कालीन बुनकरों की अंधेरी दुनिया


plight of kalin business

 

भदोही के कालीन ले लो, भदोही के कालीन. गली से अरसद और नज़ीर की आवाज़ साहिबाबाद के आवासीय कालोनी के फ्लैटों तक पहुंच रही थी. अपनी अपनी बालकनी में घमौनी करते लोग-बाग़ बालकनी से झांककर पूछते हैं– ‘कैसे दे रहे हो कालीन.’ अरसद ऊपर की ओर गला तान कर विनम्रता से कहता है- ‘ले लीजिए बहन जी ठीक ठीक लगा दूंगा.’

साइकिल-टॉली में बीसों कालीन सड़क किनारे छोड़ तीन कालीन उठाए नज़ीर फ्लैट के तीसरे फ्लोर पर आ जाता है. एक पर एक तीनों कालीन बिछाकर नज़ीर ग्राहक को तीन डिजाइन दिखाता है. दाम पूछने पर बताता है साढ़े चार हजार रुपये लगेंगे बहन जी. तभी बाथरूम से घर का पुरुष मालिक निकलकर बोलता है – ‘900 रुपये दूंगा.’ अरसद गिड़गिड़ाता है, ‘इतने में नहीं हो पाएगा साहेब, आपके लिए चार हजार लगा लूंगा.’ साहेब कहते हैं- ‘1200 रुपये से एक पैसे ज्यादा नहीं दूंगा, तुम्हें सौदा पटता हो तो दो नहीं तो जाओ.’

अरसद तीनों कालीन समेटकर फ्लैट से नीचे उतर जाता है. फ्लैट की मालकिन बालकनी से आवाज़ लगाती हैं- ‘1500 में दोगे कि नहीं?’ नज़ीर साइकिल-टॉली की हैंडल पकड़कर कहता है- ‘बहिन जी 2200 लग जाएगें.’ कहते-सुनते नज़ीर 1700 रुपए में कालीन देने को राजी हो जाता है. वो कालीन लेकर फिर ऊपर आता है और ड्राइंगरूम में बिछाकर 1700 रुपए लेकर हाथ जोड़कर शुक्रिया कहते हुए चला जाता है.

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मेरे लिए ये सब देखना किसी कौतूहल से कम न था. मैंने अरसद और नज़ीर से बात की. मैंने पूछा कि इस कालीन को 1700 रुपए में बेंचकर आपको कितना बचा? अरसद बताते हैं कि एक कालीन के पीछे गर हमें 50 रुपये भी मिलते हैं तो हम बेच देते हैं. क्या आप खुद से बनाते हो कालीन? पूछने पर अरसद कहते हैं, “साहेब, कालीन बनाकर बेचूंगा तो बच्चे भूखे मर जाएंगे. हम तो खरीदकर बेचते हैं. तो क्या आप कारीगर से खरीदकर यहां बेचते हैं.

इसके जवाब में नजीर बताते हैं हैं कि नहीं हम तो यहीं दिल्ली के एक व्यापारी से खरीदकर घूम-घूमकर दिल्ली एनसीआर में बेचते हैं. नज़ीर बताते हैं कि उन्होंने कालीन बनाना सीखा है. पहले वो बनाते भी थे. वो बताते हैं कि जब वो 12-13 साल के थे तब सरकार की ओर से कालीन की ट्रेनिंग देने की स्कीम निकली थी. कालीन बनाने की ट्रेनिंग लेने पर सरकार की ओर से 60 रुपये महीने के मेहनताना भी मिलता था. तो उनके अम्मी-अब्बू ने उन्हें कालीन बनाने की ट्रेनिंग दिलवा दी थी. उस वक्त अरसद के अब्बू किताबों के प्रेस में छपाई का काम करते थे.

अरसद और गुड्डू यानि नज़ीर उत्तर प्रदेश के शाहजहाँपुर जिले के हैं, और यहां दिल्ली के सीलमपुर इलाके के झुग्गी बस्ती में किराए पर रहते हैं. गुड्डू उर्फ नज़ीर अहमद की उम्र 38 साल है. दो साल पहले नज़ीर की बीबी का बीमारी से इंतकाल हो गया. उनकी चार बेटियां हैं. बड़ी बेटी की उम्र 18 साल है और सबसे छोटी की उम्र 7 साल. नज़ीर निरक्षर हैं लेकिन अपनी चारों बेटियां गांव के सरकारी स्कूल में पढ़ने के लिए भेजते हैं. नज़ीर आगे बताते हैं कि जब ठंड खत्म हो जाती हैं तो कालीन बेचने का काम मंदा पड़ जाता है, उस समय वो घूम घूमकर सब्जियां बेचकर अपना परिवार पालते हैं.

अरसद की उम्र 21 साल है और अभी उनका निकाह नहीं हुआ हैं. परिवार में अब्बा और पांच भाई हैं. अरसद के दो बड़े भाई प्रिंटिंग प्रेस में काम करते हैं जबकि दूसरे दो भाई दर्जी का काम करते हैं. जबकि अरसद के अब्बा ट्रक ड्राईवर हैं. अरसद ने आठवी कक्षा तक की पढ़ाई की है.

डेढ़ से तीन महीने लगते हैं एक हैंडमेड कालीन की बुनाई में

अरसद बताते हैं कि 5/7 की एक कालीन बनाने में दो मजदूरों को डेढ़ से दो महीने लग जाते हैं जबकि 6/9 साइज का कालीन बनाने में दो मजदूरों को 2-3 महीने लग जाते हैं. बेड के किनारे बिछाया जाने वाला ‘बेड साइड कालीन’ 2/6 साइज का होता है और इसे बनाने में दो दिन लग जाते है. वो लोग इसे दिल्ली के एक सेठ से 500 रुपए में ले आते हैं और 550-650 रुपये में बेचते हैं.

क्या मिलता है कालीन बुनकरों को

फ्लैटों से लेकर पॉश एरिया के मकानों और कोठियों के फर्शों पर बिछकर उनकी औकात में चार चांद लगाने वाले जिन कालीनों को बनाने में दो मजदूरों को तीन महीनें लग जाते हों गर वो कालीन 1700 रुपये में बिकें तो कल्पना कीजिए की इन कालीनों को बनाने वाले बुनकरों को कितना मिलता होगा? कालीन बुन कैसे चलता होगा उनका परिवार? दरअसल कालीन का कारोबार पूरी तरह से बुनकरों के शोषण और उत्पीड़न पर टिका है. अधिकांश बुनकर कम उम्र के बच्चे या अनाथ लोग होते हैं. जिन्हें रहने, खाने और साल में दो जोड़ी कपड़े देकर उनसे कालीन बुनवाने का काम लिया जाता है. लागत और मुनाफे के ताने बाने में मजदूर की मजदूरी मार ली जाती है. बाल मजदूरी और बंधुआ मजदूरी के बूते ही इतने कम दामों पर कालीन बिक रहे हैं.

भदोही है कालीन बुनकरों का गढ़

राष्ट्रीय स्तर पर कालीन के कुल लगभग 10 हजार करोड़ के कारोबार में तकरीबन आधा अकेले भदोही-मिर्जापुर क्षेत्र की हिस्सेदारी है. इसमें विशेषकर भदोही के हैंडमेड कालीनों का पूरी दुनिया में कोई जोड़ नहीं है. देश के कालीन निर्यात में हर वर्ष लगभग चार हजार करोड़ की भागीदारी निभाने वाले भदोही जिले में बुनकरों की माली हालत बेहद खराब है. कालीन कारोबार को फर्श से अर्श तक पहुंचाने वाले हुनरमंद हाथों को अब भी 100 से 150 रुपये के दिहाड़ी में संतोष करना पड़ता है.

आर्थिक तंगी के बीच लंबे समय तक काम करते रहने का नतीजा है कि बड़ी संख्या में बुनकरों ने कालीन बुनकरी के काम से किनारा कर लिया. जो कुछ बचे खुचे हैं, वो भी मनरेगा में काम कर अपनी आजीविका की कुछ अपरिहार्य ज़रूरतों को पूरा करते हैं. और खाली समय में कोई दूसरा काम न मिलने और अपने हुनर को जिंदा रखने की गरज से कालीन बुनाई का काम करते हैं. ज्यादा वक्त लगने, मजदूरों के श्रम का शोषण होने और मशीनमेड कालीनों को बढ़ावा मिलने से हैंडमेड कालीन बनाने की कला का अस्तित्व वैसे ही संकट में है.

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं.)


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