मीडिया में ढूंढे नहीं मिलते दलित, आदिवासी और ओबीसी के लोग
मुख्यधारा के मीडिया में दलितों, आदिवासियों और पिछड़ों की भागीदारी को लेकर मीडिया पर लगातार सवाल उठते रहे हैं.
ऑक्सफैम इंडिया और न्यूज़लॉन्ड्री ने मीडिया में दलितों, आदिवासियों और पिछड़ो की भागीदारी को लेकर एक रिसर्च रिपोर्ट तैयार की है.
ताजा रिसर्च ने इस बात को और पुख्ता कर दिया है कि मीडिया में उच्च पदों पर दलित, आदिवासी और पिछड़े समुदाय से आने वाले लोगों की भागीदारी ना के बाराबर है. यह रिसर्च अक्टूबर 2018 से मार्च 2019 के बीच मुख्यधारा के टीवी समाचार चैनलों में प्रसारित होने वाले कार्यकर्मों, देश के मुख्य समाचार पत्रों, डिजिटल मीडिया में समाचार बेवसाइट्स और प्रमुख पत्रिकाओं के कंटेंट के आधार पर किया गया है.
टेलीविजन माध्यम
रिसर्च में पाया गया कि टेलीविजन स्क्रीन पर दिखने वाले चेहरों और मुख्य निर्णायक पदों पर काम कर करने वाले लोगों में एक भी दलित, आदिवासी नहीं है. पिछले तीन दशकों में देश का मीडिया 25 प्रतिशत आबादी वाले दलित, आदिवासी समुदाय से एक भी टेलीविजन संपादक, समाचार रीडर यानी एंकर नहीं दे पाया है.
इस रिसर्च में छह बड़े हिंदी न्यूज चैनल राज्यसभा टीवी, आज तक, एनडीटीवी इंडिया, जी न्यूज, न्यूज 18 इंडिया और रिपब्लिक भारत को शामिल किया गया.
रिसर्च में सामने आया कि एंकर के तौर पर टेलीविजन स्क्रीन पर दिखने वाले अधिकतर चेहरे सवर्ण समुदाय से आते हैं. प्राइम टाइम कार्यक्रम करने वाले 10 में से 8 एंकर सवर्ण समुदाय से हैं. वहीं इन एंकर्स के कार्यक्रमों में शामिल होने वाले 80 फीसदी वक्ता और विशेषज्ञ भी सवर्ण समुदाय से आते हैं.
इसमें सबसे दिलचस्प बात जो सामने आई वह यह है हिंदी न्यूज चैनलों में साइंस एंड टेक्नोलॉजी पर बात रखने वालों में 23 फीसदी दलित और 12 फीसदी आदिवासी समाज से आने वाले पैनलिस्ट रहे जो दूसरे क्षेत्रों में आने वाले दलित पैनलिस्टों की तुलना में सबसे ज्यादा है.
इसी तरह अंग्रेजी के सात न्यूज चैनल सीएनएन न्यूज 18, इंडिया टुडे, मिरर नाउ, एनडीटीवी 24×7 को भी रिसर्च में शामिल किया गया जिसमें पाया गया कि 89 फीसदी मुख्यपदों पर सवर्ण समुदाय के लोग काबिज हैं. इनमें से एक भी दलित आदिवासी नहीं है.
अंग्रेजी न्यूज चैनलों के मुख्य कार्यक्रम करने वाले 47 एंकर्स में से 33 एंकर सवर्ण समुदाय से आते हैं इनमें एक भी दलित आदिवासी समाज से नहीं है. इन कार्यक्रमों में पैन्लिस्ट के तौर पर आने वालों के प्रतिशत की बात करे तो 80 प्रतिशत पैन्लिस्ट सवर्ण समाज के होते हैं.
समाचार पत्र
हिंदी समाचार पत्र
रिसर्च में हिंदी के सात बड़े समाचार पत्र दैनिक भास्कर, अमर उजाला, राजस्थान पत्रिका, नवभारत टाइम्स, प्रभात खबर, पंजाब केसरी और हिंदुस्तान को शामिल किया गया.
इन समाचार पत्रों में भी निर्णायक पदों पर एक भी दलित, आदिवासी और पिछड़ा पत्रकार नहीं है. हिंदी समाचार पत्रों में राजस्थान पत्रिका और पंजाब केसरी में करीब 12 फीसदी लेख दलित समुदाय से जुड़े पत्रकारों के छपे हैं जो कि अंग्रेजी के समाचार पत्रों से थोड़ा बेहतर हैं.
वहीं जाति से जुड़े मुद्दों पर नवभारत टाइम्स में 76 प्रतिशत और राजस्थान पत्रिका में 90 प्रतिशत लेख सवर्ण समुदाय से आने वाले पत्रकारों के छपे हैं.
अंग्रेजी समाचार पत्र
अंग्रेजी माध्यम के समाचार पत्रों पर रिसर्च करने के लिए द इकोनॉमिक टाइम, हिंदुस्तान टाइम, द हिन्दू, द टाइम्स ऑफ इंडिया, इंडियन एक्सप्रेस, द टेलीग्राफ को शामिल किया गया.
रिसर्च में सामने आया की अंग्रेजी के इन समाचार पत्रों में काम करने वाले 92 प्रतिशत निर्णायक पदों पर सवर्ण समुदाय के लोग काबिज हैं. इस माध्यम में भी दलितों, आदिवासियो का प्रतिनिधित्व शून्य है.
अंग्रेजी के इन समाचार पत्रों में छपे लेखों में दलित और आदिवासी समुदाय के लोगों की भागीदारी 5 प्रतिशत से भी कम है. यानी कुल मिलाकर अंग्रेजी और हिंदी के समाचार पत्रों में जाति के विषय पर लिखे गए 50 फीसदी से ज्यादा लेख सवर्ण समुदाय से आने वाले लेखकों या पत्रकारों के छपे हैं.
डिजिटल मीडिया
रिसर्च में अंग्रेजी की वेबसाइट्स फर्स्टपोस्ट, स्क्रोल, स्वराज, न्यूज़लॉन्ड्री, द प्रिंट, द क्विंट, तथा हिंदी के लिए द वायर और सत्यग्रह को शामिल किया गया.
टेलीविजन और प्रिंट की अपेक्षा डिजिटल मीडिया से ज्यादा उम्मीद थी की इस प्लेटफोर्म पर दलित, आदिवासी और पिछड़े समुदाय के लोगों को ज्यादा स्पेस मिलेगा लेकिन इस माध्यम में भी कुछ पहल दिखाई नहीं दी. रिसर्च में पाया गया कि समाचार वेबसाइट्स पर 72 प्रतिशत से ज्यादा आर्टिकल उच्च वर्ग से आने वाले पत्रकारों और लेखकों के पब्लिश हुए हैं.
मैगजीन
रिसर्च में राजनीति, खेल, व्यापार और सांस्कृतिक दुनिया से जुड़ी 12 मैगजीनों को शामिल किया गया था जिनमें बिजनेस टुडे, इंडिया टुडे, इंडिया टुडे हिंदी, कारवां, फ्रंटलाइन, आउटलुक, आउटलुक हिंदी, सरिता, फैमिना, स्पोर्ट स्टार और तहलका शामिल थी.
टेलीविजन, समाचार पत्र और डिजिटल मीडिया की अपेक्षा मैगजीन माध्यम में पिछड़ो की भागीदारी कुछ स्तर तक ठीक है लेकिन दिलतों और आदिवासियों को प्रति इस माध्यम से भी निराशा ही मिली.
पत्रिकाओं में भी दलित और आदिवासी निर्णायक पदों पर नहीं हैं. 12 पत्रिकाओं में छपे 972 लेखों में से दलित और आदिवासी समुदाय से जुड़े पत्रकारों के केवल 0.5 प्रतिशत लेख छपे हैं.
मीडिया में दलितों की भागीदारी को लेकर एक बात अक्सर कही जाती है कि भारतीय मीडिया को दलितों से जुड़ी खबरें तो चाहिए लेकिन दलित रिपोर्टर या पत्रकार नहीं चाहिए.
समाचार चैनलों के दफ्तरों में इस समुदाय के लोग टेबल साफ करते हुए, चाय-पानी पिलाते हुए, समाचार चैनलों के शौचालयों में सफाई करते हुए तो मिलेंगे परंतु इसी समाज से आने वाले लोग आउटपुट डेस्क के किसी निर्णायक पद पर या फिर समाचार स्टूडियों में खबर पढ़ते नहीं मिलेंगे.
दलित,आदिवासी समुदाय से जुड़े पत्रकार और लेखक अंग्रेजी, हिंदी और क्षेत्रीय भाषाओं में करीब 50 पत्रिकाएं चला रहे हैं, इन समुदायों के लोग अब वेबसाइट्स पर लेख और वीडियो के जरिए अपना पक्ष रख रहे हैं.
आईआईएमसी दिल्ली से पत्रकारिता की पढ़ाई कर चुके अशोक दास 2012 से लगातार ‘दलित दस्तक’ नाम की मासिक पत्रिका निकालने के साथ-साथ ‘दलित दस्तक’ नाम से यू-ट्यूब चैनल भी चला रहे हैं. इस यू-ट्यूब चैनल के पांच लाख से ज्यादा सब्सक्राइबर्स हैं.
लखनऊ के दलित पत्रकार अरुण खोटे जस्टिस न्यूज के नाम से वेबसाइट चला रहे हैं. अरुण खोटे ‘जस्टिस न्यूज’ के माध्यम से दलितों और अन्य हाशिए के समूहों पर होने वाले अत्याचारों के खिलाफ आवाज बुलंद करने का काम कर रहे हैं.
वहीं यू-ट्यूब चैनल ‘दलित कैमरा’ दलित समाज की आवाज के तौर पर काम कर रहा है. राउंड टेबल इंडिया वेबसाइट दलित, आदिवासी और पिछड़े समुदाय के लोगों के विचारों को स्थान देने के डिजिटल मंच के तौर पर जाना जा रहा है.
मुख्यधारा के मीडिया की अनदेखी की वजह से इस समुदाय के पत्रकार न्यू मीडिया के माध्यम से खुद का प्लेटफॉर्म चलाने को मजबूर हैं. यही वजह है कि दलित दस्तक, नेशनल दस्तक,फॉरवर्ड एक्सप्रेस, दलित कैमरा, राउंट टेबल इंडिया जैसी वेबसाइट्स इस समुदाय की आवाज बन रही हैं.