मोहम्मद अली: प्रतिरोध का अश्वेत आदर्श
25 फरवरी 1964 के दिन वो ना सिर्फ खेलों के इतिहास में एक नई इबारत का आगाज़ कर रहे थे बल्कि रंगभेद की जड़ों पर गहरा आघात भी कर रहे थे. ये वो दिन था जब महान मुक्केबाज मोहम्मद अली अपने प्रतिद्वंद्वी सोनी लिस्टन के साथ रिंग में थे. लेकिन उस समय तक मोहम्मद अली, मोहम्मद अली नहीं बने थे. तब उनका नाम कैसियस क्ले हुआ करता था. छह बाउट तक चले इस मैच के बाद कैसियस नए हेवीवेट विश्व चैंपियन बन गए थे.
विश्व चैंपियन बनने के दो दिन बाद ही कैसियस क्ले ने ये कहकर सबको चौंका दिया कि अब वो कैसियस क्ले नहीं रहे. क्ले ने इस्लाम अपना लिया था, अब वे मोहम्मद अली बन चुके थे. ये सिर्फ एक नाम भर से मुक्ति नहीं थी, ये उस पहचान से मुक्ति थीं, जो उन्हें गुलामी की याद दिलाती थी.
मोहम्मद अली का जन्म 17 जनवरी 1942 को अमेरिका के केंटकी प्रांत के एक अश्वेत परिवार में हुआ था. इनके पिता बिलबोर्ड की पेंटिंग करते थे और मां लोगों के घरों में काम किया करती थी. मोहम्मद अली का बचपन घोर अभाव और घृणास्पद माहौल में गुजरा.
उस समय तक अमेरिका कानूनी रूप में अश्वेत बंदिशों से उबर चुका था, लेकिन सामाजिक भेदभाव की गहरी जड़े मजबूती से पैर जमाए थीं. कैसियस के रूप में अली पर वो सब गुजरा जो उस समय अमेरिकी समाज में आम था. मोहम्मद अली ने अपने साथ हुए भेदभाव का प्रतिशोध अपने खेल के माध्यम से लिया.
मोहम्मद अली का हर एक मुक्का प्रतिद्वंद्वी के मुंह का भूगोल तो बिगाड़ ही रहा था साथ ही श्वेत दंभ को भी चकनाचूर करता जा रहा था. अगले तीन साल तक मोहम्मद अली निर्विवाद रूप से चैंपियन रहे. इसकी एक बानगी तब मिली जब 25 मई 1965 को सोनी लिस्टन एक बार फिर से मोहम्मद अली को चुनौती देने रिंग में आ धमके. ये वो वक्त था जब अली अपने पूरे रंग में आ चुके थे. इस मैच में अली ने लिस्टन को पहली ही बाउट में नॉकआउट कर दिया.
इसे मोहम्मद अली की नैतिकता की सबलता कहें या विरोध की प्रबल भावना, जब वियतनाम युद्ध के दौरान उन्होंने युद्ध में भाग लेने से इनकार कर दिया. जबकि उनको पता था कि इनकार के बाद उन्हें सजा भी भुगतनी पड़ सकती है. ये सजा सामाजिक बहिष्कार से लेकर कानूनी तक हो सकती थी.
1967 में जब अमेरिका वियतनाम युद्ध में उलझा हुआ था. ये वो वक्त था जब मुट्ठी भर वियतनामी लोगों ने तकनीकी रूप से अपने से कहीं कुशल अमेरिकी सेना को नाकों चने चबवा रखे थे. इस वक्त पूरी दुनिया में दबे होंठ अमेरिका की इस कार्रवाई का विरोध हो रहा था. अमेरिका में सभी इस युद्ध के समर्थन में नहीं थे.
28 अप्रैल 1967 को एक बयान में उन्होंने अमेरिकी सेना की ओर से यह कहते हुए लड़ने से इनकार कर दिया कि मेरी निर्दोष वियतनामियों से कोई लड़ाई नहीं है. इसके बाद उनके इस वक्तव्य का पूरे अमेरिका में विरोध हुआ. लगभग सभी अमेरिकी प्रांतों के खेल आयोगों ने उन्हें अपने यहां बैन कर दिया.
उन पर सेना की ओर से लड़ने के इनकार पर मुकदमा चलाया गया. इसमें 20 जून 1967 को उनके पांच साल की सजा सुनाई गई. हालांकि वो बेल पाने में कामयाब रहे और जेल में रहने की नौबत नहीं आई. इस दौरान उनके चार साल गुमनामी में बीते.
मोहम्मद अली ने भले ही कुछ साल गुमनामी में गुजारे, लेकिन अब तक वो ना सिर्फ अमेरिका बल्कि दुनिया भर के अश्वेतों के रोल मॉडल बन चुके थे. वो इस समय अमेरिका में विरोध का चेहरा थे.
जनवरी 1980 में मोहम्मद अली भारत आए थे. अपने भारत आगमन के दौरान 27 जनवरी 1980 को अली ने दिल्ली में एक प्रदर्शनी मैच में भाग लिया था. इस मैच में उनके सामने थे उस समय के राष्ट्रीय हेवीवेट चैंपियन कौर सिंह. कहते हैं कि इस मैच में अली ने कौर सिंह को सिर्फ एक हाथ से हरा दिया. कौर ने खुद स्वीकार किया कि अली के मुक्के बहुत दमदार थे. इस मैच के दौरान अली रिंग के पास इकट्ठा युवकों से लगातार बातें कर रहे थे, जबकि एक साथ अपना बचाव कर रहे थे और दूसरे हाथ से कौर पर मुक्के भी बरसा रहे थे.
मुहम्मद अली को उनके अंतिम समय में पर्किंसन बीमारी हो गई थी. इस बीमारी में स्मृति लोप हो जाता है. इसे उनके जीवन की विडम्बना ही कहेंगे कि जो व्यक्ति अपने जवानी के दिनों में अपनी बुरी स्मृति को मिटाता रहा उसके बुढ़ापे में जवानी की अच्छी स्मृतियां अपने आप मिट गईं.
शायद अली को ये बीमारी उन चोटों की वजह से हुई जो उन्होंने विरोधियों के मुक्कों से खाई थी. वे जीवन भर लड़ते रहे, रिंग में अपने विरोधियों से, बाहर सामाजिक रूढ़ियों से और जीवन के अंत में बीमारी से लड़ते-लड़ते तीन जून 2016 को उनकी मृत्यु हो गई.
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