मप्र, राजस्थान, गुजरात और मोदी सुनामी


More than 200 professors from Delhi University condemned Modi's comment on Rajiv Gandhi

 

उफ! मोदी-शाह की प्रोपेगेंडा टीम कांग्रेस को पांच सीट भी नहीं दे रही. मोदी-मोदी के हल्ले ने अच्छे खासे सुधीजनों को भी बावला बना डाला है. कल मैंने भोपाल, जयपुर के अपने जानकार सुधीजनों से फोन पर जाना कि नरेंद्र मोदी की आंधी 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद जैसी है! मैंने पूछा तब तो ज्योतिरादित्य, कमलनाथ और अशोक गहलोत के बेटे भी हारेंगे? जवाब था हां, हार रहे हैं! जाहिर है मोदी-शाह की प्रोपेगेंडा मशीनरी अब 2014 में कांग्रेस की जीती दो सीट देने को भी तैयार नहीं है. न यह सोचने को तैयार है कि आठ महीने पहले के विधानसभा चुनाव में जिन वोटों से बराबरी की टक्कर बनी थी वे यदि एकतरफा आंधी लिवा भी ला रहे हैं तब भी पांच-छह सीट तो कांग्रेस की हो सकती है. फिर सवाल कि यदि मध्य प्रदेश के बुंदेलखंड में आंधी है तो यूपी के बुंदेलखंड या राजस्थान में धौलपुर के बगल यूपी की आगरा,फतेहपुर सिकरी सीटों पर भी मोदी की आंधी में बसपा-सपा एलायंस को उड़ा हुआ होना चाहिए.

पर हल्ले के आगे तर्क नहीं चलता. झूठ आईने में नहीं देखता. भक्त विश्लेषण नहीं करते. तब क्या माना जाए? मैं राजस्थान, मध्य प्रदेश, गुजरात की 81 सीटों को भाजपा का सौ सीट पार कराने वाला लांच पैड लिख चुका हूं. मतलब इन तीन राज्यों में भाजपा को 2014 की संख्या में न्यूनतम नुकसान होगा. 2014 में भाजपा ने 81 में 79 सीटें जीती थीं. सिर्फ दो सीट मध्य प्रदेश के गुना में ज्योतिरादित्य और छिंदवाड़ा में कमलनाथ के खाते कांग्रेस जीती थी. ये दोनों नेता तब भी 10 व 12 प्रतिशत मार्जिन से जीते थे. लेकिन आज मोदी, मोदी की प्रोपेगेंडा टीम से हल्ला है कि ये दो नेता भी अपने इलाके में हार रहे हैं. इसलिए क्योंकि 1984 की राजीव सुनामी जैसी मोदी आंधी बनी है. ध्यान रहे कांग्रेस ने उस आंधी में 57 प्रतिशत वोट ले कर अविभाजित मध्य प्रदेश की सभी 40 सीटें जीती थीं.

ऐसा मैं होता हुआ नहीं मानता हूं. अपना मानना था और है कि मोदी के इन तीन भक्त राज्यों में भी भाजपा को 15 से 20 सीट का नुकसान है. मैंने इस अनुमान को पुलवामा से पहले के अपने चार्ट में, पुलवामा के बाद और ताजा मतदान से पहले और अब मतदान के बाद भी लिख रहा हूं. संदेह नहीं कि मोदी की आंधी में सर्वाधिक संभव मध्य प्रदेश है क्योंकि 2014 के 61.6 प्रतिशत मतदान के मुकाबले अभी तक के दो राउंड का यहां औसत मतदान 72 प्रतिशत पहुंचा है. मतलब कोई साढ़े दस प्रतिशत ज्यादा वोटिंग. बावजूद इसके इस आंकड़े पर भाजपा को उछलना नहीं चाहिए क्योंकि आठ महीने पहले हुए विधानसभा चुनाव में भी प्रदेश का मतदान 75.6 प्रतिशत था. उस नाते ताजा पोलिंग तीन प्रतिशत कम है. आठ महीने पहले के 75.6 प्रतिशत मतदान में कांग्रेस और भाजपा को क्रमश 41.5 व 41.6 प्रतिशत वोट व 114 बनाम 109 सीटें मिली थीं. कांग्रेस का वोट तब 2013 के विधानसभा चुनाव के 37 प्रतिशत व 2014 के लोकसभा के 35 प्रतिशत के मुकाबले पांच-छह प्रतिशत बढ़ा जबकि भाजपा का वोट 2014 के 55 प्रतिशत के पीक से 13.4 प्रतिशत लुढ़क कर 41.6 प्रतिशत नीचे जा पहुंचा.

सोचें, भाजपा कितनी भारी लुढ़की जबकि कांग्रेस ने 35-37 प्रतिशत के ठोस वोट आधार से पांच-छह प्रतिशत वोट ही बढ़ाए. वोट तराजू के दोनों पलड़ों की उस स्थिति में मोदी आंधी की हवाबाजी में अब यह सोचा जा रहा है कि आठ महीने के भीतर 14 प्रतिशत मतदाता वापिस भाजपा लौट पड़ेंगे और उन्होंने पहले दो चरण में कमल पर ठप्पे लगाए.यानी मुंगेरीलाल का यह ख्याल कि आठ महीने बाद कांग्रेस वापिस लुढ़क कर 35 प्रतिशत की तरफ तो भाजपा उछलती हुई 55 प्रतिशत वोट के पीक पर!

क्यों? दलील है कि लोग मोदी को ही प्रधानमंत्री चाहते हैं. कोई पूछे कि मप्र के लोगों ने आठ महीने पहले शिवराज को न चाह कर क्या कमलनाथ को चाहते हुए कांग्रेस को वोट दिया था? बहरहाल यदि मोदी नाम का तर्क भी मानें तो शहरी आबादी, बामन-बनियों-ठाकुर से मोदी को ज्यादा वोट जाना चाहिए या आदिवासी-दलित बहुल सीटों पर मोदी की आंधी होगी?

सोचें, आठ महीने पहले क्या कमलनाथ के जादू से भाजपा का वोट 55 प्रतिशत से लुढ़क कर 41 प्रतिशत हुआ? नहीं. भाजपा इसलिए लुढ़की थी क्योंकि मोदी-शिवराज दोनों के राज के अनुभवों से लोग कम-ज्यादा खफा थे. खफा होने वालों में आदिवासी, दलित, जातिवादी खुन्नस में रंगे वे वोट ज्यादा थे, जिनके घाव आठ महिनों में पूरी तरह भरे, यह संभव नहीं है. बावजूद इसके यदि कुछ संभव मानें तब भी इससे मध्य प्रदेश की सभी 29 सीटों पर कांग्रेस का सूपड़ा साफ होने का लॉजिक, तर्क नहीं बनता है.

मैंने पहले भी लिखा है कि अहमदाबाद पश्चिम, वड़ोदरा, राजकोट से ले कर जबलपुर, अजमेर, जयपुर, बीकानेर, रीवा जैसे शहरों में 2014 के मुकाबले इस चुनाव कम या औसत के आसपास वोटिंग है तो आदिवासी-कस्बाई बहुल बनासकांठा, पोरबंदर, आनंद, बांसवाड़ा, गंगानगर, छिंदवाड़ा, मंडला, शहडोल, बैतुल में 2014 के मुकाबले ज्यादा वोटिंग का यदि रिकार्ड है तो क्या अर्थ निकालें? सोचें, मोदी, मोदी हल्ला शहरों में, बामन-बनियों-ठाकुरों में लेकिन वोट देहात, आदिवासी-दलित बहुल सीटों पर ज्यादा हो रहा है.

सही बात है कि जोधपुर, छिंदवाड़ा, बाडमेर, सीधी जैसी वीवीआईपी सीटों पर घमासान लड़ाई के चलते इन सीटों पर भी भारी मतदान हुआ. इसके पीछे यह हकीकत है कि कमलनाथ, अशोक गहलोत ने दम लगा कर चुनाव लड़ा है. राजस्थान, मध्य प्रदेश में कांग्रेस की सरकार होने से, मंत्री, विधायक, कार्यकर्ता करो-मरो के अंदाज में चुनाव लड़ रहे हैं जबकि ठीक विपरीत भाजपा नेता और संगठन मोदी का जाप करते हुए रिलैक्स हैं. ये घर बैठे 81 सीटें मोदी की गोदी में गिरती देख रहे हैं. मध्य प्रदेश के पहले दो राउंड के चुनाव में सर्वाधिक वोटिंग कमलनाथ के छिंदवाड़ा और उसी से सटी बैतुल लोकसभा सीट पर क्रमशः 82.1 व 77.8 प्रतिशत हुई है. अब ऐसा है तो कैसे माना जाए कि कमलनाथ अपने बेटे, अपनी बगल वाली सीट में अधिकाधिक वोट डलवा कर भी हारेंगे और यहां भाजपा का खंभा मोदी हवा के चलते मजे से जीतेगा क्योंकि मोदी आंधी है!

मूल सवाल कि मध्य प्रदेश, राजस्थान और गुजरात की 81 सीटों में से नरेंद्र मोदी पंद्रह-बीस सीट हार रहे हैं या नहीं? मौन मोदी आंधी मानने वाले भक्त सभी 81 सीटों पर भाजपाई जीत बता रहे हैं. पहले ऐसे प्रदेश केंद्रित चुनाव नतीजे कभी नहीं आए. या तो पूरे उत्तर भारत में 2014 व 1984 जैसी आंधी आई या प्रदेशवार स्थितियों, जातीय समीकरणों और लोकल उम्मीदवारों की जमीनी लड़ाई में एक-एक सीट के मुकाबले से जीत-हार हुई. इसी के चलते यदि मध्य प्रदेश में आठ, राजस्थान में छह और गुजरात में तीन सीट भी कांग्रेस को मिलती है तो वह नरेंद्र मोदी की आंधी तो दूर हवा को भी पंक्चर बनाने वाली संख्या होगी. देश में नरेंद्र मोदी के लिए ऐसी कोई दूसरी जगह नहीं है, जहां वे तीन राज्यों के लांच पैड की 17 सीटों के नुकसान की भरपाई कर सकें. 2019 के चुनाव की यही निर्णायक बात है कि नरेंद्र मोदी को यदि एक सीट का भी कहीं नुकसान है तो उससे टायर बर्स्ट! तभी अब प्रोपेगेंडा, झूठ की पराकाष्ठा है जो मोदी, मोदी का हल्ला, झूठ, राजीव गांधी की दास्तां के साथ उनकी वोट सुनामीवाली मौन अंडरकरंट के 2019 में होने की बात करने लगा है. सोचें, इतना हल्ला और उसमें भी मौन अंडरकरंट की बात!

मैंने पूछा- किसमें मौन अंडरकरंट? जवाब था – लाभार्थी गरीबों में, गरीब परिवारों की महिलाओं में. दलित और आदिवासियों में.

सोचा तब मैंने मध्यप्रदेश के उदाहरण पर. हां, जान लें कि मध्य प्रदेश में जितने लाभार्थी शिवराज-नरेंद्र मोदी की कमान से हुए, शायद ही देश के किसी और प्रदेश में हुए हों. शिवराज सिंह ने लाभार्थी बनाने में रिकार्ड बनाया. मैंने भी विधानसभा चुनाव के वक्त में गांव-देहात की बदली दशा, हर मामले में नकद मदद, गरीब को मकान, शौचालय, भावांतर के खूब किस्से सुने. लेकिन दलित-आदिवासी ने वोट नहीं दिया. जबकि ध्यान रखें यह तथ्य को कि लाभ की तमाम योजनाओं में फायदा लिए अधिक आबादी दलित, आदिवासी की होती है. इसी आबादी ने आठ महीने पहले शिवराज को सही नहीं माना तो वह जातीय समीकरण, पांच सालों के समग्र अनुभव की वजह से था. सो, लाभार्थी, महिलाएं यदि मामा शिवराज सिंह की सगी नहीं हुईं तो दूर के मोदी के क्या वे वोट सगे होंगे? क्या वे आज पीएम कौन हो का हल्ला सुन 1984 या 2014 वाला जोश मोदी के लिए मन में पाले हुए होंगे? अपनी जगह इस बात में भी दम है कि विकास, योजनाओं, लाभार्थियों से जीत-हार का फैसला नहीं हुआ करता है. चुनावी फैसला या तो अखिल भारतीय भावनात्मक मसले या चौतरफा भारी गुस्से में सर्वव्यापी, सर्वजनीय मूड में होता है या रूटिन चुनाव की जमीनी हकीकत से बने मतदाताओं के चुनावी रूख से हुआ करता है. सो, अपना मानना है कि जो हल्ला है वह टायर बर्स्ट हुए हल्ले से ध्यान हटाने का प्रोपेगेंडा है. कल और जाचेंगे मोदी-शाह की कथित आंधी की हकीकत को.

साभार: नया इंडिया 


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