स्त्री-लेखन की युगांतकारी परिघटना थीं कृष्णा सोबती


obituary and contribution of krishna sobti

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स्त्री विमर्श की लेखकीय-आलोचना खुद को उनसे जोड़कर देखती है लेकिन वे अपने लेखन को स्त्रीविमर्श के खांचे में सीमित किए जाने के पक्ष में नहीं थीं. इसके बावजूद कृष्णा सोबती स्त्रीवादी लेखन की एक परिघटना थीं.

हिंदी साहित्य-लेखन में पुरुषों की चहल-पहल अधिक हुआ करती रही है-स्त्रियाँ उनके लेखन की आश्रय होती रही हैं-यानी उतनी ही जितना लेखक उन्हें गढ़ता हो या उतना जितने से वे पुरुष के लेखन के लिए प्रेरणा पैदा कर पा रही हों. कृष्णा सोबती का 60 के दशक का लेखन इस मायने में एक युगांतकारी परिघटना बन जाती है. वे महादेवी वर्मा के बाद स्त्री-लेखन के लिए एक दूसरे मील-स्तम्भ के रूप में परिदृश्य पर आती हैं-अपने उपन्यास ‘मित्रो मरजानी’ (1966) के साथ. आज हिंदी साहित्य में स्त्री-लेखन खुद को उनसे नाभि-नाल बद्ध देखता है.

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ऐसा नहीं था कि उन्होंने इसके पहले कुछ नहीं लिखा था. उनका उपन्यास ‘डार से बिछड़ी’ 1958 में प्रकाशित हो चुकी थी. उनकी ‘लामा’ आदि कहानियां भी 19 साल की उम्र में प्रकाशित हो चुकी थीं. एक उपन्यास भी 1952 में प्रकाशित हुआ, जिसे उन्होंने प्रकाशक से वापस मांग लिया था और वही आगे चलकर सुधार के साथ ‘जिन्दगीनामा’ नाम से 1979 में छपा. लेकिन ‘मित्रो मरजानी’ ने हिंदी साहित्य में एक शिफ्ट पैदा किया- स्त्री भाषा और कथ्य में अपने पूरे वजूद के साथ उपस्थित होती है. जिसे बोल्ड लेखन कहा गया वह दरअसल स्त्री की अपनी अस्मिता, अपनी यौनिकता का स्वीकार और उद्घोष था, स्त्री साहित्य में गढ़ी गयी मूर्ति से आगे बढकर कृष्णा सोबती के लेखन में हाड़-मांस की एक शख्सियत की तरह सामने आई, जिसकी अपनी इच्छाएं हैं, कामना और वासना है-स्त्री-लेखन का स्वरूप इसके साथ बनता है, जिसमें स्त्री ‘छवि’ होने से इनकार कर देती है, मात्र प्रेरणा होने से.

इसके पहले महादेवी वर्मा के गद्य में ही एक हद यह संभव हुआ था, उनकी कविताओं से अलग. लेकिन कृष्णा सोबती उससे आगे का विस्तार बनकर आयी. यह एक शुरुआत थी स्त्री-लेखन और भाषा में ‘वर्ज्य’ के प्रतिरोध का, जिसे आगे की पीढ़ी ने बखूबी अपने लेखन की विशेषता बनाया. परिवार को तोड़ने और परिवार को जोड़ने के द्वंद्व में फंसी स्त्री एक व्यक्ति के रूप में सामने आती चली गयी-मृदुला गर्ग, मैत्रेयी पुष्पा आदि लेखिकाएं हमराह हुईं और आज की पीढ़ी की अनेक लेखिकाएं भी इस बेलीक लेखन के लीक पर चल रही हैं.

1925 में पाकिस्तान के गुजराती हिस्से में पैदा हुई कृष्णा सोबती ने कॉलेज की अपनी पहली पढ़ाई लाहौर में की थी और विभाजन के बाद वे भारत आ गयी थीं. उन्होंने विभाजन की त्रासदी बहुत करीब से देखी थी. उनका उपन्यास ‘जिन्दगीनामा’ 19वीं दशक में अविभाजित पंजाब के समाज और संस्कृति का चित्र है. हालांकि इस उपन्यास के प्रसंग में भी उन्होंने अमृता प्रीतम से लम्बी लड़ाई लड़ी. दरअसल 1979 में ‘जिंदगीनामा’ के प्रकाशन के बाद अमृता प्रीतम का एक उपन्यास ‘हरदत्त का जिंदगीनामा’ आया. शीर्षक के कॉपीराइट को लेकर उन्होंने अमृता प्रीतम के खिलाफ मुकदमा दायर किया था.

विभाजन की त्रासदी को नजदीक से देखने वाली लेखिका ने इसे उपन्यास के रूप में ‘गुजरात पाकिस्तान से गुजरात हिन्दुस्तान’ लिखा. विभाजन की त्रासदी को सबसे अधिक भारत-पाकिस्तान की महिलाओं और बच्चों ने झेला-हत्या, बलात्कार, विस्थापन. इस उपन्यास को उर्वशी बुटालिया की किताब ‘द अदर साइड ऑफ़ सायलेंस’ के साथ भी पढ़ा जा सकता है.

सोबती 94 साल की उम्र में दुनिया को अलविदा कह गयीं. लेकिन जबतक रहीं जीवन को किसी भी क्षण हाहाकार से दूर रखती रहीं, उदासियों से मुक्त उर्जावान जीवन जीया उन्होंने. हाल के वर्षों में उनका उपन्यास ‘ऐ लड़की’ अधिक वय की एक स्त्री के नजरिये से जीवन को देखता है, जिसपर उम्र का असर नहीं है, जीजीविषा और आकांक्षा से भरा जीवन. वृद्ध नायिका उम्र के भीतर स्टील हो गयी लड़की को याद ही नहीं करती है जीती भी है. कृष्णा सोबती ने 70 साल की उम्र में डोगरी भाषा के कश्मीरी लेखक से शादी की-यह एक ही दिन और एक ही वर्ष पैदा हुए दो बुजुर्गों की शादी नहीं थी, यह अपनी उम्र में स्टील हुए दो युवाओं का साथ रहने का फैसला था.

हाल के वर्षों में कृष्णा सोबती को जनपक्षधर मुद्दों पर स्टैंड लेते हुए हिंदी समाज ने देखा और इससे लड़ने की ताकत हासिल की. वर्तमान सरकार के खिलाफ आवाज उठाते हुए हम सबने उन्हें तब देखा जब जगह-जगह गोरक्षा के नाम पर साम्प्रदायिक तनाव पैदा किया जा रहा था, जब अख़लाक़ की हत्या हुई या हिंदुत्ववादियों द्वारा गौरी लंकेश की हत्या हुई. यह हिंदी साहित्यकारों पर लगने वाले चुप्पी के आरोपों के विपरीत घटना थी. उन अर्थों में नहीं जिन अर्थों में और जितनी सक्रियता महाश्वेता देवी की रही है, लेकिन बंग्ला भाषियों की तरह हिंदी भाषा के लोग भी अब कह सकते थे कि हमारी भाषा में भी महाश्वेता देवी की तरह सक्रिय एक वरिष्ठ लेखिका हैं. हालांकि ऐसा लिखते हुए मैं दोनों के लेखन में कोई साम्य नहीं ढूंढ रहा हूँ.

स्त्री की अस्मिता के खिलाफ किसी भी हमले का प्रतिवाद वे करती थीं. 2010 में हिंदी की लेखिकाओं को जब एक सिरफिरे लेखक और हिंदी विश्वविद्यालय के कुलपति विभूति नारायण राय ने छिनाल कहा तो उन्होंने ठोस प्रतिवाद किया. कृष्णा सोबती उस अभिव्यक्ति की प्रेरक लेखिका रही हैं, जिसके खिलाफ यह मर्दवादी हमला हुआ था. उन्होंने समुचित प्रतिवाद किया.

वे अपनी पूरी उम्र जीकर हमें अलविदा कह गयी हैं. लेकिन ऐसे समय में जब एक बेहतर समाज और संस्कृति के पक्ष में एक पीढी का संघर्ष तेज है और खासकर तब जब वे उसके लिए सक्रिय प्रेरणा थीं, उनका जाना अधिक व्यथित करता है. कम-से-कम ‘जीवेत शरदः शतं’ को उन्हें चरितार्थ करना था!

साहित्य अकदामी (1980),साहित्य अकादमी फेलोशिप (1996) और ज्ञानपीठ (2017) जैसी संस्थाओं द्वारा उन्हें देर-सबेर मिले सम्मान उनके मूल्यांकन के आधार नहीं हो सकते, उनके लेखन से हिंदी साहित्य में पैदा हुआ शिफ्ट उनके मूल्यांकन का एक बड़ा आधार है.

(लेखक स्त्रीवाद पर आधारित पत्रिका ‘स्त्रीकाल’ के संपादक हैं.)


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