मध्य प्रदेश डायरी : बीजेपी और कांग्रेस में पार्टी पदों को लेकर अंदरूनी खींचतान


parties are seeking for their leaders in madhya pradesh

 

मिशन 2019 के लिए कौन बैठेगा ड्राइविंग सीट पर?

मध्य प्रदेश के राजनीतिक गलियारों में नए साल के आगमन की तैयारियों से अधिक इस बात के कयास लगाए जा रहे हैं कि कांग्रेस और बीजेपी में कौन नेता नए साल के मिशन को अंजाम देने के लिए ‘ड्राइविंग सीट’ पर बैठेगा.

बीजेपी ने काफी पहले मिशन 2018 की तैयारियां आरंभ कर दी थीं और लक्ष्‍य रखा था- अबकि बार दो सौ पार यानी, 230 सीटों वाली विधानसभा में 200 से अधिक सीट पाना. बीजेपी का मिशन 2018 कामयाब नहीं हो पाया, अब उसकी निगाहें 2019 के आम चुनाव पर हैं.

उधर कांग्रेस को नया प्रदेश अध्‍यक्ष चुनना है और बीजेपी को नेता प्रतिपक्ष. कांग्रेस के वर्तमान प्रदेश अध्‍यक्ष कमलनाथ तो सत्‍ता सूत्र संभाल चुके हैं. इसके बाद अब तमाम वरिष्‍ठ नेताओं की निगाह अध्‍यक्ष पद पर टिकी हैं.

बीजेपी में सांसद राकेश सिंह कुछ माह पूर्व ही प्रदेश अध्‍यक्ष बनाए गए हैं. शीर्ष नेतृत्‍व पार्टी की हार के बाद भी उनके त्‍यागपत्र को अस्‍वीकार कर चुका है. इसलिए यहां अध्‍यक्ष पद के लिए जोड़तोड़ नहीं हो रही बल्कि नेता प्रतिपक्ष के लिए ताकत लगाई जा रही है.

पूर्व मुख्‍यमंत्री शिवराज सिंह चौहान अपनी सक्रियता से नेता प्रतिपक्ष के दावेदार तो हैं ही. लेकिन उनके विरोधियों को यह अखर रहा है. उनको लगता है कि जो 13 साल सत्‍ता में रहा वह अब नेता प्रतिपक्ष बन गया तो उनका नंबर तो जाता रहेगा.

अपनी वरिष्‍ठता का हवाला दे कर दावेदार नेताओं ने संघ व पार्टी के वरिष्‍ठ पदाधिकारियों से मेलजोल बढ़ाना शुरू कर दिया है.

कभी मिल कर संघर्ष किया, अब आपस में स्‍पर्धा

प्रदेश कांग्रेस अध्‍यक्ष बनने के लिए भी दिलचस्‍प संघर्ष सामने आ रहा है. जब पार्टी नेतृत्‍व मंत्रिमंडल निर्माण और उनके विभागों के निर्धारण की माथापच्‍ची में उलझा था, तब कुछ नेता प्रदेश अध्‍यक्ष बनने के लिए सही ‘पासों’ का इंतजार कर रहे थे.

प्रदेश अध्‍यक्ष के दावेदारों में पूर्व अध्‍यक्ष अरुण यादव और पूर्व नेता प्रतिपक्ष अजय सिंह का नाम प्रमुखता से लिया जा रहा है. अरुण ने मुख्‍यमंत्री चौहान के खिलाफ चुनाव लड़कर मुकाबले को चर्चा में ला दिया था.

इसके बाद माना जा रहा है कि उन्‍हें प्रदेश अध्‍यक्ष का पद एकबार फिर दिया जा सकता है. इसके बाद शायद विधानसभा चुनाव पहले अध्‍यक्ष पद से हटा दिए जाने की उनकी टीस भी कुछ हद तक कम हो जाएगी.

दूसरी तरफ, कांग्रेस को विंध्‍य में उम्‍मीद के मुताबिक जीत नहीं मिली. यहां तक कि जिनके जिम्‍मे पूरा क्षेत्र था वे अजय सिंह खुद चुनाव हार गए. माना जा रहा है कि लोकसभा चुनाव में विंध्‍य क्षेत्र में बढ़त के लिए कांग्रेस अजय सिंह को प्रदेश अध्‍यक्ष बना सकती है.

इस तरह अनजाने में ही सही लेकिन दो दोस्‍त एक-दूसरे के मुकाबले में आ गए. दोनों ने ही प्रदेश अध्‍यक्ष और नेता प्रतिपक्ष की जोड़ी के रूप में शिवराज सरकार के खिलाफ मोर्चा खोला था. सुख-दु:ख के साथी रहे दोनों नेता विधानसभा चुनाव में अपनी हार के बाद मिले तो अरुण भावुक हो कर रो पड़े थे.

तब भी अजय सिंह ने अरुण को दिलासा दी थी. अब आपसी संघर्ष में तो अरुण को राहत का यह कंधा नसीब नहीं होने वाला. दावेदारी की असमंजस भरी बिसात में उलझी इस दोस्‍ती पर सभी की निगाहें टिकी हुई हैं.

मप्र के प्रशासन में पंजाबी फैक्‍टर का क्‍या होगा?

मप्र में आईएएस अफसर कई अन्‍य वर्गों के अलावा दो प्रमुख लॉबी में बंटे हैं. पंजाबी लॉबी और गैर पंजाबी लॉबी जिसमें श्रीवास्‍तव, ठाकुर आदि आईएएस आते हैं. पूर्व मुख्‍य सचिव राकेश साहनी के साथ प्रमुख सचिव विवेक अग्रवाल जैसे अफसरों ने अपने कार्यकाल में स्‍वंतत्र हो कर निर्णय लिए.

अपने गुट के अफसरों को उनकी पसंद की जगहें भी दिलवाईं. अब, जब कमलनाथ मुख्‍यमंत्री बने तो उन्‍होंने सबसे पहले पूर्व मुख्‍यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के पसंदीदा अफसर विवेक अग्रवाल को किनारे किया.

आरएसएस की विचारधारा को पोषित करने वाली फेसबुक पोस्‍टों से विवादों में घिरे एसीएस मनोज श्रीवास्‍तव को भी लूपलाइन में भेजा गया है. मुख्‍यमंत्री जल्‍द ही कुछ और प्रशासनिक सर्जरी कर सकते हैं.

ऐसे में किसी गुट से संबद्ध हो कर मलाईदार पोस्टिंग पाए हुए अफसर सांसत में हैं. मंत्रालय में चर्चाएं जोरों पर हैं कि मुखिया गए तो क्‍या गुट भी बिखरेगा.

शिवराज के सलाहकार दे रहे सफाई

मध्य प्रदेश विधानसभा चुनाव में हार भाजपा और पूर्व मुख्‍यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के समर्थकों को पच नहीं रही है. पार्टी जहां हार के कारणों पर मंथन कर रही है तो वहीं शिवराज के करीबी रहे नेता सफाई दे रहे हैं.

उनके एक सलाहकार कहते हैं, “पार्टी में एक नेता की चलती ही कहां है. वहां तो सामूहिक निर्णय होते हैं.” लेकिन उनकी ये टिप्पणी किसी को पची नहीं, लोग सोचते रह गए कि केंद्रीकृत हो रही बीजेपी में सामूहिक निर्णय कब से लिए जाने लगे.


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