ब्रिटेन में Once in a life time election


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अब दस दिन बचे हैं, जब ब्रिटेन में वो आम चुनाव होगा, जिसे Once in a life time election कहा जा रहा है. यानी ऐसा चुनाव जो जीवनकाल में एक बार ही आता है. खासकर लेफ्ट- यानी लेबर पार्टी के समर्थक हलकों में ऐसी धारणा है. लेकिन दक्षिणपंथी या धुर दक्षिणपंथी हलके भी इससे असहमत नहीं हैं. इसलिए कि इस बात पर सहमति है कि 12 दिसंबर को होने वाले चुनाव के बाद ब्रिटेन पहले जैसी स्थिति में नहीं रह जाएगा.

सत्ताधारी कंजरवेटिव पार्टी जीती तो बेग्जिट (यानी यूरोपीय संघ के ब्रिटेन का अलगाव) एक हकीकत होगा. इस सवाल पर आरंभ से ब्रिटिश जनमत बंटा रहा है. 2016 में हुए ब्रेग्जिट के लिए हुए जनमत संग्रह में भी Yes यानी अलगाव के पक्ष को मामूली बहुमत ही मिला था. स्कॉटलैंड, आयरलैंड और वेल्स का भारी बहुमत तो इसके खिलाफ रहा है. बहरहाल, तमाम चुनाव पूर्व जनमत सर्वेक्षणों को धता बताकर अगर लेबर पार्टी जीती, तो देश में एक नए युग की शुरुआत होगी. 40 साल पहले मार्गरेट थैचर के सत्ता में आने के साथ जिस नव-उदारवादी दौर में ब्रिटेन ने प्रवेश किया, न सिर्फ उस पर विराम लगेगा, बल्कि एक अभूतपूर्व वामपंथी युग की शुरुआत होगी.

2015 के बाद नेतृत्व के साथ-साथ जिस तरह लेबर पार्टी का कलेवर बदला और जिस तरह उसे जन-समर्थन, खासकर नौजवानों का समर्थन मिला, उसने देश के माहौल बदला है. इसी का नतीजा है कि कॉरपोरेट हितों के समर्थक अखबार- फाइनेंशियल टाइम्स- भी लेबर पार्टी की जीत की संभावना से इनकार नहीं कर रहा है. बल्कि 2 दिसंबर को उसने लिखा, ‘मुमकिन है कि दस दिन बाद जब ब्रिटेन की नींद टूटे तो वह पहली बार खुद को अर्ध-मार्क्सवादियों से शासित होता पाए. सर्वे चाहे जो कहें, लेकिन लेबर नेता जेरमी कॉर्बिन के 10, डाउनिंग स्ट्रीट (ब्रिटिश प्रधानमंत्री के निवास) में प्रवेश करने की संभावना से कौन इनकार कर सकता है.’ अखबार ने लिखा कि कॉर्बिन के गुट ने लेबर पार्टी पर अपनी पकड़ पूरी तरह मजबूत कर ली है.

दरअसल, जेरमी कॉर्बिन का उभार हाल के वर्षों में विकसित दुनिया के लोकतांत्रिक देशों में नव-वामपंथ के हुए उभार का हिस्सा है. अमेरिका के बर्नी सैंडर्स के बाद जेरमी कॉर्बिन इस परिघटना को पहचान देने वाले सबसे बड़े नाम हैं. ये परिघटना 2008 में आई मंदी के बाद बनी परिस्थितियों से जन्मी. ब्रिटेन में इस परिघटना ने न्यू लेबर को पूरी तरह अप्रासंगिक बना दिया. गौरतलब है कि लेबर पार्टी 1979 से जब लगातार चार बार आम चुनाव हार गई और ये पूरी तरह संभावना-विहीन स्थिति में दिख रही थी, तब टोनी ब्लेयर के नेतृत्व में न्यू लेबर की धारणा का उदय हुआ. इस दौर में लेबर पार्टी वामपंथ से दूर होते हुए एक ऐसी मध्यमार्गी पार्टी बन गई, जिसने अपनी आर्थिक नीतियों में नव-उदारवाद को पूरी तरह अपना लिया. कंजरवेटिव पार्टी से फर्क सिर्फ महिला या LGBTQ अधिकारों जैसे मुद्दों पर सामाजिक नीतियों में रह गया. तब मार्गरेट थैचर ने इसे अपनी सबसे बड़ी जीत बताया था कि लेबर पार्टी ने भी उनकी ही आर्थिक नीतियों को अपना लिया है.

लेकिन 2015 के बाद ये कहानी बदल गई. 2010 में गॉर्डन ब्राउन और 2015 में एड मिलिबैंड के नेतृत्व में लेबर पार्टी कंजरवेटिव पार्टी से हार गई, तब इस घटनाक्रम की शुरुआत हुई. तब सारे अनुमानों को झुठलाते हुए जेरमी कॉर्बिन लेबर पार्टी के नेता चुने गए. कॉर्बिन 1980 के दशक उस वामपंथी गुट से संबंधित रहे, जिसे फ्रिंज यानी हाशिये पर का समूह माना जाता था. न्यू लेबर की नीतियों को उन्होंने हमेशा विरोध किया. सार्वजनिक खर्चों में कटौती का सवाल हो, ब्रिटेन की परमाणु नीति हो, या फिर 2003 में इराक युद्ध में ब्रिटेन के शामिल होने का सवाल हो, हमेशा उन्होंने संसद में अपनी पार्टी की सरकार के खिलाफ मतदान किया. अपने चुनाव क्षेत्र- इसलिंग्टन- में लोगों से जीवंत संपर्क का उनका इतिहास ऐसा है कि हर प्रतिकूल राजनीतिक हवा के बीच भी वे जीतते रहे हैं.

लेबर पार्टी के मध्यमार्गी धड़े को वे कभी पसंद नहीं आए. नेता के रूप में उनके चुनाव उन्होंने एक संयोग माना. जनमत संग्रहों में बताया जाता रहा कि कॉर्बिन के नेतृत्व में लेबर पार्टी अपना समर्थन खो रही है. इसी बीच 2017 में तत्कालीन प्रधानमंत्री थेरिजा मे ने मध्यावधि चुनाव कराने का एलान कर दिया. तब आम अनुमान यही थे कि लेबर पार्टी का सफाया हो जाएगा. लेकिन जब चुनाव नतीजे आए तो लोग दंग रह गए. लेबर पार्टी ने अपने वोट में लगभग 10 प्रतिशत का इजाफा कर लिया. सीटें बढ़ा लीं. इतनी कि उसने कंजरवेटिव पार्टी को पूर्ण बहुमत पाने से रोक दिया. कुल मिलाकर लेबर पार्टी की चुनावी हार हुई, लेकिन आम धारणा यही रही कि जेरमी कॉर्बिन और लेबर पार्टी की राजनीतिक जीत हुई है. यहां से लेबर नेतृत्व में आए परिवर्तन पर मुहर लग गई.

इसके बावजूद मध्यमार्गी गुट ने कॉर्बिन के नेतृत्व को चुनौती दी. मगर पार्टी के वाम और युवा वर्ग का समर्थन इतना जोरदार था कि विरोधियों की पराजय हुई. उसके बाद से कई वामपंथ विरोधी नेता पार्टी छोड़ गए हैं. बाकी हाशिये पर चले गए हैं. उल्लेखनीय है कि कॉर्बिन की सफलता का राज देश में आया बदलाव है. नाराज युवा वर्ग का समर्थन कॉर्बिन को मिला है. लाखों की संख्या में उन्होंने लेबर पार्टी की सदस्यता ली है. उन्हीं का अटूट समर्थन वो वजह है जिसकी वजह से फाइनेंशियल टाइम्स ने कहा है कि पार्टी आज कॉर्बिन-वादियों की पूरी पकड़ बन गई है.

इस पकड़ का परिणाम है कि कॉर्बिन पार्टी को नई नीतियों पर ले जाने में कामयाब हैं. पार्टी आज खुलकर अपने समाजवादी होने का एलान करती है. इन नीतियों और इन पर आधारित कार्यक्रम को विस्तार के साथ पहले 2017 और अब 2019 के पार्टी के घोषणापत्र में शामिल किया गया. 2015 में पार्टी के घोषणापत्र का एलान था- For the Many, not the Few. 2019 उसके इस दस्तावेज की घोषणा है- It’s time for Real Change. कॉर्बिन के युवा समर्थक ओपिनियन पोल्स पर भरोसा नहीं करते. उन्हें भरोसा है कि 12 दिसंबर को जब नतीजे आएंगे, तो जीत उनके नेता की ही होगी.

लेकिन कॉर्बिन के समर्थक विशेषज्ञ इतने भरोसे में नहीं हैं. वे सावधानी भरी उम्मीद रखे हुए हैं. साथ ही वे मानते हैं कि अगर कॉर्बिन जीत गए तब भी उनके लिए शासन करना आसान नहीं होगा. The Fall and Rise of the British Left नामक किताब के लेखक एंड्र्यू मरे ने कहा है कि चुनाव के बाद कॉर्बिन सरकार बनना एक वास्तविक संभावना है, लेकिन यह संभावना से अधिक कुछ नहीं है. बहरहाल, मरे सहित तमाम जानकार यह मानते हैं कि अगर कॉर्बिन सरकार बन गई तब भी उस हिचकोले खाती साइकिल को चलाने के लिए अत्यधिक शक्तिशाली पैडल मारने की जरूरत होगी. आखिर ऐसी धारणा क्यों बनी है, यह अगले लेख में.


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