बॉलीवुड की बेबाक और साहसी फिल्म है आर्टिकल 15


movie review article 15

 

निर्देशक: अनुभव सिन्हा
लेखक: गौरव सोलंकी
कलाकार: आयुष्मान खुराना, ईशा तलवार, सयानी गुप्ता, मनोज पाहवा, कुमुद मिश्रा, मोहम्मद जीशान अयूब

जिस देश में पेड़-पौधों, पशु, नदी और पहाड़ तक की पूजा की जाती है, वहां कुछ खास इंसानों के साथ जानवरों से भी बदतर सलूक किया जाता होगा, यह सुनना और यकीन करना अविश्वसनीय है. लेकिन भारत जितना अतुलनीय देश है उतना ही अविश्वसनीय भी. यहां निर्जीव चीजों को भी श्रद्धा और सम्मान से देखने की नजर है, और ठीक उसी समय बहुत से इंसानों को इंसान तक न मान पाने की बेशर्म, अमानवीय और असंवेदनशील नजर भी!

समाज के इस अमानवीय नजरिये को बदलने के लिए हमारे देश के संविधान ने काफी मशक्कत की है और आज भी कर रहा है. अनुच्छेद-15 सरकारों को धर्म, जाति, नस्ल, लिंग या जन्म स्थान के आधार पर किसी भी नागरिक के साथ असमानता का व्यवहार करने से रोकता है. अनुभव सिन्हा की फिल्म ‘आर्टिकल 15’, 21वीं सदी के आधुनिक भारतीय समाज के इसी घोर जातिभेदी रवैये को बेहद बेबाकी और मार्मिक अंदाज में उघाड़ती है.

फिल्म की भाषा में कहें तो ये कहानी उन लोगों की है- जो कभी ‘हरिजन’ बन जाते हैं, कभी ‘बहुजन’ बन जाते हैं मगर ‘जन’ नहीं बन पाते हैं! फिल्म ‘मुल्क’ बनाने के बाद निर्देशक अनुभव सिन्हा और लेखक गौरव सोलंकी की हिट जोड़ी ही फिल्म ‘आर्टिकल 15’ लेकर आई है. इस फिल्म के जरिए निर्देशक ने आपको वो सच दिखाया है जिसे आप जानते हैं, समझते हैं, हर रोज देखते हैं, लेकिन फिर भी नजरें फेरकर आगे बढ़ जाते हैं.

फिल्म की कहानी में विदेश में पढ़ा-लिखा लड़का अयान रंजन (आयुष्मान खुराना) अपने पिता के कहने पर आईपीएस ऑफिसर बनता है. उसकी पहली पोस्टिंग उत्तर प्रदेश के एक छोटे से जिले में होती है, जहां पर जातिगत भेदभाव अपने चरम पर है. ऐसे में अयान के सामने एक संगीन अपराध आता है. तीन बच्चियां लापता हैं. जिनमें से दो की लाश अगले दिन एक पेड़ से लटकी पाई जाती है. महज तीन रुपये ज्यादा दिहाड़ी मजदूरी की मांग करने पर लड़कियों का गैंगरेप कर मार दिया जाता है, क्योंकि वो पिछड़ी जाति की होती हैं! ये क्रूर क्राइम किसी वर्ग के लिए अपनी श्रेष्ठता दिखाने का जरिया है. चूंकि घटना SC/ST जाति की लड़कियों के साथ हुई है, इसलिए पूरा प्रशासन तंत्र उस केस को रफा-दफा करने में लग जाता है. जबकि अयान कहता है ‘कानून चलेगा तो सिर्फ किताब का’ यानी संविधान का.

अयान रंजन, इस क्रूरता से और उससे भी ज्यादा इसे मिलने वाले सामान्य ट्रीटमेंट से, ‘हक्का-बक्का’ है. ये दुनिया उसकी समझ से बाहर है. कौन किसका छुआ खा-पी नहीं सकता, इसके बारे में उसकी जानकारी शून्य है. औकात कैसे निर्धारित होती है इसका उसे कुछ अता-पता नहीं. वो बस अपना काम ईमानदारी से करना जानता है. लेकिन क्या वो यह कर पाता है? क्या वह दो बच्चियों के हत्यारों और गुमशुदा तीसरी बच्ची को तलाश कर पाता है? उसकी अपनी पुलिस बिरादरी उसका कितना साथ देती है? क्या समाज के अलग-अलग अंग एक नए आईपीएस अफसर को अपना फर्ज निभाने देंगे? क्या अयान रंजन इन सब स्थितियों में घुटने टेक देगा? यह सब जानने के लिए आपको फिल्म देखनी होगी.

एक्टिंग की बात करें तो मुख्य कलाकारों से लेकर स्पोर्टिंग कास्ट तक सभी का काम बेहद शानदार हैं. आयुष्मान खुराना तो कमाल हैं. आयुष्मान फिल्म दर फिल्म नई ऊंचाइयां हासिल कर रहे हैं. इस फिल्म में भी उन्होंने हमेशा की तरह किरदार को बेहतरीन तरीके से निभाया है, जिस प्रकार एक मंझा हुआ कलाकार निभाता है. उनसे अलग मनोज पाहवा, कुमुद मिश्रा, सयानी गुप्ता, रोंजिनी चक्रवर्ती आदि सभी कलाकार अपनी बेहतरीन अदाकारी से दर्शकों का दिल जीतने का दम रखते हैं.

मुहम्मद जीशान अयूब एक बागी दलित के रोल में बेहद प्रभावित करते हैं. खासतौर पर हाउस मेड अमली का किरदार अदा करने वाली लड़की ने कमाल का दमदार अभिनय किया है. बेहद सहज एक्टिंग. अपने अंतिम सीन में वो आपको मजबूर कर देती हैं कि उन्हें आप फिल्म की सबसे उम्दा एक्टर मान लें. ऐसा टैलेंट खोजने के लिए फिल्म की टीम को धन्यवाद दिया जाना चाहिये.

फिल्म निर्देशक अनुभव सिन्हा और लेखक गौरव सोलंकी हमारी बोलचाल का हिस्सा बने तमाम रेफरेन्सेस का पूरी फिल्म में भरपूर इस्तेमाल करते हैं. जैसे कोटे के डॉक्टर जो हमारे टैक्स से पढ़ाई करते हैं. गौरव सोलंकी का लेखन जबर्दस्त प्रभावी है. फिल्म के कुछेक डायलॉग लंबे समय तक आपके ज़हन में रहते हैं. जैसे – एक जगह फिल्म का नायक कहता है ‘ये उस किताब की नहीं चलने देते जिसकी ये शपथ लेते हैं.’ एक अन्य जगह अयान की गर्लफ्रेंड कहती है, ‘हमें हीरो नहीं चाहिए, बस ऐसे लोग चाहिए जो हीरो का इंतजार न करें’.

फिल्म के कुछ सीन बेहद उम्दा बन पड़े हैं. जैसे वो, जब अयान अपने स्टाफ से सबकी जाति पूछता है. या फिर वो, जब सब लोग अपना वोटिंग पैटर्न बताते हैं, जहां तमाम पार्टियों के चुनाव चिन्हों का जिक्र होता है. फिल्म में प्रशासन के अंदर के जातिवाद वाले सीन को बहुत ही रोचकता के साथ दर्शाया गया है.

फिल्म की सिनेमैटोग्राफी बेहद उम्दा है. एक सीन के लिए तो सिनेमैटोग्राफर एवान मलिगन को शाबाशी दी जानी चाहिए. जब लड़कियों की पेड़ से लटकती लाश दिखती है तब कैमरा भी थोड़ा हिलता है. जैसे उस दृश्य की भयावहता से एक पल को कैमरा भी थर्रा गया हो! ‘आर्टिकल 15’ में एक गंभीर सब्जेक्ट को बहुत प्रभावी और मार्मिक तरीके से दिखाया गया है. फिल्म को काफी थ्रिलिंग अंदाज में प्रस्तुत किया गया है. फिल्म का हर सीन आपको बांधे रखता है. हालांकि फर्स्ट हाफ थोड़ा लंबा खिंच गया. लेकिन पूरी फिल्म देखने के बाद आप छोटी-छोटी गलतियों को नजरअंदाज कर देंगे. फिल्म का सब्जेक्ट जितना मजबूत है, उतने ही मजबूत उसके सीन्स हैं.

अगर आपने कभी लक्ष्मणपुर बाथे या खैरलांजी का नाम नहीं सुना, अगर घोड़ी पर बारात लाने की वजह से पीटे गए दलित की कोई खबर कभी नहीं पढ़ी, या अपने आसपास, अपने घर में किसी खास जाति वाले लोगों के लिए अलग से रखा गया चाय का कप नहीं देखा तो ये फिल्म आपके लिए जरूरी है. क्योंकि ये आपको उस भारत से मिलवाती है, जिसके कुछ हिस्सों को आप अपनी सुविधानुसार अनदेखा कर देते हैं. फिल्म की प्रासंगिकता, बेबाकी, साहस और स्पष्टवादिता के लिए निर्देशक और पूरी टीम की जमकर तारीफ की जानी चाहिये.

निःसंदेह फिल्म ‘आर्टिकल 15’ आपको असहज करती है. लेकिन इस समाज को और ज्यादा मानवीय बनाने के लिए, इसे हर आम-ओ-खास के जीने लायक बनाने के लिए, इस असहजता से होकर गुजरना बेहद जरूरी है. सो यह साहसी फिल्म जरूर देखी जानी चाहिए.


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