अब क्या गांधी के लोग भी निशाने पर हैं?


FIR against Gandhian activist Kumar Prashant, accused of defaming Savarkar

 

गांधी पीस फाउंडेशन के अध्यक्ष कुमार प्रशांतजी ने हाल ही में गांधीकथा का पाठ शुरू किया है. गांधीजी के पांचवे पुत्र माने जाने वाले उनके सचिव महादेव देसाई के पुत्र नारायण भाई अपनी गांधीकथा के लिए विख्यात थे.

2002 में गुजरात दंगों से व्यथित नारायण भाई ने गांधीजी को लोकशैली में जन-जन तक पहुंचाने के लिए गांधीकथा का सहारा लिया था. लेकिन 2015 में उनके निधन के बाद गांधीकथा की परंपरा की रिक्ति को कुमार प्रशांत जी ने भरने का प्रयास किया है.

16 से 18 अगस्त के बीच कुमार प्रशांत ओडिशा सरकार द्वारा गठित महात्मा गांधी की 150 जयंती की आयोजन समिति के बुलावे पर तीन-दिवसीय गांधीकथा पाठ के लिए भुवनेश्वर में थे. इस कार्यक्रम की मीडिया रिपोर्ट के आधार पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के दो सदस्यों के उनके खिलाफ अलग-अलग पुलिस स्टेशन में एफआईआर लिखवाई हैं. उनके खिलाफ आरोप लगाया गया है कि उन्होंने सावरकर के विरुद्ध दुष्प्रचार किया और जम्मू कश्मीर की जनता को भड़काने का काम किया है.

एक एफआईआर कंधमाल जिले में और दूसरी एफआईआर कटक जिले में की गई है. दो अलग-अलग जिलों में एक ही मामले में एफआईआर करने के पीछे मंशा साफ है. सच बोलने वाले व्यक्ति को कोर्ट-कचहरी के चक्कर लगवाकर इतना परेशान कर दिया जाए कि वो इतिहास के इन आयामों पर बोलने से तौबा कर ले. आरएसएस के एक प्रवक्ता ने बड़ी शान से इन दोनों एफआईआर करने वाले लोगों को आरएसएस का स्वयंसेवक बताया है.

बहुत दिलचस्प है कि मूल रूप से आरएसएस की आपत्ति है कि कुमार प्रशांत ने ‘वीर’ सावरकर को कलंकित किया है. कुमार प्रशांत ने अपनी इस कथा के दौरान कहा था कि भारतीय स्वाधीनता संघर्ष में सावरकर की कोई भूमिका नहीं रही और अंडमान की सेल्युलर जेल से निकलकर सावरकर अंग्रेजों के सहयोगी हो गए थे.

दरअसल, गांधीजी की साम्प्रदायिकता के विरुद्ध संघर्ष और उनकी हत्या के अलावा गांधी हत्या की साजिश रचने के सम्बन्ध में हाल के दिनों में पहली बार गांधीवादी आक्रामक मुद्रा में आए हैं. बार-बार गांधीजी की हत्या के सत्तरवें साल में उनकी इस शहादत को याद करते हुए देश की एकता और अखंडता को अक्षुण्ण रखने की बात की जा रही है.

कुमार प्रशांत गांधी शान्ति प्रतिष्ठान के अध्यक्ष होने के अलावा गांधीमार्ग नामक पत्रिका के सम्पादक भी हैं. पत्रिका के मई-जून 2019 के अंक की कवर स्टोरी का शीर्षक है, “हे राम! अकथनीय सत्य का ताप.” इस अंक में मूलतः दो लेख हैं: पहला तकरीबन पचपन पन्नों का एक लंबा लेख है जो मूलतः जेम्स डब्ल्यू डगलस की “अनस्पीकेबल” सीरीज का संक्षिप्तीकरण है.

‘अनस्पीकेबल’ दुनिया भर में हुई राजनीतिक हत्याओं के रहस्य से पर्दा उठाती हुई एक साहसिक सीरीज है. 2008 में आई पहली सीरीज जॉन एफ केनेडी की हत्या पर आधारित है और डगलस ने दूसरी सीरीज के लिए महात्मा गाँधी की हत्या को चुना. इस लेख से यह एकदम स्पष्ट हो जाता है कि आख़िरकार कौन-सी ताकतें गांधीजी की हत्या की साजिश रच-बुन रही थीं.

गांधीमार्ग के इस अंक की लगभग पचास हजार प्रतियां एक अभियान बनाकर देशभर में बेची जा रही हैं. एक पत्रिका की दृष्टि से यह संख्या अभूतपूर्व है और अभी भी यह सिलसिला अनवरत जारी है. संभवतः यही वो ग्रंथि है जो कुमार प्रशांत के ऊपर हुए आरएसएस की ओर से किए गए एफआईआर में छुपी है.

दरअसल, गांधीजी से आरएसएस का डर अब सामने आ रहा है. जब तक आरएसएस गांधीजी को अपना बनाने का प्रयास करे और बनावटी गांधीवादी तटस्थता का चोला ओढ़कर उनके साथ फोटो खिंचवाएं— तब तक सब ठीक है. लेकिन कुमार प्रशांतजी जैसा कोई खरा गांधीवादी अगर गांधीजी की हत्या की बात करे तो उसके खिलाफ आरएसएस के लोग एक नहीं दो-दो एफआईआर कर देते हैं.

आपातकाल-विरोधी आंदोलन के बाद आम तौर पर गांधीवादी नेटवर्क राजनीतिक मुद्दों से दूर छिटक गया. किसी भी तरह के विवादित विषय पर गांधीवादी अपनी निष्क्रिय तटस्थता के लिए पहचाने जाने लगे. यही वजह है कि तमाम गांधीवादी आज आरएसएस के लोगों के बुलावे पर उनके कार्यक्रमों में जाने से परहेज नहीं करते. सत्ता के करीब रहने के सुख में न तो उनको गांधी याद आते हैं न साम्प्रदायिकता के विरुद्ध उनकी प्रतिबद्धता.

इसलिए फिलहाल गांधीजी की राह चलने वाले बहुत कम लोग हैं जो विनम्रतापूर्वक सच बोलने का साहस करते हों. कुमार प्रशांत उनमें से एक हैं. हाल तक गांधीवादियों पर किसी भी तरह के हमले से संघ आम तौर पर बचता रहा है. लेकिन इस बार प्रचंड बहुमत मिलने के बाद उनको निशाना बनाकर यह इशारा किया जा रहा है कि अब गांधीवादी भी नहीं बख्शे जाएंगे.

मान लीजिए अगर आरएसएस को इस व्याख्या से कोई आपत्ति है तो उनके पास अपना मत प्रस्तुत करने के हजार माध्यम हैं. इतिहास के मामलों को इतिहास के मैदान में निपटने से आरएसएस हमेशा बचता रहा है. ऐतिहासिक तथ्यों के अभाव में या तो वो पूरी तरह व्याख्या पर निर्भर रहते हैं या परसेप्शन पर. लेकिन थाना-पुलिस-कचहरी की शरण में जाने का अर्थ सच बोलने वालों को मुंह सिल लेने की धमकी देना है.

लेकिन आरएसएस को यह समझना चाहिए कि सच बोलने की हिम्मत गांधीजन होने की पहली शर्त है. गांधीजी का मूलमंत्र ही अभय है जिसने यह मंत्र अपने हृदय में धारण नहीं किया, वो गांधीवादी नहीं सिर्फ खद्दरधारी हो सकता है. जो किसी भी सत्ता या स्वार्थवश सच बोलने से डर गया, गाँधी का अंश उसके भीतर लेशमात्र नहीं है.

इस बहस में गांधीवादियों की ओर से किसी से भी किसी भी प्रकार की घृणा या हिंसा का भाव नहीं है. गांधी के लोग तो क्षमा और प्रेम के लोग हैं. गांधीजी ही क्यों हमारा भी बस चलता तो गोडसे को क्षमा कर अपने हत्यारे से प्रेम करते. लेकिन इन हत्या की साजिश रचने वाली सोच गांधी के देश की हत्या भी करना चाहती है, लोगों को यह बताना कोई अपराध नहीं है. वैसे भी गांधी के लोग एक और सविनय अवज्ञा आंदोलन के इंतजार में हैं.

(लेखक स्वाधीनता संघर्ष के प्रतिनिधि संगठन राष्ट्रीय आंदोलन फ्रंट के संयोजक हैं और दिल्ली विश्वविद्यालय के देशबंधु कॉलेज में इतिहास के प्रवक्ता हैं.)


Big News