खानाबदोश सी ज़िंदगी जीने को मजबूर मजदूर


plight of labourer in delhi

 

दिल्ली में तिलक ब्रिज और शिवाजी ब्रिज रेलवे स्टेशन पर पटरियों की मरम्मत, पुराने प्लेटफॉर्म का सौंदर्यीकरण और नए बने प्लेटफॉर्म पर बिजली के खंभों की फिटिंग और तार खींचने का काम बहुत तेजी से चल रहा है.

इस काम करने के लिए सैंकड़ों मजदूर दिल्ली के बाहर के राज्यों से लाए गए हैं. कई मजदूरों के साथ उनका परिवार भी आया है. यहां काम करने वाले मजदूरों में से अधिकांशतः मध्य प्रदेश, पश्चिम बंगाल के मुर्शिदाबाद, उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद, मोरादाबाद, महोबा, बुंदेलखंड से हैं.

अकालग्रस्त क्षेत्रों और निर्धन जिले के मजदूरों में बढ़ी बंजारा प्रवृत्ति

यूपी के महोबा जिले में 2013 से लेकर 2016 तक लगातार चार साल भयंकर अकाल पड़ा था. तब लोगों को पानी के लिए कई कई किलोमीटर दूर जाना पड़ता था. लाखों मवेशी प्यास से मरे थे. गरीब तबके लोगों को तो दाना पानी के लाले पड़ गए थे. उस वक्त महोबा और बुदेंलखंड से निम्न तबके के लोगों का जबर्दस्त विस्थापन हुआ था. वैसे भी महोबा और बुंदेलखंड में भयंकर अकाल का एक पीरियडिक इतिहास है.

1989 से 2016 के बीच महोबा में 16 बार अकाल पड़ा है. पिछले दो सालों में मैंने दिल्ली से इलाहाबाद तक जहां भी मजदूरों की रिपोर्टिंग के लिए गया हूँ मुझे आश्चर्यजनक रूप से हर जगह अच्छी खासी मात्रा में बुंदेलखंड, महोबा और बांदा के मजदूर बीबी-बच्चों समेत मिलते हैं. ये लोग जहां जहां काम के लिए जाते हैं परिवार को साथ लेकर जाते हैं.

यहां काम करने वालों में पश्चिम बंगाल के मुर्शिदाबाद जिले से भी करीब तीस मजदूर अपने बीबी बच्चों के साथ आए हैं. बता दें कि मुर्शिदाबाद देश का सबसे गरीब जिला है. जहां देश की 1.47 फीसदी निर्धन आबादी निवास करती है. कुछ साल पहले जब एक नया स्टेशन ‘आनंद बिहार टर्मिनल’ बन रहा था तब भी वहीं स्टेशन के बगल में बिहार और बंगाल (मुर्शिदाबाद) के सैंकड़ों मजदूर सपरिवार डेरा डाले हुए थे. अधिकांश मजदूरों के साथ उनकी बीबी और छोटे बड़े बच्चे भी थे. यकीनन ये स्कूल नहीं जाते होंगे. ये अपनी पीढ़ी में निरक्षरता लेकर जाएगें और ताउम्र शोषित होते रहेंगे.

काम छिन जाने का खौफ़

बेरोज़गारी इस कदर और इतने विकराल रूप में है मौजूद है कि एक भी मजदूर बात करने के लिए तैयार नहीं हुआ जबकि मैंने तब तक उन सबसे अपनी पहचान छुपाकर रखा था. जब भी मैं किसी मजदूर से बात करने की कोशिश करता वो सीधे तौर पर मुझसे कहते कि आपको जो भी बात करना या जानना हो आप सुपरवाइजर या मुंशी से बात करें हम आपसे बात नहीं कर सकते. एक मजदूर ने बात भी की तो आखिर में हाथ जोड़कर बोला कि साहेब मेरा नाम कहीं मत लेना वर्ना ये काम भी छूट जाएगा.

मुझे कुछ साल पहले के अपने गांव के मजदूरों की बातें याद आ गई. जब वे बिहार और उड़ीसा के मजदूरों को गाली देकर कहते – ‘ये बिहारी मजदूर जहां भी जाते हैं रेट इतना गिराकर काम करते हैं कि दिहाड़ी की दर खराब कर देते हैं. समझ में नहीं आता कि ये इतने कम पैसे में परिवार का गुजारा कैसे करते हैं?’

नहाना, खाना, रहना सब प्लेटफॉर्म पर

तिलक ब्रिज के नये बने प्लेटफॉर्म (5-6) पर सुबह 7 बजे के पहले और रात को 7-8 बजे के बीच ईंट के चूल्हे पर पचासों मजदूर बीबी बच्चों के साथ क्रमवार बैठे खाने बनाते खाते दिख जाएगें. नहाने का काम सामूहिक रूप से पटरियों पर होता है. तिलक ब्रिज के शौचालय के स्टेशन पर तालाबंदी है. जबकि शिवाजी ब्रिज का शौचालय भी तोड़-फोड़ के चलते इस्तेमाल लायक नहीं है. तिलक ब्रिज स्टेशन के बाहर दिल्ली नगर निगम का एक महिला शौचालय है, महिला मजदूर शौच के लिए वहां जाती हैं. जबकि पुरुष मजदूरों को शौच के लिए मंडी हाउस या कनाट प्लेस के नगर निगम शौचालय में जाना पड़ता है. कई बार वो अंधेरे का फायदा उठाकर पटरियों का भी इस्तेमाल कर लेते हैं.

तिलक ब्रिज स्टेशन के बाहर टिकट खिड़की और स्टेशन सीढ़ी के बीच बीसों टेंट ताने गए हैं. मजदूर अपने परिवारों के साथ इन्हीं टेंटों में सामूहिक रूप से सोते हैं. एक एक टेंट में कई परिवार रहते हैं.

जिस दिन काम नहीं होता उस दिन दिहाड़ी नहीं मिलती

पिछले दो महीने में कई दिन बारिश के चलते काम नहीं हुआ. ऐसी स्थिति में उस दिन दिहाड़ी नहीं मिलती. एक मजदूर ने बताया कि सामान्य तौर पर 300 रुपये दिहाड़ी मिलती है. इसके अलावा कुछ नहीं. मजदूर अपने खाने पीने की व्यवस्था अपने पैसे से करते हैं. मुर्शिदाबाद से आए लालचंद नामक मजदूर ने बताया कि खंभों पर तार फिटिंग का रात में होता है.

मैंने उससे पूछा कि क्या तुम इस तरह के काम में कुशल (ट्रेंन्ड) हो तो उसने कहा नहीं. मैंने उससे पूछा कि बिना किसी दक्षता के तुम इलेक्ट्रिक का काम कैसे करते हो. ये तो इलेक्ट्रिशियन का काम है. इसके लिए कुशल मजदूर होते हैं. तो उसने कहा कि एक इलेक्ट्रीशियन बताने के लिए होता है क्या करना है. रात के काम के कोई अतिरिक्त पैसे नहीं मिलते.

पिछली कंपनी ने नहीं दिए काम के पैसे

इलाहाबाद (प्रयागराज) के मूरतगंज से आए कमलेश बतातें हैं यहां से पहले वो इलाहाबाद जंक्शन रेलवे स्टेशन पर कई महीने काम किए थे. वहां वो कंपीटैंट इलेक्ट्रिक सिस्टम के अधीन काम करता था.

कमलेश बताते हैं कि उन्हें पिछले काम का पैसा अभी तक नहीं मिला. अधिकतर मजदूरों का अनुभव है कि अक्सर वो जहां भी काम करते हैं उनके आखिरी कुछ महीनों के पैसे ठेकेदार या कंपनी मालिक द्वारा जानबूझकर फंसा लिया जाता है.

कम दिहाड़ी मिलने का सवाल

शिवाजी ब्रिज स्टेशन के पास एक युवा इंजीनियर से पूछा कि कंपनी ने सिर्फ बाहरी मजदूरों को ही क्यों रखा है जबकि यहां आपको स्थानीय मजदूर भी मिल जाते. तो जवाब में उसने कहा स्थानीय मजदूर काम नहीं करते वो नेतागीरी में लग जाते हैं.

पिछले हफ्ते काम बढ़ने पर निजामुद्दीन से कुछ स्थानीय औरतों को पकड़कर काम के लिए ले आए थे. उल्टे वो ही धमकाने लगी कि एक दिन का एक हजार से कम नहीं लेंगी. वो जो काम करती हैं उसका एक रात का एक हजार रुपये आसानी से मिल जाता है. जबकि बाहर के मजदूर ज्यादा चूं चां नहीं करते जितना समझा दो, बस उतना ही करते हैं.

सभी तस्वीरें – सुशील मानव


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