गोधन का राजनीतिक इस्तेमाल तो खूब हुआ, सुध किसी ने नहीं ली


Political use of cow was good, no one took good care

 

पिछले लोकसभा चुनाव में बीजेपी की ओर से घोषित प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेन्द्र मोदी ने बिहार में अपनी एक चुनावी जनसभा में पिंक रिवॉल्यूशन (मतदाताओं का ध्रुवीकरण करने के लिए गो-मांस का मुद्दा उछाला था) का मसला उठाते हुए राजद नेता लालू प्रसाद यादव को कठघरे में खड़ा किया था. मोदी के इस तंज से राजनीतिक पंडितों ने अनुमान लगाया था कि अगर मोदी के नेतृत्व में बीजेपी की सरकार बनी तो अब तक बीफ निर्यात में नम्बर वन देशों में शामिल रहे भारत के बीफ निर्यात में कमी आएगी. हालांकि राजनीतिक पंडितों का अनुमान गलत था, क्योंकि सरकारी आंकड़े बताते हैं कि मोदी सरकार के सत्ता में आने के बाद से भारत बीफ निर्यात में लगातार आगे बढ़ता गया.

भारत के बाद ब्राजील फिर ऑस्ट्रेलिया का नम्बर आता है. साल 2014-15 के दौरान भारत ने 24 लाख टन बीफ का निर्यात किया था, जबकि ब्राजील ने 20 लाख टन और ऑस्ट्रेलिया ने 15 लाख टन बीफ का निर्यात किया.

वैसे सत्ता में आने के बाद मोदी सरकार ने गोधन से कथित प्रेम का दिखावा करते हुए नियम-कानूनों में फेरबदल किया तो राज्यों की सत्ता में आसीन बीजेपी सरकारें उनसे भी दो कदम आगे निकल गईं. सत्ताधारी दल के नेता और प्रवक्ता लगातार यह अहसास कराने लगे कि गोधन की अनदेखी हो रही है. उसे मारा जा रहा है. उसके साथ दिखने वाले हर शख्स खासकर मुस्लिम वर्ग के लोगों को दुश्मन के रूप में देखा जाने लगा. देखते ही देखते हालात ऐसे बने कि किसान के खूंटे पर शोभा बढ़ाने वाला गोधन लावारिस छोड़ दिया गया. उसकी आड़ लेकर लोगों को निशाना बनाया जाने लगा. इस निशानेबाजी में करीब 60 लोगों को असमय मौत के घाट उतार दिया गया तो बड़ी संख्या में लोग जख्मी हो गए. गोहत्या रोकने के नाम पर पशुधन के व्यापार पर लगी पाबंदियों और जहां-तहां गोतस्करी को पकड़ने के नाम पर चल रही हिंसा ने पशुधन की अर्थव्यवस्था की कमर तोड़ दी. एक ओर किसान की आमदनी को धक्का लगा वहीं दूसरी ओर खेतों में आवारा पशुओं की समस्या ने भयंकर रूप ले लिया.

इसके बावजूद मौजूदा लोकसभा चुनाव में किसी भी राजनीतिक दल के लिए आवारा गोधन कोई मुद्दा नहीं है. इसकी एक वजह यह हो सकती है कि विपक्षी दल गाय अथवा गोधन का अपने घोषणा पत्र में जिक्र करते तो बीजेपी उसे भावनात्मक मुद्दा बनाकर बढ़त हासिल करने का प्रयास करती. हालांकि कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी ने पिछले दिनों फैजाबाद और अमेठी की अपनी चुनावी सभाओं में इस बात को जोर-शोर से उठाया है तो सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव ने भी सरकार बनते ही बुंदेलखंड में पशु समस्या का समाधान करने की बात कही है. इतना ही नहीं 25 अप्रैल 2018 को उनकी रैली में जिस तरह से एक सांढ़ ने घुसकर एक सिपाही पर हमला कर दिया, उसको लेकर उन्होंने ट्वीट भी किया, “कल रैली में एक सांड़ अपना ज्ञापन देने घुस आया और बीजेपी सरकार का गुस्सा बेचारे सिपाही पर निकाल डाला. जब उसे बताया कि ये उनको बेघर करने वालों की रैली नहीं है तब जाकर वह शांत हुआ.”

बीजेपी के विरोधी दल भले ही इस मुद्दे को जोर-शोर से न उठा रहे हों, लेकिन ग्रामीण मतदाताओं के लिए यह एक बड़ा मुद्दा है और वह इसे ध्यान में रखकर वोटिंग कर रहा है और आने वाले चरणों में करेगा.

फसल की उम्मीद लहलहाने के बावजूद किसानों की रात की नींद और दिन का चैन मुहाल हो जाता है. आवारा गोधन किस क्षण उसकी बर्बादी का सबब बन जाए कहा नहीं जा सकता. पहले बारिश फिर जानलेवा शीत लहरी और अब इस गर्मी में किसान खेतों की रखवाली करने को मजबूर हैं. किसान इस आवारा गोधन से फसल बचाने के लिए रस्सी, सामान्य, कंटीले, ब्लेड के तार और सीमेंट अथवा लकड़ी के पिलर पूरा नहीं कर पा रहे हैं. पहले गांवों में लोगों का पशुओं के साथ अटूट रिश्ता था. खेती-किसानी की आर्थिकी में गाय की अपनी महिमा थी. उसके दिए बछड़े बैल बनते थे. बछिया गाय बनती थी. उस समय चारे का संकट नहीं था. बड़े-बड़े चरागाह होते थे. खूब सूखा चारा होता था. हर घर में कई-कई पशु होते थे. एक-दो जोड़ी बैल और भैंसा होते थे.

लेकिन भूमंडलीकरण की नीतियां लागू होने के बाद बाजार का दखल बढ़ा. बैंक लोन देने में उदार हो गए. अब तक बैलों-भैंसों से खेती करने वाले बड़े खेतिहरों ने ट्रैक्टर खरीद लिए. जो लोग खुद ट्रैक्टर नहीं रख सकते थे वे किराए पर ट्रैक्टर से जुताई कराने लगे. खेती-किसानी में बैलों की लगभग उपयोगिता खत्म हो गई. पहले उनसे जुताई होती थी. बैलगाड़ी में इस्तेमाल होता था. फसलों की मड़ाई की जाती थी. अब लगभग सब बंद हो गया. बैलों की उपयोगिता खत्म हुई तो उन्हें कौन पूछे. बछड़ों को कौन पूछे. उनका क्या करे. जब देशी गाय और उसके बछड़े ही काम नहीं आ रहे तो जर्सी अथवा हाइब्रिड नस्ल की गायों के बछड़ों की क्या बिसात. वह तो खेती लायक भी नहीं होते.

दिन पर दिन बढ़ते चारे के संकट से गोधन की संख्या लगातार गिर रही है. उत्तर प्रदेश की बात करें तो वह दुग्ध उत्पादन और पशुओं के मामले में देश में पहले नंबर पर है. 19वीं पशु गणना के मुताबिक यहां केवल गोवंशीय पशु यानी गायों और बैलों की संख्या 1,95,57,067 है. इनमें से 49,07,144 नर हैं और 1,46,49,923 मादा हैं. वैसे जिन राज्यों में गोहत्या विरोधी कठोर कानून हैं वहां गोधन कम हुआ है जबकि भैंसों की आबादी अधिक है.

डाउन टू अर्थ पत्रिका में जितेंद्र लिखते हैं, “1951 और 2012 में दो पशुधन जनगणना के बीच मवेशियों की आबादी में 23 प्रतिशत की वृद्धि हुई, जबकि भैंस की आबादी में 150 प्रतिशत की वृद्धि हुई….राजस्थान में 50 फीसदी पशुधन भैंस है, जबकि हरियाणा में 77 फीसदी, उत्तर प्रदेश में 61 फीसदी और पंजाब में 67 फीसदी. लेकिन केरल और पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों में जहां कठोर कानून नहीं है, वहां क्रमशः 93 प्रतिशत और 96.5 प्रतिशत गाय और बैल हैं.”

अधिकांश लोग अब गायों को उसी समय तक रखते हैं जब तक वह दूध देती हैं. इसके बाद वह उन्हें छोड़ देते हैं. पहले गाय दूध देना बंद कर देती थी तो लोग उसे बांधकर खिलाते थे. अगली बार वह और ज्यादा दूध दे इसके लिए उसकी सेवा करते थे. समय आने पर वह अगला बच्चा देने के साथ दूध देती थी. यह क्रम उसके बच्चा देने की क्षमता तक जारी रहता था. तत्पश्चात वह उसे मरने तक बांधकर इस मंशा के साथ खिलाता था कि उसने अपने जीवन में बहुत दूध दिया है. इस बीच अगर उस किसान के पास ज्यादा पशु हो जाते थे तो वह उसे किसी जरूरतमंद पशुपालक को बेच देता था. लेकिन आज गाय दूध देना बंद करती है तो किसान एक साल यानी अगला बच्चा देने तक उसे बांधकर खिलाने का खर्च नहीं उठाना चाहता सो वह उसे अनुपयोगी मान छोड़ देता है. करीब पांच साल पहले की बात करें तो पशु बाजारों में गोधन खरीदने-बेचने वालों की भीड़ जुटती थी, लेकिन अब वहां सन्नाटा है. बाजार में आने वाला गोधन अब सड़कों पर घूम रहा है. खेतों में फसलें तबाह कर रहा है और किसानों के लाठी-डंडे खा रहा है.

मोदी सरकार ने पशुओं की खरीद-बिक्री संबंधी अधिसूचना जारी की तो उत्तर प्रदेश की योगी सरकार ने बूचड़खानों पर प्रतिबंध लगाकर उसे आगे बढ़ाया. उन्होंने 6 जून 2017 को आदेश जारी किया कि गाय को प्रताड़ित करने वालों पर नेशनल सिक्योरिटी एक्ट के तहत मुकदमे चलाए जाएंगे. इसी तरह हरियाणा, महाराष्ट्र से लेकर अनेक राज्यों ने भी कड़े नियम कायदे बना दिए. इससे गाय, बैल, बछड़ों की खरीद-बिक्री लगभग बंद हो गई. बूचड़खानों पर प्रतिबंध और कथित गो-रक्षकों के अभियान से लोग सांडों के साथ बछड़ों, बैलों व गायों को भी आवारा छोड़ने लगे. यह विकराल समस्या कब से पैदा हुई तो इसका जवाब है कि उत्तर प्रदेश में योगी सरकार बनने के चंद दिन बाद ही मोदी सरकार ने 23 मई 2017 को मवेशी बाजार से पशुओं के वध के लिए उनकी खरीद-फरोख्त पर प्रतिबंध लगाने संबंधी अधिसूचना जारी कर दी.

अधिसूचना के अनुसार किसी भी शख्स को पशु बाजार में मवेशी लाने की इजाजत नहीं होगी. बाजार में पशु लाने के लिए उसे पशु मालिक की ओर से दस्तखत सहित लिखित घोषणा पत्र पेश करना होगा, जिसमें मवेशी मालिक का पूरा नाम और पता होगा. फोटो पहचान पत्र की एक प्रति लगी होनी चाहिए. साथ ही मवेशी की पहचान का ब्योरा देने के साथ यह भी स्पष्ट करना होगा कि मवेशी को बाजार में बेचने के लिए लाने का उद्देश्य उसका वध नहीं है. पशु बाजार समिति के सदस्य सचिव को सुनिश्चित करना होगा कि एक भी शख्स बाजार में अवयस्क पशु बेचने के लिए न लाए. मोदी सरकार की इस अधिसूचना का पश्चिम बंगाल, पुडुचेरी, केरल व मेघालय सरकार ने विरोध किया. कुछ राजनीतिक दलों ने भी विरोध किया. मोदी सरकार के इस फैसले का कुछ राज्यों में उनके पार्टी नेताओं ने भी विरोध किया.

गाय के नाम पर सियासी आग लगाने वाले यह भूल जाते हैं कि केरल, पश्चिम बंगाल, असम, अरुणाचल प्रदेश, मणिपुर, मिजोरम, मेघालय, नगालैंड, त्रिपुरा, सिक्किम और केन्द्र शासित प्रदेश लक्षद्वीप में गोहत्या पर प्रतिबंध नहीं है. वहां के खान-पान की संस्कृति में गोमांस शामिल है. केन्द्र की अधिसूचना पर पहले मद्रास उच्च न्यायालय ने रोक लगा दी फिर उच्चतम न्यायालय ने उस पर मुहर लगा दी. न्यायालय ने अपने फैसले में कहा कि वध के लिए गाय सहित अन्य मवेशियों के संबंध में केन्द्र की अधिसूचना पर मद्रास उच्च न्यायालय की रोक जारी रहेगी और यह पूरे देश में वैध होगी. न्यायालय ने भले ही उक्त अधिसूचना पर रोक लगा दी, लेकिन गौर करने वाली बात यह है कि अधिसूचना जारी कर मोदी सरकार अपने मंसूबे में लगभग कामयाब रही. उसने गाय को एक राजनैतिक पशु में तबदील कर दिया. सरकारों की मंशा देखते हुए ‘भक्तों’ की भीड़ गो-रक्षा के नाम पर सड़कों पर न्याय करने लगी. लोग गो-धन के साथ निकलने में दहशत खाने लगे. लिहाजा उसके क्रेता-विक्रेता दोनों नहीं रह गए. इसी कारण लोग गो-धन को आवारा छोड़ने लगे. देखते ही देखते उनके झुंड के झुंड नजर आने लगे.

गो-धन का खौफ इतना बढ़ गया है कि पहले से आर्थिक रूप से हैरान-परेशान किसान पर प्रति बीघे और प्रति एकड़ बाड़ का एक बड़ा खर्च लद गया है. ये पशु खेतों के आसपास बाड़ के रूप में लगी रस्सी और तारों को मान नहीं रहे. ऐसे में ब्लेड वाले तार की मांग बढ़ गई है. बड़े अथवा मध्यवर्गीय किसान दसियों हजार रुपए खर्च कर तार लगवाते हैं जिसे चोरी से काटने वालों का एक तबका भी तैयार हो गया है. वह दसियों हजार का तार काटकर दूसरे किसान अथवा कबाड़ी को बेच देता है. चोरी का सामान बेचने में उसे आधे-अधूरे ही पैसे मिलते हैं, लेकिन वह सोचता है कि कौन हमारी मेहनत का है. तार काटने वाली घटनाओं को लेकर गांवों में कानाफूसी, गिरोहबंदी और मारपीट की घटनाएं भी बढ़ी हैं. पंचायतों में आने वाले धन और उसकी बंदरबांट के कारण पहले से वैमनस्यता चरम पर थी, जिसमें गो-धन ने और इजाफा कर दिया है. इसका असर पिछले दिनों राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ सहित पांच राज्यों में हुए विधानसभा चुनावों में भी दिखा है.

इसके बाद ही सही केन्द्र सरकार और कुछ राज्य सरकारें इसे समस्या मानने लगी हैं. वे गो-धन के नाम पर बजट में प्रावधान कर रही हैं. योजनाओं का एलान कर रही हैं. लेकिन उनकी ये योजनाएं मात्र दिखावा हैं. इसका बेहतरीन उदाहरण जुलाई 2014 में शुरू की गई राष्ट्रीय गोकुल मिशन योजना है. इस योजना के तहत देसी गायों के संरक्षण, नस्लों में सुधार, दुग्ध उत्पादन बढ़ाने, पशु उत्पाद की बिक्री आदि अनेक लक्ष्य रखे गए थे. नवम्बर 2018 में सूचना के अधिकार में बताया गया कि उक्त योजना के लिए पिछले पांच साल में करीब 835 करोड़ रुपये दिए गए, जिससे उस तारीख तक महज चार गोकुल ग्राम (वाराणसी, मथुरा, पटियाला, थलवाडे-पुणे) ही बनाए जा सके.

योजना की शुरुआत के समय 13 राज्यों में पीपीपी मॉडल के तहत 20 गोकुल ग्राम बनाने की बात कही गई थी, जिसके लिए 197.68 करोड़ रुपये का बजट भी था. इसमें से 68 करोड़ रुपये जारी कर दिए गए थे, लेकिन 26 नवम्बर 2018 तक महज चार गोकुल ग्राम ही बन सके. लेकिन चुनावों में अपनी जमीन खिसकती देख केन्द्र की मोदी और उत्तर प्रदेश की योगी सहित अन्य बीजेपी शासित राज्य सरकारें भले योजनाओं का एलान करें…पर वह यह नहीं समझेंगी कि यह सब फौरी चीजें हैं. इससे समस्या का स्थायी समाधान नहीं होगा. गाय की असली जगह किसान का खूंटा है. ऐसे में जरूरत इस बात की है कि किसान और गाय में बनी दूरी को पाटने का काम किया जाए.


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