और भयावह हुई गैर-बराबरी


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ऑक्सफेम बीते कई वर्षों से दुनिया में बढ़ती आर्थिक गैर-बराबरी का जायजा पेश करता रहा है. इस बारे में उसकी रिपोर्ट स्विट्जरलैंड के डावोस में दुनिया भर के उद्योगपतियों और राजनेताओं की होने वाली सालाना बैठक से ठीक पहले जारी होती है. विषमता के लगातार भयावह होते आंकड़ों के जरिए इस गैर-सरकारी संस्था ने फिर विश्व अर्थव्यवस्था के कर्णधारों को आगाह किया है. चेतावनी दी है कि अगर इस चौड़ी होती खाई को पाटने के कदम नहीं उठाए गए, तो मौजूदा विश्व-व्यवस्था खतरे में पड़ सकती है.

किसी भी व्यवस्था या अर्थव्यवस्था का टिकाऊ होना लोगों की निगाह में उसकी वैधता पर निर्भर करता है. पूंजीवादी (बाद में नव-उदारवादी) अर्थव्यवस्था दशकों से ट्रिकल डाउन सिद्धांत को पेश कर ये वैधता पाने की कोशिश करती रही है. उसका दावा रहा है कि धन पैदा होगा तो धीरे-धीरे रिस कर सभी तबकों तक पहुंचेगा. मगर ऑक्सफेम (और हाल में आई अनेक संस्थाओं की) रिपोर्ट यह बताती है कि ऐसा नहीं हो रहा है. इसका उलटा हो रहा है. पैदा हो रहा धन अधिक से अधिक चंद लोगों के हाथ में जमा होता जा रहा है.

ये आंकड़े गौरतलब हैं– दस साल पहले आए आर्थिक संकट के बाद दुनिया में अरबपतियों की संख्या दो गुनी हो चुकी है. 2017 और 2018 में हर दूसरे दिन एक नया अरबपति पैदा हुआ. 2017 में 43 ऐसे अरबपति थे, जिनकी कुल संपत्ति दुनिया की आधी आबादी के पास मौजूद संपत्ति के बराबर थी. 2018 में विश्व की आधी आबादी के बराबर संपत्ति महज 26 लोगों के पास इकट्ठी हो गई. ऑक्सफेम ने ध्यान दिलाया है कि ब्रिटेन में सबसे गरीब 10 फीसदी लोग सबसे धनी दस प्रतिशत लोगों की तुलना में अधिक ऊंची प्रभावी दर से टैक्स चुका रहे हैं.

गौर करने की बात है. आर्थिक मंदी से लाखों परिवार तबाह हुए. लेकिन इसी दौर में अरबपति पैदा होते रहे. अरबपतियों की संपत्ति बढ़ती रही. इस दौर में कैसे CEOs अपना लाभांश बढ़ाते रहे, इसकी कहानियां बहुचर्चित हैं. दूसरी तरफ टैक्स का ढांचा ऐसा है, जिससे धन के संकेद्रण पर कोई लगाम नहीं लगती. बल्कि यह संकेद्रण को बढ़ावा देती है. कहा जा सकता है कि बढ़ती गैर-बराबरी के पीछे यह प्रमुख वजह है. बेशक नई उत्पादन तकनीकों और भूमंडलीकरण की नीतियों का विषमता बढ़ाने में योगदान है. लेकिन बदलती परिस्थितियों के मुताबिक सार्वजनिक नीतियों को नहीं ढालने के कारण भी ऐसा हुआ है.

दूसरे विश्व युद्ध के बाद अपनाई गई आर्थिक नीतियों का परिणाम गरीबी में गिरावट और अपेक्षाकृत आमदनी की समानता की तरफ समाज का बढ़ना था. लेकिन 1980 के बाद आए नव-उदारवाद के दौर में ये रूझान पलट गए हैँ.

जो रूझान दुनिया भर में वही भारत में भी है. ऑक्सफेम की ताजा रिपोर्ट में बताया गया है कि पिछले साल भारतीय अरबपतियों की संपत्ति में रोजाना 2,200 करोड़ रुपए की वृद्धि हुई. भारत के सबसे धनी एक फीसदी लोगों की संपत्ति में कुल 39 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई. जबकि निचले आय वर्ग वाली आधी आबादी की संपत्ति में महज तीन प्रतिशत इजाफा हुआ. आज हालत यह है कि भारत की टॉप दस फीसदी आबादी के पास देश का 77.4 प्रतिशत धन है. दरअसल, टॉप एक फीसदी लोगों का ही देश के 51.53 प्रतिशत धन पर कब्जा है. देश में नौ ऐसे अरबति हैं, जिनके पास निचली आधी आबादी के बराबर धन है. जबकि निचली साठ फीसदी आबादी के पास देश का केवल 4.8 प्रतिशत धन है.

ऐसी विषमता लोकतंत्र के लिए घातक है. मुट्ठी भर धनी लोगों का मीडिया और राजनीति पर शिकंजा कसा हुआ है. वे अपने ढंग से सार्वजनिक बहस और राजनीति का एजेंडा तय कर रहे हैं. ऐसा दुनिया भर में हो रहा है. अनेक समाजशास्त्री इस निष्कर्ष पर हैं कि लोकतांत्रिक देशों में नस्लवादी, सांप्रदायिक, विदेशी विद्वेष और अलगाव की चली लहर असल में इसका ही नतीजा है.

ऑक्सफेम की सालाना रिपोर्टों की उपयोगिता यह है कि वह हर साल इस बढ़ती समस्या की ओर ध्यान दिलाती है. मगर दिक्कत यह है कि वह उन्हीं उद्योगपतियों और राजनेताओं से समाधान की आस जोड़ती है, जो इस स्थिति से लाभान्वित और वर्तमान स्थिति के लिए जिम्मेदार हैं. अच्छी बात यह है कि विकसित दुनिया में बर्नी सैंडर्स, जेरमी कॉर्बिन जैसे नेता और पोदेमॉस जैसे आंदोलन इस हाल का हल एक नई तरह राजनीति से ढूंढ रहे हैं. आज आवश्यकता ऐसे ही विकल्पों की तरफ देखने की है.


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