झारखंड में बीजेपी एक बार फिर कुर्मी मतदाताओं के भरोसे


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झारखंड में भारतीय जनता पार्टी ने लोकसभा चुनाव के लिए एक बार फिर महतो कार्ड खेल दिया है. उसने अपने पुराने सहयोगी दल ऑल झारखंड स्टूडेंट्स यूनियन (आजसू) पार्टी से चुनावी तालमेल कर लिया है. विपक्षी गठबंधन की वजह से दबाव में आई बीजेपी एक-एक सीट के लिए गुणा-भाग कर रही है. ऐसे में जल, जमीन और जंगल के सवाल पर पहले से ही आदिवासियों की नाराजगी झेल रही बीजेपी सुदेश महतो को नाराज रखने का जोखिम लेने के मूड में बिल्कुल नहीं थी.

झारखंड में लगभग 16 फ़ीसदी कुर्मी मतदाता है. इन्हें साधने के लिए बीजेपी को हर हाल में आजसू से गठबंधन करना था. हालांकि इसका राजनीतिक लाभ कितना होगा, यह तो वक्त ही बताएगा. पर इसके लिए उसे बड़ी कीमत चुकानी पड़ी है. सन् 2004 के लोकसभा चुनाव को छोड़ दें तो लगातार पांच बार गिरिडीह संसदीय क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करने वाले रवींद्र कुमार पांडेय की राजनीतिक बलि देकर गठबंधन हुआ है. इसलिए कि वर्षों से रघुवर सरकार से नाराज चल रहे आजसू के नेता और राज्य के पूर्व उप मुख्यमंत्री सुदेश महतो गिरिडीह संसदीय सीट को अपने खाते में डाले बिना समझौते के लिए बिल्कुल तैयार नहीं थे.

दरअसल, झारखंड में बीजेपी कई मोर्चों पर चुनौतियां झेल रही हैं. पूर्व मुख्यमंत्री और बीजेपी में बड़े आदिवासी नेता अर्जुन मुंडा अपनी उपेक्षा से नाराज होकर हाशिए पर हैं. कुछ समय पहले तक स्थिति ऐसी थी कि पार्टी के कार्यक्रमों में भी उन्हें शायद ही याद किया जाता था. बीते साल उन्होंने इस बाबत सार्वजनिक रूप से अपना दर्द बयां किया था. कहा था, “मैं तो फिलर हूं. जहां कोई नहीं जाता या किसी कारण से मना कर देता है, वहां मुझे बुलाया जाता है.” बदली परिस्थितियों में बीजेपी को उनकी सख्त जरूरत है. लिहाजा उन्हें साधना है.

रघुवर सरकार के ही मंत्री और बीजेपी के वरीय नेता सरयू राय का बगावती तेवर ऐसा कि अपनी ही सरकार और मुख्यमंत्री को घेरने में कोई कसर बाकी नहीं छोड़ रहे हैं. वह अपने बयानों के जरिए राज्य में भ्रष्टाचार रहित सरकार देने के मुख्यमंत्री रघुवर दास के दावों की हवा निकालते रहते हैं. मुख्यमंत्री के साथ खाई इतनी चौड़ी हो चुकी है कि एक मंच पर रहकर भी आंखें नहीं मिलती. चुनाव के ऐन पहले उनके इस्तीफे का डेडलाइन मान-मनौव्वल की वजह से बढ़ रहा है.

कुर्मी-तेली खुद को आदिवासी का अंग मान रहे हैं. मगर आदिवासी उनकी बातों को सिरे से खारिज कर रहे हैं. दोनों के बीच दूरी बढ़ी हुई है. झारखंड की रघुवर दास सरकार में शामिल 42 विधायकों के अलावा दो सांसदों ने कुर्मी-तेली को आदिवासी का दर्जा देने की लिखित मांग कर रखी है. दूसरी तरफ आदिवासियों के एक दर्जन से ज्यादा संगठन कुर्मी-तेली को आदिवासी का दर्जा दिए जाने की कोशिश के खिलाफ मोर्चा ले चुके हैं. इन संगठनों ने कुर्मी-तेली को आदिवासी का दर्जा देने की मांग करने वाले सांसदों और विधायकों को गांव में नहीं घुसने देने तक का एलान कर रखा है.

वन अधिकार कानून के तहत देश के लगभग 11 लाख आदिवासियों से संबंधित मुकदमे में सरकार की ओर से सुप्रीम कोर्ट में बचाव न किए जाने से आदिवासियों का गुस्सा ज्यादा ही बढ़ गया है. इसके साथ ही बीजेपी विरोधियों के इस आरोप को बल मिला कि बीजेपी और उसकी सरकार आदिवासियों की पहचान और अस्तित्व मिटाने पर आमादा है. स्थिति की गंभीरता को देखकर सरकार चौकन्ना हुई है. पर चुनाव के लिए आदिवासियों का विश्वास जीतने की बड़ी चुनौती है.

उत्तर प्रदेश के संत कबीर नगर में बीजेपी सांसद और विधायक के बीच जूतम पैजार सबने देखा. पर झारखंड के गिरिडीह संसदीय क्षेत्र में बीजेपी के सांसद और एक विधायक के बीच तकरार ऐसी बढ़ी कि बीजेपी का चाल, चरित्र और चेहरा सब तार-तार हो गया. राजनीतिक हल्कों में माना जा रहा है कि आसन्न लोकसभा चुनाव सन् 2014 के चुनाव जैसा आसान नहीं है. जाहिर है कि बीजेपी हर संसदीय क्षेत्र में अपने पक्ष में माहौल बनाए रखने के लिए प्रयासरत है. वैसे में ब्राह्मण सांसद और महतो विधायक की लड़ाई के कारण गड़बड़ाए जातीय गणित को ठीक करना भी चुनौती भरा काम माना जा रहा है.

इन तमाम विपरीत राजनीतिक परिस्थितियों के अलावा झारखंड में विपक्षी एकता भी बीजेपी के लिए परेशानी का सबब बन गई है. खुद बीजेपी के प्रदेश अध्यक्ष लक्ष्मण गिलुआ सन् 2014 की मोदी लहर में सिंहभूम संसदीय क्षेत्र से चुनाव जीत गए थे. पर कुछ समय बाद ही जब विधानसभा का चुनाव हुआ तो उनके संसदीय क्षेत्र के सभी छ: विधानसभा क्षेत्रों में बीजेपी के प्रत्याशी हार गए थे. यही नहीं, बीते साल नवंबर में कोलेबिरा विधानसभा क्षेत्र में उप चुनाव हुआ था तो गठबंधन न होने के बावजूद कांग्रेस के प्रत्याशी ने बीजेपी के प्रत्याशी को हरा दिया था. ऐसे में विपक्षी गठबंधन से बीजेपी का परेशान होना लाजिमी है.

इधर, सुदेश महतो और उनकी आजसू पार्टी झारखंड की सत्ता से बाहर रहकर राजनीतिक रूप से सिमटे जा रहे थे. जब तक अर्जुन मुंडा मुख्यमंत्री रहे, आजसू का सितारा चमकता रहा. रघुवर दास के सत्ता में आते ही सितारा गर्दिश में पड़ गया था. यही नहीं, वह अर्जुन मुंडा की तरह खुद ही अपने विधानसभा क्षेत्र सिल्ली से चुनाव हार गए थे. उप चुनाव में भी हार गए थे. राजनीतिक हल्कों में चर्चा थी कि अर्जुन मुंडा से करीबी होने की वजह से रघुवर दास को वे कभी रास नहीं आए. इसलिए बीजेपी के सहयोगी होने के बावजूद बीजेपी उन्हें जीतते देखना नहीं चाहती थी. एक चर्चा यह भी थी कि विधानसभा में बहुमत मिलते ही बीजेपी को आजसू की जरूरत नहीं रह गई थी और बीजेपी उनकी पहले के राजनीतिक मोल-भाव से परेशान थी. इसलिए उनकी अनदेखी की जाने लगी थी.

वजह जो भी हो, राजग के इन दोनों दलों के बीच कड़वाहट इतनी बढ़ी कि सुदेश महतो ने हाल ही घोषणा कर दी कि वह लोकसभा के चुनाव में सभी 14 संसदीय क्षेत्रों से अपने प्रत्याशी खड़ा करेंगे. गिरिडीह संसदीय क्षेत्र में तो अपने लिए तैयारी भी शुरू कर दी थी. पर राजनीतिक प्रेक्षकों की मानें तो यह सब बीजेपी से गठजोड़ के लिए दबाव बनाने की कवायद थी. यानी विपक्षी गठबंधन को ध्यान में रखकर बीजेपी को आजसू की जरूरत थी तो आजसू को भी बीजेपी की जरूरत थी.

कहते हैं कि बीजेपी हाई कमान के निर्देश पर प्रदेश स्तरीय नेताओं के साथ पर्दे के पीछे तालमेल की कोशिशें जारी थीं. पर पेच सीटों के लेकर फंसा हुआ था. सुदेश महतो अपने लिए गिरिडीह संसदीय सीट के अलावा हजारीबाग संसदीय सीट भी चाहते थे.

बीते छह मार्च से घटनाक्रम तेजी से बदला. अमित शाह के बुलावे पर सुदेश महतो दिल्ली पहुंचे. वहां उन्हें एक गिरिडीह सीट देकर तालमेल के लिए राजी करा लिया गया. इसके बाद ही 8 फरवरी को बीजेपी संसदीय बोर्ड की बैठक में आजसू के साथ मिलकर चुनाव चुनाव लड़ने का फैसला कर लिया गया. इसके तुरंत बाद बीजेपी के महासचिव भूपेंद्र यादव मीडिया को गठबंधन की जानकारी देते हुए धोषणा कर दी कि गिरिडीह संसदीय सीट आजसू के लिए छोड़ दी जाएगी. बाकी सीटों पर बीजेपी के उम्मीदवार खड़े होंगे. पर यक्ष प्रश्न यह है कि क्या आजसू पार्टी लोकसभा चुनाव में बीजेपी के पक्ष में महतो मतदाताओं का ध्रुवीकरण कराने में मददगार हो पाएगी?

इस सवाल के जबाव के लिए अतीत के आईने में झांकना होगा. झारखंड में कुर्मी-महतो के दो बड़े नेता हुए. सर्वमान्य नेता और कद्दावर नेता तो बिनोद बिहारी महतो थे, जिन्होंने शिबू सोरेन के साथ मिलकर झारखंड मुक्ति मोर्चा की स्थापना की थी. दूसरे जूझारू नेता निर्मल महतो थे. पर 8 अगस्त 1987 को जमशेपुर में टिस्को गेट हाउस के बाहर अनेक लोगों की मौजूदगी में दिनदहाड़े उनकी हत्या कर दी गई थी. उनकी लोकप्रियता का आलम यह था कि उनकी शवयात्रा में लगभग एक लाख लोग शरीक हुए थे. सन् 1991 में बिनोद बिहारी महतो के निधन के बाद कुर्मी महतो का व्यापक जनाधार वाला कोई नेता नहीं रह गया था.

बिनोद बिहारी महतो के निधन के बाद उनकी राजनीतिक विरासत उनके वकील पुत्र राजकिशोर महतो को मिली. वह सांसद बने. मौजूदा समय में आजसू पार्टी से विधायक भी हैं. पर वह कुर्मी महतो की राजनीति में जल्दी ही अप्रासंगिक हो गए. झामुमो के सांसद शैलेंद्र महतो, जगन्नाथ महतो, बीजेपी के रामटहल चौधरी आदि कुछ नेता झारखंड की सक्रिय राजनीति में थे भी तो उनका प्रभाव खास-खास इलाकों तक ही सिमटा रहा.

बीजेपी ने मौके का फायदा उठाया. इसमें अविभाजित बिहार के झारखंड क्षेत्र में बीजेपी का जनाधार बढ़ाने में जुटे बीजेपी के राष्ट्रीय महासचिव केएन गोविंदाचार्य की सोशल इंजीनियरिंग काम आई. उन्होंने बहुचर्चित झामुमो रिश्वत कांड के अभियुक्त रहे शैलेंद्र महतो को बीजेपी में शामिल कराकर कुड़मी महतो मतदाताओं को अपने पक्ष में कर लिया. दरअसल, कद्दावर महतो नेताओं की अनुपस्थिति में झारखंड के महतो मतदाताओं को शैलेंद्र महतो में संभावना दिखी थी. इसी का बेजा लाभ बीजेपी को मिल गया था. तब से बीजेपी महतो मतदाताओं को अपने पाले में रखने के लिए हर संभव प्रयास करती रही है. इसी मुहिम के तहत बिनोद बिहारी महतो के पुत्र राजकिशोर महतो को भी बीजेपी में शामिल कराकर बीजेपी की टिकट पर संसद भेजा गया था.

झारखंड बनने के बाद कुर्मी महतो के व्यापक जनाधार वाले नेताओं की जगह भरने के लिए सुदेश महतो आगे बढ़े तो उनके जूझारूपन से खासतौर से कुर्मी युवा बेहद प्रभावित हो गए थे. नतीजतन उनकी राजनीति ऐसी चली कि अर्जुन मुंडा को उन्हें उप मुख्यमंत्री बनाना पड़ा था. पर वह लंबे समय में अपनी जाति के भी सर्वमान्य और व्यापक आधार वाले नेता नहीं बन पाए. उनके ही चेले अमित महतो ने उन्हें ऐसा आईना दिखाया कि उनके गढ़ में ही परास्त कर दिया.

एक मुकदमे में अमित महतो की विधानसभा की सदस्यता खत्म हुई तो उनकी पत्नी ने भी सुदेश महतो को हरा दिया. उधर, उनके श्वसुर और गिरिडीह में प्रोफेसर रहे उमेश मेहता जब सन् 2014 के आम चुनाव में अपनी किस्मत आजमाने के लिए खड़े हुए थे तो आजसू के अघोषित समर्थन के बावजूद लगभग पचास हजार वोट मिल पाया था. जाहिर है कि सुदेश महतो, कुर्मी महतो जाति के सर्वमान्य नेता नहीं हैं. गिरिडीह संसदीय क्षेत्र, जहां से सुदेश महतो लोकसभा का चुनाव लड़ने वाले हैं, में जगन्नाथ महतो कुर्मी महतो जाति के कद्दावर नेता हैं. वह मौजूदा समय में झामुमो के विधायक हैं. सन् 2014 में मोदी लहर के बावजूद बीजेपी के रवींद्र पांडेय से लगभग 47 हजार वोटों से हारे थे.

साफ है कि झारखंड में मौजूदा समय में कुर्मी-महतो जाति का कोई भी ऐसा नेता नहीं है, जिसका अपनी जाति के बीच व्यापक जनाधार हो. ऐसे में बीजेपी को इस गठबंधन का लोकसभा के चुनाव में कितना फायदा मिलेगा, यह देखने वाली बात होगी.


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