जन-स्वास्थ्य के क्षेत्र में भारत को आत्मनिर्भर बनाया नेहरू ने


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देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की विरासत पर चर्चा करना आज प्रासंगिक हो गया है. कारण यह है कि जब पिछले 70 और 55 सालों का हिसाब मांगा जाता है तो नेहरू पर भी फोकस रहता है. अब तो बात इतनी बढ़ गई है कि नेहरू के घनिष्ठ राजनीतिक सहयोगी सरदार पटेल को उनके खिलाफ खड़े करने की कोशिश जारी है. यहां पर हम स्वास्थ्य के क्षेत्र में नेहरू के योगदान पर एक नज़र डालेंगे. वैसे उनका योगदान इतना विस्तृत है कि एक लेख में उसकी चर्चा करना संभव नहीं है. नेहरू ने जनता को विदेशी दवा कंपनियों के मकड़ जाल से निकालने के लिए इंडियन ड्रग्स एंड फॉर्मास्युटिकल्स लिमिटेड (आईडीपीएल) और हिन्दुस्तान एंटीबायोटिक जैसे रत्न दिए.

नेहरू ने कहा था कि दवा उद्योग सार्वजनिक क्षेत्र में होना चाहिए. मुझे लगता है कि दवा उद्योग की प्रकृति ही ऐसी है कि इसे निजीक्षेत्र के हाथ में नहीं होना चाहिए. इस उद्योग में जनता का अत्याधिक शोषण किया जाता है. अपने इस दृष्टिकोण के अनुसार ही उन्होंने प्रयास किया और अप्रैल 1961 में आईडीपीएल की स्थापना तत्कालीन सोवियत संघ के सहयोग से किया. उससे पहले 10 मार्च 1954 को विश्व-स्वास्थ्य-संगठन और यूनिसेफ की मदद से हिन्दुस्तान एंटीबायोटिक की स्थापना की गई. बेशक, नेहरू देश में साम्यवादी या समाजवादी की स्थापना नहीं कर रहे थे. उनका राजनीतिक अर्थशास्त्र इन दोनों के बनिस्पत राजकीय पूंजीवाद के ज्यादा निकट था. उसके बावजूद भी उस समय और आज भी राजकीय पूंजीवाद जनता को राहत दिलवाने वाला कदम है. नेहरू के इस योगदान को समझने के लिए हमें उस समय के भारत के दवा उद्योग और उससे जनता पर पड़ने वाले प्रभाव पर ध्यान केन्द्रित करना होगा.

आजादी के पहले और बाद के दौर में विदेशी दवा कंपनियां भारत से रॉ मटेरियल ले जाकर अपने देश में उनसे दवा बनाकर फिर भारत में उनका आयात करके दवा बेचा करते थे. जाहिर है कि ऐसी दवाएं महंगी हुआ करती थी. उस समय किए गए एक सर्वे से खुलासा हुआ था कि भारत में बिकने वाली एंटीबॉयोटिक दवा का दाम प्रति व्यक्ति आय के हिसाब से दुनिया के अन्य देशों की तुलना में काफी महंगा था. सरकार ने देखा कि उस समय विदेशी दवा कंपनियां एक एजेंट के समान कार्य कर रही हैं, वे विदेशों से बना बनाया माल लाकर भारत में बेच रही हैं.

नेहरू की पहलकदमी पर देश के निर्माण के लिए 1956 में इंडस्ट्रियल पॉलिसी रिजोल्यूशन संसद ने पास किया. जिसके अनुसार उद्योगों को तीन कैटेगरी में बांटा गया. पहले कैटेगरी में जिन उद्योगों को रखा गया वे सार्वजनिक क्षेत्र के लिए रिजर्व थी. दूसरे कैटेगरी में उन उद्योगों को रखा गया जिसमें निजीक्षेत्र को भी इज़ाजत दी गई लेकिन सार्वजनिक क्षेत्र के नेतृत्वकारी भूमिका का ऐलान किया गया. तीसरे कैटेगरी के उद्योगों को निजीक्षेत्र के लिए रखा गया. दवा उद्योग के दूसरे श्रेणी के उद्योगों में जगह दी गई. आईडीपीएल और हिन्दुस्तान एंटीबायोटिक के कारण ही भारतीय दवा उद्योग की तकनीकी क्षमता का विकास हुआ देश में बल्क ड्रग बनने लगे.

हिन्दुस्तान एंटीबायोटिक को देश की पहली सार्वजनिक क्षेत्र की दवा कंपनी बनने का गौरव प्राप्त है. इस कंपनी ने देश में पेनीसीलिन, स्ट्रेप्टोमाइसिन, जेन्टामाइसिन और एमौक्ससीसिलीन जैसे एंटीबायोटिक का वाणिज्यिक उत्पादन शुरू किया जिससे विदेशी दवा कंपनियों से देश की निर्भरता कम होती गई. इसने मनुष्यों के फंगल इंफेक्शन के लिए हेमाइसिन और पौधों के फंगल इंफेक्शन के लिए एरियोफंजिन का आविष्कार किया.

इसी तरह से आईडीपीएल की स्थापना 1961 में हुई. इस दवा कंपनी के पास खुद का रिसर्च, उत्पादन, भंडारण और वितरण का विभाग था. आईडीपीएल ने वनरक्षक दवाओं के मामले में देश को आत्मनिर्भरता की ओर ले जाने का काम किया. इसका उद्देश्य मुनाफा कमाना नहीं देश के नागरिकों के लिए दवा की उपलब्धता सुनिश्चित करना था. आईडीपीएल ने स्वास्थ्य विभाग के कई कार्यक्रमों जैसे मलेरिया नियंत्रण, परिवार कल्याण कार्यक्रम और जनसंख्या नियंत्रण और निर्जलीकरण की रोकथाम के लिए दवाएं सरकार को उपलब्ध कराई. यहां पर यह कहना गलत न होगा कि देशी और विदेशी दवा कंपनियां जिनके लिए मुनाफा ही सब कुछ होता है वे ऐसे जनकल्याणकारी कार्यो से दूर ही रहीं.

नेहरू के बाद में खुद कांग्रेसी और अन्य सरकारों ने और उदारीकरण-निकरण-वैश्वीकरण की बयार ने देश के इन दोनों और दूसरे तीन सार्वजनिक क्षेत्र के दवा कंपनियों को मृतप्राय सा बना दिया. नतीजन देशी और विदेशी दवा कंपनियों की बन आई. गौरतलब है कि आईडीपीएल ने बीमार कंपनी में परिणीत हो जाने के बावजूद 1994 में प्लेग के प्रकोप से बचने के लिए पूरे देशवासियों के लिए टेट्रासाइकलिन दवा उपलब्ध करा दी थी. साल 2005 में महाराष्ट्र में भारी वर्षा के बाद फैलने वाले लेप्टोस्पोरिसिस के लिए भी डौक्सीसाइकलिन तुरंत उपलब्ध कराया था. आईडीपीएल के बारें में विश्व-स्वास्थ्य-संगठन ने टिप्पणी की थी कि आईडीपीएल ने मात्र दस वर्षो में उतना काम किया जितना दूसरे पचास वर्षो में करते.

नेहरू कालीन भारत की तुलना स्वास्थ्य के मामलों में आज के भारत से कीजिए. जेनेरिक दवा पर दावें किए जा रहे हैं. खुद प्रधानमंत्री मोदी ने जेनेरिक दवा का मुद्दा उठाया था. जबकि वास्तविकता के धरातल पर आप किसी भी दवा दुकान में जेनेरिक दवा नहीं पाएंगे. और जो कुछ भी जेनेरिक के नाम से बेचा जा रहा है उसका न तो दाम कम है उल्टे उस पर ब्रांडेड से भी ज्यादा मुनाफा कमाया जा रहा है. दरअसल, मुद्दा दवाओं के जेनेरिक या ब्रांडेड होने का नहीं होना चाहिए, मुद्दा होना चाहिए उच्च गुणवत्ता वाले और सस्ते दवाओं के सरल उपलब्धता का.

यदि वाकई में कोई सरकार देश की जनता को सस्ती और उच्च गुणवत्ता वाली दवा उपलब्ध कराना चाहती है तो उसे सबसे पहले देश के सभी सार्वजनिक क्षेत्र के दवा कंपनियों को समुचित पूंजी देकर उनका उद्धार करना चाहिए. लेकिन इसके उलट 28 दिसंबर 2016 को हुए केन्द्रीय कबीना की बैठक ने सरकारी दवा कंपनियों की जमीनों को बेचकर देनदारियां चुकता करने और मौजूदा कर्मचारियों को रुखसत करने के लिए व्हीआरएस देने का निर्णय लिया है. सभी देनदारियों को चुकता करने के बाद और कर्मचारियों को व्हीआरएस के माध्यम से हटाने के बाद इन सार्वजनिक क्षेत्र की दवा कंपनियां को रणनीतिक बिक्री के लिए तैयार किया जाएगा. इसके बाद 1 नवंबर 2017 को हुई कैबिनेट कमिटी ऑन इकोनॉमिक अफेयर्स ने मुनाफा कमाने वाली कर्नाटक एंटीबॉयोटिक एंड फॉर्मास्युटिकल्स को शत-प्रतिशत निवेश करने के लिए सैद्धांतिक मंजूरी दी है.

एक समय था जब सार्वजनिक क्षेत्र की दवा कंपनियां बल्क ड्रग बनाती थी लेकिन आज देश का दवा बाजार बल्क ड्रग के लिए 65 फीसदी से लेकर 85 फीसदी तक पड़ोसी देश चीन पर निर्भर है. यदि किसी दिन चीनी सरकार ने भारत से व्यापार करने पर प्रतिबंध लगा दिया तो देश में त्राहि मच सकती है.

बात की शुरुआत नेहरू युगीन भारत से की गई थी. आज उनके खिलाफ ‘वाट्सअप यूनिवर्सिटी’ से लेकर सोशल मीडिया में जो लोग आग उगल रहे हैं. उनसे सवाल है कि यदि वाकई में ‘सबका विकास’ करना है खासकर स्वास्थ्य के मामले में तो सबसे पहले सार्वजनिक क्षेत्र के दवा कंपनियों को पूरी ताकत से क्यों नहीं खड़ा किया जा रहा है. जनता को विदेशी महाकाय दवा कंपनियों के चुंगल से निकालना क्या एक जन-कल्याणकारी सरकार का दावा करने वालों के लिए जरूरी नहीं है. हर साल खबरें आती हैं कि देश के अडानी-अंबानियों की संपदा में कितना इज़ाफा हुआ है जबकि जनता बीमार होने पर इलाज़ के लिए दवा खरीदने के लिए तरस जाता है. क्या इसके बाद भी नहीं कहा जा सकता है कि नेहरू का कार्यकाल आज की तुलना में बेहतर था विशेषकर जन-स्वास्थ्य के मामले में?


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