नसीरुद्दीन की फिक्र में एक आम इंसान का चेहरा है


open hate and voilence is troubling says nasiruddin shah

 

इन दिनों जब भारत में बोलने की आज़ादी पर सवाल खड़े हो गए हैं. देश के बड़े मीडिया घराने भी अक्सर बोलने की आजादी के खिलाफ मुहिम में शामिल दिखते हैं.

ऐसे में हाल ही में आई इतिहासकार इरफ़ान हबीब की किताब में दिए गए ब्योरे काफी मानीखेज लगते है. प्रोफेसर हबीब अपनी किताब ‘इंडियन नेशनलिज्म: द एसेंशियल राइटिंग्स’ में कहते हैं कि सांस्कृतिक एकता की पुकार ने हमें अति-राष्ट्रवाद की तरफ धकेल दिया है. एक उन्माद चारों ओर बरपा है, जिससे हमारे समाज के ताने-बाने के ख़त्म हो जाने का खतरा पैदा हो गया है. एक ऐसा दोहरापन फैल चुका है, जो राज्य और राजनीति को लेकर आपको यह बताने पर तुला रहता है कि आप राष्ट्रवादी हैं या राष्ट्र-विरोधी.

इस रात की सुबह नहीं?

इस दौर में हर संवेदनशील कलम यह दोहराने पर मजबूर है कि एक खौफनाक मंजर ने हमें हर तरफ से साया कर लिया है. यह देश पिछले कुछ सालों में अंधकार युग की लौटता हुआ जान पर रहा है, जहां बौद्धिकता के सिर पर मौत नाचती है.

बौद्धिकता विरोधी होने का यह दौर डाभोलकर, कलबुर्गी, पंसारे और गौरी लंकेश की हत्या कर दिए जाने का गवाह बना है. वैसे कमोबेश यही हाल पूरी दुनिया में हावी है. अमेरिका वालों ने डोनल्ड ट्रंप को इसलिए चुना कि नस्लवाद के विरोधी स्वर को वो बर्दास्त नहीं कर पा रहे थे. तुर्की और ब्राज़ील के राष्ट्रपति भी इसी की एक मिसाल हैं.

नसीरुद्दीन शाह को गुस्सा क्यों आता है?

नसीरुद्दीन शाह की अपनी पहचान सार्थक सिनेमा के एक बेहतरीन अदाकार के रूप में हैं. सिनेमा में नसीर के सफ़र की शुरुआत कला फिल्म आंदोलन के दौर से शुरू हुई. इस आंदोलन की जिद्द थी कि मुख्यधारा में ऐसी समानांतर फ़िल्में बनाई जाए, जिसमें आम आदमी के जीवन की पहचान, जद्दोजहद और उसका दर्द शामिल हो.

इस सिलसिले में नसीरुद्दीन शाह की अदाकारी ने सिनेमा की दुनिया को कई अच्छी फ़िल्में दीं. जाने भी दो यारों, मासूम, स्पर्श, आक्रोश, निशांत, पार्टी, मिर्च मसाला, मोहन जोशी हाजिर हो, अल्बर्ट पिंटो को गुस्सा क्यों आता है, कथा, इजाज़त, आघात, मंडी, अर्धसत्य जैसी उस दौर की बेहतरीन फ़िल्में उनके नाम हैं. यह लिस्ट और भी लंबी हो सकती है, अगर बाद की फिल्मों की भी गिनती की जाए. इनमें सरफ़रोश, मक़बूल, अ वेडनेसडे, परजानिया, इक़बाल आदि जैसी कई फ़िल्में शामिल हैं.

यह बात बहुत सही है कि फिल्मों में उनकी मेहनत, लगन, और पेशे को लेकर ईमानदारी की वजह से इस देश की जनता ने उन्हें बेशुमार इज्जत और प्यार दिया. लेकिन आज यही सब कुछ उनके खिलाफ कर दिए जाने की कोशिश हो रही है.

इन दिनों उनके एक वीडियो पर हंगामा मचा है. इसमें वो कहते नज़र आ रहे हैं कि “समाज में नफरत का जहर फैल चुका है. इसके जिन्न को दुबारा बोतल में बंद करना बहुत मुश्किल होगा. खुली छूट मिल गई है कानून को अपने हाथ में लेने की. कई इलाकों में हम लोग देख रहे हैं कि एक गाय की मौत को ज्यादा अहमियत दी जाती है- पुलिस ऑफिसर की मौत के मुकाबले.”

उन्होंने आगे कहा- हमने अपने बच्चों को मजहबी तालीम बिलकुल नहीं दी. कल को अगर उनको एक भीड़ में घेर लिया कि तुम हिंदू हो या मुसलमान हो तो उनके पास तो कोई जवाब ही नहीं होगा. इस बात की फिक्र होती है. हालत जल्दी सुधरते तो नज़र नहीं आते, इन बातों से मुझे डर नहीं लगता है गुस्सा आता है. मैं चाहता हूं कि हर सोच वाले इंसान को गुस्सा आना चाहिए. हमारा घर है, हमें कौन निकल सकता है यहां से.

नसीरुद्दीन शाह ने यह बयान देश में कुछ सालों से बढती जा रही असहिष्णुता और बुलंदशहर में हुई हिंसा के मद्देनज़र दिया. उनके इस बयान से एकदम साफ़ है कि वो अपनी एक सोच और नजरिया रखते हुए देश की हालत को लेकर फिक्रमंद हैं.

लेकिन इस देश का एक तबका जो अभिव्यक्ति की आज़ादी का गला घोंट देना चाहता है, उनके इस बयान को लेकर उन्हें राष्ट्रविरोधी करार देने पर तुला है.

बड़े-बड़े मीडिया हाउस के बड़े-बड़े एंकर जो इस हिंदूत्ववादी राजनीति के लिए होने वाले प्रोपगेंडा का हिस्सा हैं, इस अदाकार के नजरिए पर उंगली उठा रहे है. वे कान फोड़ने वाली आवाज़ में चीख कर कह रहे हैं कि नसीरुद्दीन को डर नहीं लग रहा, बल्कि वो ड्रामा कर रहे हैं. लेकिन ये एंकर और इनके साथ खड़ी जमात इस कदर गुमराह है कि वो शायद डर का मनोविज्ञान समझना नहीं चाहती है. भीड़ जो अक्सर हमलावर हो जाया करती है, ठीक वैसे ही काम करती है जैसा नासिर अपने इंटरव्यू में कह रहे हैं.

भीड़ क्लोरोफोर्म सूंघती है

आज भीड़ और उसको उकसाने वाली राजनीति उन तमाम लोगों को डराती है जो उनके खिलाफ खड़े हैं. इस देश का अल्पसंख्यक, दलित और बौद्धिक तबका इसके निशाने पर हैं. यह डर हर एक आम इंसान के चेहरे पर साफ़ दिखाई पड़ता है, जो इसका हिस्सा नहीं है. किसी अख़लाक़ को इस शक़ में मौत के मुंह में पहुंचा दिया जाता है कि उसके फ्रिज में गाय का मांस हो सकता है. किसी रकबर को लव जिहाद के इल्जाम में बेरहमी से मार दिया जाता है और उसके कातिल को शहीद बताने वाले हजारों की तादाद में अदालत को कब्जे में कर भगवा झंडा फहरा देना चाहते है. कोई जुनैद भीड़ में इसलिए मार दिया जाता है कि वो उसका हिस्सा नहीं है.

अगर यह भीड़ इसी तरह बेलगाम बढ़ती रही तो सब कुछ ख़त्म हो जाना तय हो जाएगा. गांधी और नेहरू के सपनों का यह देश लथपथ हो मिट जाए, इससे पहले भीड़ को उस रजनीति से अलग करना होगा, जो उससे इशारे में बात कर रही है, उसे उकसा रही है.


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