मोदी लोहिया को चुनावी मौसम में क्यों भुनाना चाहते हैं?


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प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मार्च में एक ब्लॉग लिख कर कहा था कि अगर डॉक्टर राममनोहर लोहिया जीवित होते, तो उनकी सरकार पर गर्व करते. मोदी और उनकी पार्टी, लोहिया की राजनीति और विचारधारा के वारिस नहीं हैं. इसलिए मोदी ने जो कहा है वह एक असामान्य या विचित्र दावा ही कहा जाएगा.

सवाल यह है कि आखिर लोहिया को अपने पाले में दिखाने की जरूरत मोदी को इस वक्त क्यों महसूस हुई, जब आम चुनाव सिर पर था. क्या इसका चुनाव से कोई वास्ता हो सकता है? क्या पता हो! मोदी जैसे राजनीतिक दांव-पेच के धुरंधर खिलाड़ी ने इस वक्त अचानक लोहिया का नाम उछाला है तो चुनावी रणनीति से इसका कुछ संबंध हो भी सकता है.

लोहिया ने ही कभी ‘पिछड़ा पावे सौ में साठ’ का नारा दिया था. अलबत्ता पिछड़ों की उनकी परिभाषा में अल्पसंख्यक भी आते थे, और यह परिभाषा बीजेपी को शायद ही मंजूर हो. भले ही मंडल आयोग की सिफारिशें, इस दुनिया से लोहिया के विदा होने के बहुत बाद में लागू हुईं, पिछड़ों के लिए आरक्षण की पुरजोर वकालत और अपनी सामाजिक नीति के कारण लोहिया मंडल-राजनीति प्रवर्तक माने गए. लेकिन लोहिया की राजनीति और चिंतन व सरोकारों का दायरा बड़ा था.

यह बड़े अफसोस की बात है कि आज मुख्यधारा की राजनीति में अपने को लोहिया का अनुयायी कहने वाले जो भी लोग हैं उन्होंने लोहिया की विरासत को केवल आरक्षण तक समेट दिया है. यही नहीं, उसे बहुत हद तक विकृत भी बना दिया है. आज उसमें जनाधार की तलाश और चुनावी गोलबंदी साधने की चतुराई भले हो, समाज परिवर्तन की लोहिया जैसी दृष्टि और धार कतई नहीं दिखती.

जब चुनावी लड़ाई चरम पर हो, उस वक्त मोदी ने लोहिया का नाम भुनाना चाहा है, तो इसके पीछे सामाजिक न्याय से जुड़ी लोहिया की छवि एक खास वजह रही होगी. बीजेपी के दिग्गज पूर्वजों में शायद कोई नहीं था जिसे सामाजिक न्याय का पुरोधा कहा जा सके. इसलिए लोहिया ही नहीं, कई बार कर्पूरी ठाकुर भी बीजेपी को अचानक बहुत याद आने लगते हैं. इस सब से, पिछड़े वर्ग के वोट के लिए बीजेपी की बेकरारी ही जाहिर होती है. लेकिन मोदी के ताजा ब्लॉग के पीछे एक और वजह हो सकती है, वह यह कि लोहिया को नेहरू के जमाने की विपक्ष की सबसे प्रखर वाणी होने के साथ-साथ गैर-कांग्रेसवाद के लिए भी जाना जाता है.

बीजेपी समेत समूचा संघ परिवार किस तरह हाथ धोकर नेहरू के पीछे पड़ा है और नेहरू का मान-मर्दन करने में कोई कसर नहीं रखना चाहता, यह किसी से छिपा नहीं है. शायद मोदी को लगता होगा कि कांग्रेस को घेरने और नेहरू की छवि बिगाड़ने में भी लोहिया के नाम का इस्तेमाल किया जा सकता है.

जयप्रकाश नारायण की तरह लोहिया भी 1942 की अगस्त क्रांति के सूरमाओं में थे. जब देश आजादी की लड़ाई लड़ रहा था, तब राष्ट्रवाद का झंडाबरदार बना आरएसएस क्या कर रहा था, यह सवाल उठता रहा है. इसलिए मोदी ने अपने लिए या अपनी पार्टी के लिए लोहिया का जो बेहद चालाकी-भरा इस्तेमाल करने की कोशिश की है उसके पीछे बीजेपी और संघ की वही रणनीति हो सकती है जो सरदार पटेल को लेकर रही है, खुद के इतिहास की विपन्नता को ढंकने और दूसरों के साइनबोर्ड पर अपना नाम लिखने की.

बहरहाल, मोदी अगर लोहिया का नाम लेना चाहते हैं तो शौक से लें. पर सवाल है कि क्या लोहिया होते, तो बीजेपी का साथ दे रहे होते, जैसा कि मोदी ने दावे के साथ कहा है? इस सवाल का हां में जवाब वही लोग दे सकते हैं जो लोहिया और नीतीश कुमार जैसे लोगों में कोई फर्क न समझते हों!

लोहिया अगर होते तो मोदी और बीजेपी को लेकर उनका क्या रुख होता, इस सवाल का सही जवाब पाने के लिए हमें लोहिया के उद्देश्यों या मुख्य सरोकारों को याद करना होगा. गैर-कांग्रेसवाद लोहिया का कोई मुख्य सरोकार नहीं था, वह एक चुनावी रणनीति-भर थी, और वह भी बस एक चुनाव की. विपक्ष के एक नेता के तौर पर यह रणनीति उन्होंने इसलिए अपनाई क्योंकि उस जमाने में कांग्रेस लगभग समूचे देश में बहुत ताकतवर थी और चुनाव में उससे पार पाना तमाम विपक्षी पार्टियों का गठजोड़ या तालमेल किए बिना संभव नहीं दिख रहा था. आज कांग्रेस खुद विपक्ष में है. इसलिए अब गैर-कांग्रेसवाद का कोई अर्थ नहीं है.

फिर, लोहिया के मुख्य सरोकार क्या थे? सब जानते हैं कि वह समाजवादी नेता और विचारक थे. समाजवाद को लोकतंत्र से जोड़ने और समाजवाद को देशज स्वरूप देने में उनकी अद्वितीय भूमिका थी. आर्थिक विषमता भी उन्हें चुभती थी और सामाजिक विषमता भी. आर्थिक विषमता मिटाने के लिए उन्होंने जहां अधिकतम और न्यूनतम आय में एक और दस से अधिक का फर्क न होने का फार्मूला पेश किया, वहीं सामाजिक विषमता मिटाने के लिए जाति तोड़ने का कार्यक्रम रखा. नर-नारी समता की मुहिम चलाई.

क्या मोदी देश में समाजवाद लाना चाहते हैं? क्या वे आर्थिक विषमता कम करना चाहते हैं? तमाम अध्ययन बताते हैं कि उदारीकरण के दौर में आर्थिक गैर-बराबरी और बढ़ी है, और पिछले पांच साल के मोदी-राज में तो आर्थिक विषमता बढ़ने की गति कम होने के बजाय और तेज हुई है. अगर लोहिया होते, क्या यह देख कर खुश होते? लोहिया के निधन के इतने दशक बाद भी, बीजेपी में यह साहस नहीं है कि वह लोहिया की तरह जनेऊ तोड़ने का आह्वान कर सके.

यह लोहिया ही थे जिन्होंने पहले-पहल किसानों की सबसे दुखती रग को पहचाना- वह यह कि जब पैदावार अच्छी नहीं होती तब तो किसान संकट में होता ही है, जब पैदावार अच्छी हो तब भी वह खुद को ठगा हुआ पाता है, क्योंकि उपज का पुसाने लायक दाम नहीं मिलता. इसलिए उन्होंने कृषि पैदावार के लिए लागत से डेढ़ गुना दाम की वकालत की, स्वामीनाथन आयोग की रिपोर्ट आने से दशकों पहले.

मोदी ने पिछले लोकसभा चुनाव में अपनी तमाम चुनाव रैलियों में किसानों से वादा था कि अगर उनकी सरकार बनी, तो स्वामीनाथन आयोग की सिफारिश के मुताबिक फसल का लागत से डेढ़ गुना दाम मिलेगा. लेकिन केंद्र की सत्ता में आते ही मोदी और उनकी पार्टी ने इस वादे को धूल में मिला दिया. अगर लोहिया होते तो क्या वे किसानों से की गई इस वादाखिलाफी पर खुश होते? या इस वादाखिलाफी पर मोदी से जवाब तलब करते? सत्ता में आते ही मोदी का किसान-विरोधी रुख जाहिर हो गया था, जब उन्होंने संसद में सर्वसम्मति से बने भूमि अधिग्रहण कानून को पलटने के लिए अध्यादेश जारी किया. एक नहीं, तीन या चार बार. विडंबना यह है कि वह कानून जब बना था तो उस संसदीय सर्वसम्मति में भारतीय जनता पार्टी की रजामंदी भी शामिल थी. लेकिन मोदी की मंशा के आगे पूरी पार्टी ने अपनी उस सहमति का मखौल उड़ने देना मंजूर कर लिया था।

यह भी सब जानते हैं कि लोहिया नागरिक अधिकारों के प्रबल पैरोकार थे. उन्होंने एक गोलीकांड पर, जिसमें दो व्यक्ति मारे गए थे, अपनी ही पार्टी की सरकार का इस्तीफा मांगा था. मध्य प्रदेश की पिछली यानी बीजेपी सरकार के समय मंदसौर में छह किसान पुलिस की गोलियों से भून दिए गए. लेकिन तब बीजेपी ने वैसा क्या किया, जो अगर आज लोहिया होते तो खुश होते? मुख्यमंत्री या किसी मंत्री का इस्तीफा मांगना तो दूर, मोदी ने गोलीकांड में मारे गए किसानों के परिजनों से मिलने की भी जरूरत नहीं समझी.

आज तो नागरिक अधिकारों का यह हाल है कि असहमति और विरोध जताना खतरे से खाली नहीं रह गया है. कब किस बात पर आपको ‘हिंदू-विरोधी’ या ‘राष्ट्र-विरोधी’ करार दे दिया जाए, यह किसी कायदे-कानून पर नहीं, केवल सत्ता में बैठे लोगों की मर्जी पर निर्भर करता है. नागरिक अधिकारों की हालत यह है कि रोज हर तरफ भय की ही चर्चा होती है. एक-एक कर, निगरानी और संतुलन (चेक ऐंड बैलेंस) की सारी लोकतांत्रिक संस्थाएं सुनियोजित तरीके से नष्ट की जा रही हैं. क्या हमारे लोकतंत्र का यह हाल देख कर लोहिया खुश होते?

कन्नड़ के सुप्रसिद्ध साहित्यकार यूआर अनंतमूर्ति और विश्वविख्यात चित्रकार मकबूल फिदा हुसैन, दोनों लोहिया से प्रभावित थे और उनके सान्निध्य में भी रहे. अनंतमूर्ति और हुसैन के साथ मोदी के लोगों ने कैसा बर्ताव किया? लोहिया विकेंद्रीकरण के प्रबल पक्षधर थे. लेकिन आज अगर वे होते तो क्या देखते? सत्ता और धन का विकेंद्रीकरण या दोनों का भयानक केंद्रीकरण?

और भी बहुत-सी बातें हैं, मोदी जी, जिन्हें देख कर लोहिया खुश नहीं होते. सच तो यह है कि अगर वे आज होते, तो मौजूदा व्यवस्था और मौजूदा राजनीति के खिलाफ आग उगल रहे होते.


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