रोस्टर आंदोलन में नुमायां हुई 21वीं सदी के भारत की तस्वीर


picture story of protest of 13 point roaster

 

तस्वीरों पर क्या लिखें, जबकि तस्वीरें खुद ही बोलती हैं. फिर भी तस्वीरें क्या बोल रही हैं इसको समझने के अपने अपने प्रयास हो सकते हैं. एक प्रयास तो उन तस्वीरों को कैद करने में ही दिखता है कि अमुक अमुक तस्वीरें ही क्यों महत्वपूर्ण दिखीं.

ब्रेख्त के द्वारा नाटकों की प्रभावनीयता को लेकर जो बहस छेड़ी गयी थी, तस्वीरों का भी कुछ कुछ वही प्रभाव होता है. और खासकर जब वे तस्वीरें किसी सामाजिक आंदोलन के जनजुटाव में आई हों. उन पर कुछ न बोलिए, कुछ न लिखिए तो भी वे चुप तस्वीरें हौले-हौले आपके ज़ेहन में कुछ बोलती हुई उतर जाएंगी.

ब्रेख़्त नाटकों को एक राजनीतिक अभिव्यक्ति मानते थे. इसी तरह ये तस्वीरें भी अपनी सशक्त राजनीतिक अभिव्यक्ति दर्ज कराती हैं. ये, इन कोलाजों में कुल 19 व्यक्तियों की तस्वीरे हैं. एक बीसवीं तस्वीर डॉ. अंबेडकर की है. ढूँढिए वह कौन सी है?

ये कुल 20 तस्वीरें, दिल्ली में मंडी हाउस से जंतर-मंतर तक हुए आंदोलन की तस्वीरें हैं. यह आंदोलन विश्विद्यालय में नियुक्तियों को लेकर नवीन रोस्टर प्रणाली के खिलाफ उठ खड़ा हुआ है. इस नवीन रोस्टर व्यवस्था में ओबीसी व एससी-एसटी वर्गों के लोगों का प्रतिनिधित्व मारा जा रहा है. इस व्यवस्था को चट-पट लागू करने के लिए देश के कई विश्विद्यालय भर्तियां भी निकाल रहे हैं. इसी के विरोध में यह आंदोलन उठ खड़ा हुआ है.

आंदोलन को लेकर यह कुछ जरूरी सूचनाएं थीं, लेकिन मेरा फ़ोकस इस आंदोलन में चली आईं इन तस्वीरों को लेकर है.

ये तस्वीरें उन सांस्कृतिक व्यक्तित्वों की हैं जो छांव भी देते हैं और आह्वान भी बनाते हैं. सावित्रीबाई फुले, पेरियार, ज्योतिबा, नारायण गुरु, बाबू जगदेव प्रसाद और कर्पूरी ठाकुर जैसे नाम अपनी प्रेरणाओं और काम के चलते विमर्श व अभिव्यक्ति का विषय हमेशा रहे हैं. इन्हीं में एक नाम संत गाडगे का है, जोकि धोबी जाति से थे और खुद अनपढ़ थे. वे अनपढ़ थे तो उनका इस विश्वविद्यालय के मुद्दे में क्या काम?

लेकिन यहीं पर इतिहास व समकालिकता का वह बिंदु आकर प्रस्तुत हो जाता है जहाँ सामान्य सा कोई बीज रोपने वाला कर्मशील आदमी भी वृक्ष की संतानों का पुरखा ठहरता है. संत गाडगे कहते थे – शिक्षा सबके लिए होनी चाहिए वह किसी की ठेकेदारी नहीं है, रोटी से ज्यादा जरूरी है शिक्षा, वे अपने साथ हमेशा एक झाड़ू रखते थे, जोकि हर तरह की गंदगी की सफाई का प्रतीक था.

बड़ी सी दाढ़ी में प्रश्नवाचक मुद्रा में पेरियार, दलित पिछड़ो के हर आंदोलन में क्यों आ खड़े होते हैं, यह एक छात्र संगठन के नारे से समझ में आता है – ” पेरियार जिंदा हैं, अम्बेडकर जिंदा हैं, तो हम जिंदा जिंदा हैं.”

एक तरफ, सबसे अनजानी तस्वीर गुरु हरिचन्द ठाकुर की दिखती है जिसे एक छात्र अपने सिर के ऊपर उठाया था. गुरु हरिचन्द बंगाल के नामसशुद्र समुदाय से आते हैं. वे 19 सदी में अछूतों के उद्धार के लिए काम करते रहे हैं.

इसी तरह, उधमसिंह से लेकर राजा कृष्ण वाडियार तक की तस्वीरें तख्ती पर टँगी हुई दिखती हैं. शाहूजी, अर्जक संघ के रामस्वरूप वर्मा जैसे नायक इतिहास के ऐसे मोड़ों पर हमेशा चले आते हैं. अब्दुल कय्यूम अंसारी जैसे महान स्वतंत्रता सेनानी की भी एक तस्वीर है, जोकि पसमांदा मुस्लिम वर्ग से आते हैं.

एक तस्वीर बिरसा की भी आती है तो एक फूलन देवी की भी. बिरसा और फूलन देवी को अलग-अलग कालखण्डों में मार दिया गया. लेकिन वे न्याय सुनिश्चित करने के किसी मुहिम में उपस्थित मिलते हैं.

इन सभी नायकों ने अपने समय में और अपनी पहुंच भर संघर्ष के बीज रोपे थे. इन्होंने चिंतन मनन किया. संघर्ष किया, लड़े और जागरूक किया. इनसे प्रभावित जातियों/समूहों के लोगों ने इन्हें अपने बीच सिरजकर रखा और आज के समय में वे समूह इन्हें अपने साथ लेकर आते हैं.

जहाँ एक आदमी केवल खुद एक आदमी होता है वहीं इस तरह की एक तस्वीर सैकड़ों लोगों के जुड़ाव का माध्यम होती है. ये तस्वीरें नारे का काम करती हैं. सामूहिकता का काम करती हैं. और अपने इर्द-गिर्द इन नायकों के किए हुए संघर्ष को स्मारक की तरह जमा कर लेती हैं.

इतनी बड़ी भीड़, अपने संविधान सम्मत अधिकारों के लिए जुटने वाले लोगों का एक सामूहिक हुजूम, एक स्मारक ही तो है.

दक्षिण भारत के पेरियार, वाडियार, और नारायण गुरु से लेकर उत्तर के रामस्वरूप वर्मा, मान्यवर कांशीराम, बंगाल के हरिचन्द ठाकुर से लेकर पंजाब के उधमसिंह तक ये तस्वीरें पूरे भारत को जोड़ रही हैं. सभी जातीय पहचानों को जोड़ रही हैं. अलग-अलग पीढ़ियों में और देश के अलग-अलग कोनों में मानवता के लिए संघर्ष किए हुए इन नायकों ने अपने जीवन मे कभी कल्पना नहीं की होगी कि एकदिन एक साथ आकर ये पूरे भारत को जोड़ देंगे.

यह एक अलग सांस्कृतिक भारत की झाँकी है. जो इन कोलाजों की इन तस्वीरों के साझेपन में नुमायाँ हो रही है. इक्कीसवीं सदी का भारत.

इन तस्वीरों को अपने हाथों में मजबूती से पकड़े हुए, अलग अलग जगहों से आए लोग कुछ न बोलते हुए भी किसी अनाम शायर के इस शेर को अपने अर्थ में व्यक्त कर रहे हैं –
“सोचता हूँ तिरी तस्वीर दिखा दूं उसको, रौशनी ने कभी साया नहीं देखा अपना”.

यह तस्वीरें उन राजनीतिक पार्टियों के लिए भी सबक हैं जिनके नेता नायक और रहनुमा बनने का खोखला आचरण कर रहे हैं. ये एक संदेश की तरह हैं कि समाज यूँ ही नहीं जुड़ता, वर्षों बाद भी तस्वीरें यूँ ही नहीं जुटतीं, नायक सदियों तक यूँ ही नहीं जिंदा रहते. उसके लिए खपना पड़ता है, संघर्ष करना पड़ता है, अपने समय से संवाद करते हुए एक कदम आगे खड़ा होना पड़ता है तब कोई अवां गार्द बनता है, तभी कोई नायक बनकर लोकमानस में बस जाता है.

यह जटिल भारतीय समाज है, यहां ब्रेख्त के नायक-कथन के उलट, यहाँ ये नायक एक सांस्कृतिक पूँजी की तरह हैं और इनकी ये तस्वीरें एक ललकार की तरह हैं. इनकी प्रखर सामूहिकता से आँखे मिलाना अब और किसी अंधकार के बस की बात नहीं.

यह एक अलग सांस्कृतिक भारत का उभार है, जिसकी बुनावट में छाप के रूप में सजी हुई ये तस्वीरें हैं, और जिसका धागा है एक तख्ती में लगी हुई भारत के संविधान के रूप में डॉ. अम्बेडकर की तस्वीर, जिसके लिए फ़राज़ के शेर को अपने अर्थ में लें तो –” देखा तो वो तस्वीर हर इक दिल से लगी थी “.


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