

मूलतः यह करार काम के दिन पर आधारित है अर्थात एक या अधिक दिन के काम के लिए मजदूरी तय होती है जिसके बदले पूंजीपति उतने दिन श्रम शक्ति के प्रयोग का अधिकारी हो जाता है. लेकिन इस काम के दिन की माप पर इन दोनों वर्गों के बीच शुरू से द्वंद्व रहा है. पूंजीपति चाहता है कि वह चौबीस घंटे में से जितने अधिक घंटे संभव हो काम कराये और अधिकाधिक उत्पादन प्राप्त करे क्योंकि मजदूरी भुगतान कर देने लायक उत्पादन के पश्चात जितना ज्यादा मूल्य का उत्पादन होगा उसका मुनाफा उतना ही ज्यादा होगा.

इसके विपरीत मजदूर प्रयास करता है कि वह उतना ही श्रम शक्ति खर्च करे जिसे वह फिर से पुनरूत्पादित कर सके क्योंकि श्रम शक्ति शरीर के एक हिस्से और उसकी क्षमता को नष्ट करती है जिसे आराम व भोजन द्वारा पुनः उत्पादित करना जरूरी है नहीं तो वह हमेशा के लिए नष्ट हो जाती है. चिकित्सा विज्ञान ने इस बात को स्थापित किया है कि बिना पर्याप्त आराम व पोषण के निरंतर अधिक काम करने वाले व्यक्ति का जीवन कम होता जाता है. यही वजह थी कि पहले अधिकांश मजदूर औसतन 40 वर्ष की उम्र पार नहीं कर पाते थे.

अतः मजदूर वर्ग ने संगठित होकर यह नारा बुलंद किया था कि ‘आठ घंटे काम, आठ घंटे आराम, आठ घंटे मनोरंजन’. इस न्यायोचित मांग को उनकी संगठित शक्ति और संघर्ष के कारण पूंजीपतियों और सरकारों को मानना पड़ा था और क्रमिक रूप से काम के घंटों को सीमित करने के कानून बने थे. किन्तु मजदूर वर्ग संगठनों के कमजोर होते ही मालिकों ने इन क़ानूनों में ‘सुधार’ या ढील का द्बाव बनाना शुरू किया जिसके चलते अधिकांश देशों में श्रम क़ानूनों को नरम बनाकर मालिकों को अधिक वक्त काम लेने का अधिकार दिया जा रहा है.

भारत में भी मालिकों के संगठनों के दबाव में पहले यूपीए तथा अब एनडीए सरकार के लिए श्रम क़ानूनों में ‘सुधार’ कर श्रमिकों की ‘उत्पादकता’ बढ़ाना प्राथमिकता रहा है. श्रम कानून न्यायालयों को कमजोर करना, फैक्टरी निरीक्षणों को बंद करना, ओवरटाइम के नाम पर अधिक घंटों काम का प्रावधान करना, स्त्री मजदूरों से रात्रि-पालि में काम करवाने की छूट, पारिवारिक कार्य के नाम पर बाल श्रमिकों पर रोक में ढील देना, जैसे प्रस्ताव धीरे-धीरे पिछले सालों में आगे बढ़ाये गए हैं क्योंकि मालिक वर्ग की मांग रही है कि आर्थिक संकट को देखते हुए श्रम की लागत को घटाया जाना चाहिए जिससे उन्हें अधिक निवेश के लिए प्रोत्साहन मिले. हम सब जानते ही हैं कि निवेश को प्रोत्साहन देने के नाम पर सभी दलों सरकारें की सरकारें कितना उत्साहित होती हैं!

अंतरराष्ट्रीय मई दिवस के 133 साल के इतिहास के संदर्भ में मुख्य बात यही है कि 8 घंटे के कार्यदिवस के संघर्ष की याद जब हम कर रहे हैं ठीक उसी वक्त कार्य दिवस की सभी सीमाओं को तोड़ने का काम तेजी से जारी है और दुनिया भर में सभी उद्योगों में काम के घंटे फिर से बढ़ने की ओर हैं. मई दिवस मनाने वाले सभी के लिए यही मुद्दा सोचने का मुख्य विषय होना चाहिए.


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