नफरत की आग से गांधी ही भारत को बचा सकते हैं


only gandhi's idea can save the soul of India

 

आज विश्व महात्मा गांधी की 150वीं जयंती मना रहा है. इस समय विश्व एक ऐसे मुहाने पर खड़ा है जहां उलझनों, टकरावों और नफरतों के भयावह तूफान की खौफनाक आहटें सुनाई दे रही हैं. भारत भी पिछले दिनों में इन आहटों का केंद्र बन गया है. बढ़ती हुई हिंसा और भय ने मुल्क की नींव को ही खतरे में डाल दिया है. यह नींव साझी विरासत की थी, जिसे गंगा-जमुनी तहजीब कहा गया. महात्मा गांधी ने इस तहजीब को बचाने के लिए ही शहादत दी थी. वे एक ऐसे पिता जिन्होंने अपने वारिसों के बीच पनपाई जा रही नफरत को दूर करने के लिए ताउम्र संघर्ष किया.

यह संघर्ष अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ भी था तो देशी फिरकापरस्त ताकतों के खिलाफ भी. ऐसे प्रयासों को कभी सफलता या असफलता के पैमाने पर तो नहीं देखा जा सकता है लेकिन यह जरूर है कि गांधी ने हर कौम के डरे-सहमे और कमजोर इंसान का भारत के प्रति विश्वास पैदा किया. साम्प्रदायिक हिंसा की सुनियोजित कोशिशों के बाद भी मुल्क के लोगों में साथ रहने का जज्बा है. गांधी ने इस जज्बे को भारतीय जनमानस के साथ गहरा मिश्रित कर दिया. जिसे किसी भी हथियार से मारा नहीं जा पा रहा है. उन्होंने अपनी 1909 में लिखी पुस्तक ‘हिन्द स्वराज’ में कहा, ‘दुनिया में इतने लोग आज भी जिंदा हैं, यह बताता है कि दुनिया का आधार हथियार-बल पर नहीं है, परन्तु सत्य, दया और आत्मबल पर है.’

रंगभेद मुक्त दुनिया के नायक

गांधी की मौत तो साम्प्रदायिक नफरत की हाथों हुई थी लेकिन उनकी जिंदगी बदलने में रंगभेद की नफरत एक बड़े पड़ाव के रूप में आई. दक्षिण अफ्रीका में गए एक युवा वकील को इस नफरत ने इतना उद्वेलित किया कि वह मानवता के सबसे बड़े पैरोकार के रूप में विश्वपटल पर उभरे. लेकिन आश्चर्यजनक तो यह है कि रंगभेद के खिलाफ के संघर्ष में अश्वेतों का साथ मिलना तो लाजमी था लेकिन ‘गोरे’ लोगों ने भी उनका साथ दिया. क्योंकि वे नफरत को कागजों से नहीं, दिल से मिटाते थे.

गांधी अपनी किताब ‘दक्षिण अफ्रीका के सत्याग्रह का इतिहास’ में कहते हैं, ‘कौम की लड़ाई में इतने अधिक प्रतिष्ठित गोरों ने हिन्दुस्तानियों का पक्ष लेकर प्रमुख भाग लिया था कि इस स्थान पर उन सबका एक साथ परिचय कराना अनुचित नहीं होगा.’ वे कई उदाहरण इस तरह के लोगों के देते हैं. लेकिन त्रासदी यह है कि भारत में साम्प्रदायिकता के खिलाफ लड़ते गांधी को आशातीत सहयोग नहीं मिला. यह इसलिए भी हुआ कि श्वेत समाज के लोगों ने इस गांधी के विवेक और साहस को स्वीकार किया. उनके ‘अहिंसा और प्रेम’ के सिद्धांत की शक्ति को समझा.

भारत के लोगों में ‘स्वीकार करने का साहस’ बहुत कम है. गांधी खुद ही थे जिन्होंने अपने जीवन के हर पक्ष को अपनी आत्मकथा ‘सत्य के साथ’ मेरे प्रयोग’ में स्वीकार किया. यह आधुनिक भारत की पहली घटना थी जिसमें श्रद्धापूर्ण छवि के किसी इंसान ने अपनी कमजोरियों को भी सार्वजनिक जीवन में खुलकर स्वीकार किया. इससे उनका कद और बढ़ा.

आजादी के जश्न के आसमान में मायूसी का सितारा

15 अगस्त 1947 को जब भारत आजाद हुआ तो एक ओर मुल्क में जश्न का माहौल था, वहीं दूसरी तरफ खामोशी तोड़ती सिसकियां थीं. इन सिसकियों की वजह अंग्रेज़ी राज की ‘विभाजन’ की नीति तो रही, साथ ही यहां के हिन्दू कट्टरपंथी और मुस्लिम कट्टरपंथी भी जिम्मेदार थे. वे अपने संकीर्ण साम्प्रदायिक हितों के लिए बड़े सामूहिक हितों की बली दे रहे थे. मुस्लिम कट्टरपंथियों को सम्प्रदाय आधारित मुल्क बनाने में कामयाबी मिल गई थी. हिन्दू कट्टरपंथी उसी दिन से लोकतान्त्रिक भारत को हिन्दू-राष्ट्र बनाने के मुहिम में लग गए. वे आज तक सफल नहीं हुए और भविष्य में भी उनकी सफलता दिखाई नहीं देती. उनकी इस असफलता में सिर्फ एक ही बाधा रही है और वह है गांधी. आजादी के दिन गांधी कलकत्ता में साम्प्रदायिक सद्भाव के लिए उपवास कर रहे थे. उनका उपवास खून की नदियों को रोकने में कुछ हद तक सफल रहा.

उन्होंने कत्ल भी किया और फूल भी चढ़ा रहे

जिस हिन्दू-राष्ट्र के पैरोकारों ने गांधी की हत्या की वे आज तक भी वैचारिक रूप से सार्वजनिक क्षेत्र में उनका विरोध करने का सांगठनिक साहस नहीं जुटा पाए हैं. क्योंकि मुल्क की जनता में उनके प्रति आदर और सम्मान है. हिन्दू-राष्ट्रवादी इसी कारण गांधी को कई बार फूल चढ़ाते हुए मिल जाएंगे. वैसे विश्व में किसी भी देश में जाएंगे तो उन्हें मजबूरन कहना पड़ेगा कि वे गाँधी के देश से आए हैं. वहां यह तो कह नहीं सकते कि वे ‘गोडसे के देश’ से आए हैं. उनकी रणनीति है कि गांधी को फूल चढ़ाकर या गोली मारकर, दोनों ही तरीकों से उनके विचार को जनमानस से मिटा दिया जाए.

नफरतों के इस दौर में गांधी के प्रेम का दर्शन ही भारत की आत्मा को बचा सकता है. सभ्यता का जो साझा स्वरूप है उसे हम अहिंसा से प्राप्त कर सकते हैं. ना सिर्फ मनुष्य बल्कि पर्यावरण के साथ इंसानी संबंधों पर गांधी ने कहा था कि प्रकृति जरूरत तो सबकी पूरी कर सकती है लेकिन लालच पूरा नहीं कर सकती. इस मोड़ पर उनके विकास के मॉडल पर भी ध्यान देना होगा की किस तरह से हम सतत विकास का मॉडल निर्मित कर सकते हैं. जितना दुनिया उनसे सीख रही है, शायद उतना भारत नहीं. यहां तो आजकल ‘विकास’ का अर्थ ही डींग हांकना हो चुका है. ऐसे में गांधी हमें बचा सकते हैं, उनके साथ एक पुनर्यात्रा की जरूरत है जो सिर्फ दांडी तक सीमित ना रहकर भारत के लोगों के दिलों से होकर गुजरे.


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