शिक्षा में ‘नो प्रॉफिट नो लॉस’ के सिद्धांत से राष्ट्र को होगा ‘बड़ा नुकसान’


no profit and no loss theory in education will be disastrous for nation

 

‘नो प्रॉफिट नो लॉस’ इन शब्दों का प्रयोग एक प्रश्न के उत्तर में एक केंद्रीय मंत्री ने संसद में किया था. आप सोच रहे होंगे कि यह सवाल औद्योगिक या व्यावसायिक मुद्दों से संबंधित होगा और संबंधित मंत्री इसका जवाब दे रहे होंगे.

लेकिन आप आश्चर्यचकित ना हों, इन शब्दों का प्रयोग हमारे केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री, रमेश पोखरियाल ने उस वक्त किया जब वे केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड (सीबीएसई) द्वारा परीक्षा शुल्क में बढ़ोतरी को सही ठहराने के लिए जवाब दे रहे थे. वे 21 नवंबर को राज्यसभा में पूछे गए एक लिखित प्रश्न का उत्तर दे रहे थे. ‘नो प्रॉफिट नो लॉस’ सिद्धांत ना केवल हमारे मानव संसाधन विकास मंत्री बल्कि केंद्र सरकार के शिक्षा प्रति दृष्टिकोण को दर्शाता है.

मानव संसाधन विकास मंत्री के यह शब्द इस तथ्य का खुलासा करते हैं कि सरकार शिक्षा को एक वस्तु के रूप में देखती है और इसे भी वह लाभ और हानि के बाजारु सिद्धांत पर मापना चाहती है.

यहां यह उल्लेख करना महत्वपूर्ण है कि अगस्त महीने में सीबीएसई ने कक्षा 9 और 11 के लिए पंजीकरण शुल्क और बारहवीं की बोर्ड की परीक्षा शुल्क में बढ़ोतरी की घोषणा की थी. सामान्य श्रेणी के छात्रों के लिए परीक्षा शुल्क 750 रुपये से बढ़ाकर 1,500 रुपये और अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के छात्रों के लिए शुल्क 375 रुपये से बढ़ाकर 1200 रुपये कर दिया गया था. परीक्षा शुल्क में बढ़ोतरी को सही ठहराने के लिए यह तर्क भारत की संसद में दिया गया है. JNU, IIT, IIMS और केंद्रीय विश्वविद्यालयों से लेकर AIMS जैसे विभिन्न शिक्षण संस्थानों में शुल्क वृद्धि के पीछे यही विचार काम कर रहा है.

मूल प्रश्न यह है कि ‘नो प्रॉफिट नो लॉस’ का क्या अर्थ है? इसका मतलब स्पष्ट है कि सरकार शिक्षा पर कुछ भी खर्च नहीं करना चाहती है और छात्रों को ही शिक्षा की लागत का खर्च उठाना पड़ेगा. अगर छात्र शिक्षा का खर्च नहीं उठाएंगे तो सरकार घाटे में जाएगी. इसलिए छात्रों की फीस से शिक्षण संस्थान चलेंगे. यह केवल परीक्षा शुल्क की बात नहीं है बल्कि शिक्षा की सम्पूर्ण लागत की बात है.

क्या आम परिवारों के छात्र अपनी शिक्षा का खर्च उठा सकते हैं या एक छात्र को अपनी शिक्षा का खर्च उठाना चाहिए? यह एक ऐसी बहस है जो सिद्धांत रूप में तय है, लेकिन नवउदारवादी शासन में बाजार की ताकतों के हुक्म के तहत कभी इसका पालन नहीं किया गया. यह तर्क पागलपन ही लगता है कि छात्रों को शिक्षा का खर्च उठाना चाहिए. यह राज्य (सरकार) की जिम्मेदारी है कि सरकार सभी को निशुल्क शिक्षा प्रदान करे. शिक्षा केवल व्यक्ति की नहीं बल्कि समाज की आवश्यकता होती है. शिक्षा के बिना, समाज वांछित दिशा में प्रगति नहीं कर सकता. आधुनिक समाज में शिक्षा बुनियादी जरूरत है.

इसी कारण, यह चुनी हुई सरकारों के माध्यम से समाज की जिम्मेदारी है कि वे सभी को शिक्षा प्रदान करें, सिर्फ चंद लोगों को नहीं. यह केवल एक सार्वजनिक शिक्षा प्रणाली के जरिए ही हो सकता है, जो छात्रों के बीच उनकी आर्थिक और सामाजिक स्थिति के आधार पर भेदभाव नहीं करती है.

तथाकथित ‘नो प्रॉफिट नो लॉस’ का सिद्धान्त मूल रूप से आम छात्रों के लिए एक बड़ा नुकसान वाला है. ‘नो प्रॉफिट नो लॉस ‘का अर्थ है कि किसी पाठ्यक्रम/परीक्षा का शुल्क उस पाठ्यक्रम या परीक्षा को चलाने की लागत के बराबर होना चाहिए. यह कभी भी छात्रों की आर्थिक और सामाजिक परिस्थितियों को ध्यान में नहीं रखता कि क्या वे इस सौदे को करने के लिए इस राशि का भुगतान करने में सक्षम हैं. हमारे मानव संसाधन मंत्री के लिए इसमें कोई नुकसान नहीं.

सरल शब्दों में कहे तो, केवल उन छात्रों को शिक्षा मिलेगी जो इस लागत का भुगतान कर सकते हैं, बाकी छात्रों को केवल शिक्षण संस्थानों की दीवारों के बाहर से झांकना पड़ेगा. यह समान शिक्षा के उद्देश्य को पराजित करता है और शिक्षा को उन लोगों के लिए विशिष्ट बनाता है जो उसकी लागत का भुगतान कर सकते हैं. यह छात्रों के बड़े हिस्से को बाजार की दया के हवाले करने वाला सिद्धान्त है. गरीब वंचित छात्रों के पास अपनी शिक्षा छोड़ने के अलावा कोई विकल्प नहीं रह जाएगा.

शिक्षा की पहुंच को बढ़ाने और ज्यादा छात्रों को दाखिला देने के लिए जब संस्थानों के विस्तार की जरूरत थी, तब भी इस जरूरत को पूरा करने के लिए विश्वविद्यालयों और कॉलेजों में स्व-वित्त पोषित पाठ्यक्रमों को शुरू करने के लिए यही तर्क दिया गया था. यही कहा गया था कि ज्यादा छात्रों के दाखिले के लिए नए कोर्स शुरू करने के लिए या मौजूदा पाठ्यक्रमों में सीटें बढ़ाने के लिए जरूरी धन की सरकार के पास कमी है. इसलिए नए स्वयं-वित्तपोषित पाठ्यक्रम चलाए जाएंगे या मौजूदा पाठ्यक्रमों में स्व-वित्तपोषण के तहत सीटें बढ़ाई जाएंगी.

समस्या का नीतिनिर्धारकों के पास बस यही समाधान था कि उन छात्रों को इन पाठ्यक्रमों के तहत दाखिला दिया जाए जो इसकी लागत का भुगतान कर सकते हैं. ये पाठ्यक्रम लाभ के लिए नहीं होंगे, लेकिन छात्र मूल लागत को वहन करेंगे और संस्थानों को भी नुकसान से बचाया जा सकेगा. लेकिन पिछले दो दशकों के हमारे अनुभव से पता चलता है कि सभी विश्वविद्यालय और महाविद्यालयों में अधिकांश नए पाठ्यक्रम विशेष रूप से तथाकथित व्यावसायिक पाठ्यक्रम इस श्रेणी के तहत खोले गए हैं. इस श्रेणी के तहत ही पहले से चल रहे पाठ्यक्रमों में सीटें बढ़ाई गई हैं.

आलम यह है कि कई शिक्षण संस्थानों में इनकी संख्या सामान्य सीटों (मुफ्त या काम फीस वाली) से भी ज्यादा हो गई है. उदाहरण के लिए, हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय के प्रबंधन संकाय में, इस अवधारणा को पिछले दशक के दौरान लागू किया गया था. वर्तमान में वहां एमबीए में 30 अनुदानित और 60 स्व-वित्तपोषित सीटें हैं. जिन आवेदकों को परीक्षा में 31 से ऊपर का रैंक मिलता है और अगर वह स्व-वित्तपोषित सीटों की भारी फीस का भुगतान नहीं कर सकते हैं, तो वह इस पढ़ाई से महरूम रह जाएंगे और उनसे कम अंक वाले छात्र प्रवेश लेते हैं जो इस महंगी एमबीए का खर्च उठा सकते हैं. ‘नो प्रॉफिट नो लॉस’ का यह सिद्धांत एक सार्वजनिक विश्वविद्यालय में MBA की 60 स्व-वित्तपोषित सीटों को समृद्ध पृष्ठभूमि के छात्रों के लिए आरक्षित करता है. यही स्तिथि ज्यादातर संस्थानों की है.

वर्तमान समय में भारत की अधिकांश जनता स्वस्थ जीवन जीने के लिए अपनी मूलभूत आवश्यकताओं के लिए रोज संघर्ष कर रही है और हम शिक्षा के उचित दाम पर तर्क कर रहे हैं. दरअसल वह लोग जो कहते हैं कि शिक्षा का उचित दाम या फीस होनी चाहिए मूल रूप से बाजार के इस विचार को ही मजबूत कर रहे हैं. शिक्षा के लिए उचित फीस का मतलब है कि छात्रों को उसका भुगतान करना होगा. जब यह कहानी शुरू हो जाती है तो इस रात की फिर कोई सुबह नहीं है. शिक्षा की यह उचित फीस कौन तय करेगा? कौन तय करेगा कि कौन किस तरह की शिक्षा लेने में सक्षम है? बाजार ही शिक्षा की लागत को तय करेगा.

यहां से शुरू होता है शिक्षा के लिए कर्ज. कर्ज का तर्क कि जो इस उचित फीस को भी वहन नहीं कर सकता उसके लिए सरकार ऋण उपलब्ध कराएगी. यह तर्क एक बार फिर से वास्तविकता से परे है. शिक्षा के लिए ऋण भी उच्च-मध्यम वर्गीय सोच है. लेकिन ग्रामीण भारत की विशाल गरीब जनता और शहरी क्षेत्रों का विशाल सर्वहारा वर्ग शिक्षा के कर्ज के बारे में सोच भी नहीं सकता हैं. यहां तक कि उच्च-मध्यवर्ग के छात्र जिन्होंने सार्वजनिक क्षेत्र के शैक्षणिक संस्थानों की उच्च फीस का भुगतान करने के लिए ऋण लिया है, वे भी संकट का सामना कर रहे हैं. अतिरिक्त या छिपी हुई लागत उन्हें शिक्षा छोड़ने या आत्महत्या करने के लिए मजबूर कर रही है.

शिक्षा राष्ट्र के निर्माण में केंद्रीय भूमिका निभाती है इसलिए इसके लाभ का मूल्यांकन मौद्रिक संदर्भ में नहीं किया जा सकता है, यह बात समझने में हमारे बुद्धिमान शिक्षा मंत्री नाकामयाब रहे हैं. जब बाजार सरकार की सभी नीतियों को तय कर रहा है, तो यह स्वाभाविक है कि शिक्षा की नीति भी लाभ के अधिकतमकरण से निर्धारित होगी. हम नीति निर्माताओं को समाज में शिक्षा की इस अवधारणा को लागू करने अनुमति नहीं दे सकते हैं. शिक्षा को वस्तु के रूप में नहीं माना जा सकता है और कोई भी व्यावसायिक मॉडल शिक्षा की उपयोगिता को सिद्ध नहीं करता है. ऐसा होने पर हमारी प्रगति की दिशा उलट हो जाएगी. भारत की बहुसंख्यक जनता को एक सार्वजनिक क्षेत्र की आवश्यकता है जो समाज और देश के लिए भी लाभदायक है.


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