दुनिया भर में अनुदार लोकतंत्र का दौर!


wto raises questions over agriculture policies of america and india

 

भारत के आम चुनावों में नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में बीजेपी नीत एनडीए की जीत पर बेशक ईवीएम हैकिंग से लेकर सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के आरोप लग रहे हों परंतु यह नतीजे वैश्विक राजनीतिक-आर्थिक संक्रमण के दौर में दुनिया में हो रहे दक्षिणपंथी उभार से अलग थलग अथवा कोई अप्रत्याशित नतीजे नहीं हैं बल्कि पूरी दुनिया में हो रहे दक्षिणपंथी उभार का एक हिस्सा ही है. मोदी अमेरिका से लेकर हंगरी, फ्रांस, फिलीपीन्स, ऑस्ट्रेलिया, ऑस्ट्रिया, जापान, ग्रीस, ब्राजील, यूके जैसे अनेकों देशों में उभर रहे दक्षिणपंथी उभार के नायकों में से ही एक हैं.

दरअसल, पिछले तीन दशकों में कॉरपोरेट विकास की भूमंडलीय अवधारणा से पैदा हुई विषमताओं और असंतोष से पैदा हुई रिक्तता को भरने के क्रम में दक्षिणपंथी नायकों की इस बढ़ती हुई भीड़ को ना केवल मान्यता बल्कि जनसमर्थन भी हासिल हो रहा है. परंतु दक्षिणपंथ के उभार का सबसे रोचक परंतु त्रासद पहलू यह है कि जिस कॉरपोरेट विकास से पूरी दुनिया में बढ़ रही आर्थिक और सामाजिक विषमताओं के तेजी से पनपने और असंतोष के बढ़ने से और नए विकल्प और बेहतर भविष्य की आशा में यह राजनीतिक बदलाव हो रहे हैं, वही कॉरपोरेट दुनिया इन दक्षिणपंथी नायकों की पोषक और प्रायोजक भी है.

इसीलिए कहा जाना चाहिए कि पूरी दुनिया में उभरते और बढ़ते तथाकथित मजबूत जन नायकों बढ़ती भीड़ में अनायास अथवा अप्रत्याशित कुछ भी नहीं है बल्कि यह कॉरपोरेट विकास की राजनीतिक व्यवस्था को अपने अधीन करने की वैश्विक योजना का हिस्सा भर है.

दुनिया में हो रहे इस राजनीतिक संक्रमण को बेशक हम खतरनाक विशेषकर उदारवादी लोकतंत्र के लिए खतरनाक मान सकते हैं परंतु यह बदलाव उतना ही सरल है कि प्रत्येक अर्थव्यवस्था के बदलने के साथ ही राजनीति और सामाजकि बदलाव भी अनिवार्य है. अब केन्द्रीकृत आर्थिक विकास के लिए सत्ता का केन्द्रीकरण भी जरूरी है. बेशक देश दुनिया के प्रगतिशील विद्वान इस उभार को नवफासीवाद अथवा नव नाजीवाद कहते रहें परंतु असल में यह उदार लोकतंत्र से अनुदार लोकतंत्र की तरफ बढ़ने की आहट है, जिसमें फासीवादी रुझान अन्तर्निहित हैं.

इस अनुदार लोकतंत्र की तरफ बढ़ने की मौखिक और व्यवहारिक घोषणाओं में 2010 के बाद अचानक तेजी आई है. कॉरपोरेट विकास से बढ़ती आर्थिक विषमताओं और सामाजिक असमानताओं को इन दक्षिणपंथी नायकों ने पुराने स्थापित उदार लोकतंत्र की विफलताओं की तरह पेश करते हुए नए मजबूत शासन अथवा सुशासन का नैरेटिव गढ़ते हुए मुखर तरीके से सत्ता के केन्द्रीकरण पर आधारित तथाकथित सुशासन की नई संकल्पना को आगे बढ़ाने का काम किया है. इस नई तथाकथित विकासवादी व्यवस्था की संकल्पना को आगे बढ़ाने और पुरानी उदारवादी लोकतांत्रिक प्रणाली को बदनाम करने का इन दक्षिणपंथियों का एक विश्वव्यापी डिजाइन है.

पुरानी उदारवादी लोकतांत्रिक व्यवस्था को तमाम आर्थिक-सामाजिक विषमताओं का कारण बनाते हुए यह नये दक्षिणपंथी वाकपटु, वाचाल नायक पुरानी उदारवादी लोकतांत्रिक प्रणाली के नायकों और उनकी उदारवादी, प्रगतिशील विशेषकर वामपंथी रूझान वाली विचारधारा को बदनाम करते हैं उनकी चरित्र हत्या की सीमा तक जाकर उन्हें खलनायकों की तरह पेश करते हैं.

हालांकि विकास के इस पूरे वैश्विक घटनाक्रम में दिलचस्प समानताएं हैं. सबसे पहले परिवर्तन के इस दौर की शुरुआत 90 के दशक के बाद दुनिया में विकास के समाजवादी ब्लॉक के विखंडन और कॉरपोरेट विकास की भूमंडलीय अवधारणा में तेजी आने के साथ हुई और दुनिया के बड़े हिस्से में नव उदारवादी नीतियों के लागू होने और पुराने मध्यमार्गी उदारवादी लोकतंत्र के भीतर दक्षिणपंथी आर्थिक नीतियों को लागू करने से हुई और उसके बाद 90 के दशक के खत्म होने तक उन नीतियों के खिलाफ पूरी दुनिया में एक वामपंथी रूझान वाले प्रतिरोध की शुरुआत हुई जिस कारण 90 के दशक के खत्म होने और नई सदी के शुरू होने का दौर लेटिन अमेरिका से लेकर यूरोप, पूर्वी यूरोप और एशिया में वामपंथी उभार का दौर रहा.

परंतु दुर्भाग्यवश, 90 के दशक से शुरू हुए उस वामपंथी प्रतिरोध के पास नव उदारवादी आर्थिक नीतियों का कोई व्यवहारिक विकल्प नहीं था. ऐसा विकल्प जो उत्पादक शक्तियों के विकास का अवरोध ना होकर उत्पादक शक्तियों के विकास की गति को तेज करे. यहां तक कि इस वामपंथी प्रतिरोध के नेतृत्व में भूमंडलीकरण के विरोध को लेकर भी भ्रम था और देखा जाए तो प्रतिरोध के नेतृत्व ने भूमंडलीकरण का विरोध नहीं बल्कि इसके पूंजीवादी अथवा कॉरपोरेट रूप का ही विरोध किया. इन अर्थों में यह वामपंथी रूझानों वाला प्रगतिशील शक्तियों का प्रतिरोध और उभार कोई ठोस वैकल्पिक प्रतिरोध नहीं होकर कुछ कल्याणकारी उपायों के साथ अजमाया हुआ प्रतिक्रियात्मक विरोध बनकर रह गया और भूमंडलीकरण के इस विकल्पहीन प्रतिक्रियात्मक विरोध में राष्ट्र-राज्य की अवधारणा को बचाने और राष्ट्रवाद की गूंज ही अधिक सुनाई दी.

90 के दशक के बाद का यह ऐसा समय था जब दक्षिणपंथी राष्ट्रवादी और वामपंथी भूमंडलीकरण के विरोध एक ही कतार में खड़े नजर आ रहे थे. यदि हम भारत की ही बात करें तो देखेंगे कि 1990 के दशक का अंत आते आते और नई सदी के शुरू होते होते भूमंडलीकरण के खिलाफ केवल वामपंथी ही नहीं खड़े थे बल्कि देश के सोशलिस्ट खेमे से लेकर स्वदेशी जागरण मंच जैसे आरएसएस के विभिन्न जन संगठन भी भूमंडलीकरण की योजना के एक रूप ‘विश्व व्यापार संगठन’ के खिलाफ मोर्चा खोले हुए थे. धीरे-धीरे दक्षिणपंथी खेमे ने तमाम प्रगतिशील नारों और चिंताओं को रेडिकल अंदाज में हड़पकर उन्हें राष्ट्रवाद यहां तक कि अपने सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की नकारात्मक राजनीति के साथ एकाकार करते हुए इस विरोध को जातीय-राष्ट्रवाद, सांप्रदायिक नस्लवाद का जामा पहनाकर कभी उदारवादी, प्रगतिशील मध्यमार्गी अथवा वामपंथी राजनीति का जनाधार रहे देश के मध्यम और निम्न मध्यम वर्ग पर कब्जा जमा लिया. देश का पंरपरागत मजदूर वर्ग लाल रेखा लांघकर भगवा खेमे में शामिल होने लगा.

ऐसा नहीं है कि यह रेखा लांघकर भगवा होने का खेल भारत में ही प्रभावी रहा हो पिछले चुनावों में अमेरिकी प्रगतिशील खेमे का मतदाता और अमेरिकी मजदूर वर्ग भी ठीक इसी राह पर चलकर ट्रम्प के खेमे में शामिल हो गया. उसे लगता था कि ट्रम्प पिछली सरकारों द्वारा आउटसोर्स किए गए रोजगार को वापस लाकर अमेरिकी मजदूर वर्ग को दुर्दशा से बाहर निकाल देंगे. ठीक यही स्थिति फ्रांस के मध्यम और निम्न मध्यम वर्ग की हुई जहां फ्रांस का मजदूर वर्ग कुछ हद तक मेरी ली पेन के नेशनल फ्रंट के पीछे लामबंद होता दिखाई दिया. फिलीपीन्स के मौजूदा राष्ट्रपति को भी इसी प्रकार का मजबूत राष्ट्र प्रमुख माना जाता है, जिसमें देश की गरीब जनता अपना नायक, अपना भविष्य देखती है. हालांकि फिलीपीन्स का विपक्ष और दुनियाभर के मानवाधिकार कार्यकर्ता उन्हें सात हजार लोगों के नरसंहार का दोषी मानते हैं.

परंतु इन सभी दक्षिणपंथी नायकों के बीच सबसे रोचक और सबक लेने लायक उदाहरण हंगरी के प्रधानमंत्री विक्टर ओर्बन का है. विक्टर ओर्बन ने साफतौर पर एक अनुदार लोकतंत्र की अवधारणा पेश की है. ऐसा लोकतंत्र जिसमें मानवाधिकार, सामाजिक समानता, सांप्रदायिक और नस्लीय समानता जैसी उदारवादी लोकतंत्र की मूल भावना वाले तत्व विकास की सबसे बड़ी रूकावट दिखाई पड़ते हैं, जिसमें जनता को सरकार की नीतियों पर सवाल करने अथवा उनमें दखल करने का अधिकार नहीं होगा, अधिकार होगा तो केवल कर्तव्य निर्वाहन का.

ध्यान रहे हंगरी नब्बे के दशक के शुरू में समाजवादी राह को छोड़कर पूंजीवादी रास्ते पर चला और जब हंगरी ने समाजवाद का रास्ता छोड़ा तो देश की 80 प्रतिशत जनता समाजवादी शासन के खिलाफ थी परंतु 1995 तक आते आते एक सर्वेक्षण में देश की 51 प्रतिशत जनता ने माना था कि मौजूदा पूंजीवादी व्यवस्था पुरानी व्यवस्था से बदतर है. उसी हंगरी में विक्टर ओर्बन 1998 से 2002 तक हंगरी जनवादी मोर्चे के नेता के बतौर उदारवादी प्रधानमंत्री रहे परंतु 2002 के बाद सत्ता से हटने के बाद और 2010 आते- आते उन्होंने उदारवाद का चोला उतार फेंका और 2010 में फिर से सत्ता में आने के बाद वह एक नस्लवादी राष्ट्रवादी, प्रवासी विरोधी मजबूत अति दक्षिणपंथी नेता हैं.

वास्तव में, कॉरपोरेट विकास की खगोलीय अवधारणा की अवस्था में 2010 तक एक गुणात्मक बदलाव आया है. विकास का यह कॉरपोरट मॉडल अपने अनुत्पादक वित्तीय विकास के कारण अब अपने ही बनाए हुए आर्थिक संकटों में फंस रहा है और उससे उबरने के लिए उसे राष्ट्रीय और प्राकृतिक संसाधनों की निरंकुश लूट के लिए एक ऐसे अनुदार लोकतंत्र की आवश्यकता है जिसमें सत्ता केन्द्रीकृत होकर केवल कुछ ही हाथों में हो और जनता की भागीदारी कम से कम हो सके. जनता का ध्यान अधिकारों पर नहीं कर्तव्यों पर हो. इसी अनुदार लोकतंत्र को कार्यान्वित करने के लिए विक्टर ओर्बन ने 2010 में सत्ता में आते ही सारे पुराने मंत्रालय भंग करके नए मंत्रालयों का गठन किया और एक शक्तिशाली पीएमओ बनाया जिसमें एक मंत्री को सभी मंत्रालयों के कामकाज की निगरानी और समीक्षा का दायित्व सौंपा गया.

प्रधानमंत्री मोदी ने 25 मई 2019 को बीजेपी के संसदीय दल की बैठक में बेशक संविधान को नमन करते हुए सबको बराबरी और सबको विश्वास की बात कही हो परंतु उनके भाषण का सारांश अनुदारवादी लोकतंत्र की मूल भावना की अनुगूंज ही था कि “हमें हकों से ज्यादा कर्तव्य पर बल देना होगा.”


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