कांग्रेस का ट्रंप कार्ड
आख़िरकार कांग्रेस ने अपने तुरूप का पत्ता चल दिया है. अपने तरकस से ये अहम तीर उसने तब निकाला है, जब उसके सामने उसके इतिहास की सबसे विकट लड़ाई है. जब स्थितियां प्रतिकूल हैं. जब बेहद गंभीर चुनौती दरपेश है. तब पार्टी ने प्रियंका गांधी वड्रा को वह बड़ी जिम्मेदारी दी है, जिसे निभाना आसान नहीं है. कहा जाता है कि बंद मुट्ठी लाख की. तो क्या खुलने के बाद भी ये मुट्ठी लाख की साबित होगी?
प्रियंका लंबे समय से कांग्रेस कार्यकर्ताओं की उम्मीद रही हैं. कांग्रेसियों को उनमें इंदिरा गांधी की छवि नज़र आती है. यह उनका विश्वास (या अंध-विश्वास) है कि प्रियंका वड्रा कांग्रेस का वह गौरवमय दौर वापस ला सकती हैं, जो इंदिरा गांधी के समय इस पार्टी का था. इस विश्वास का कोई ठोस या ज़मीनी आधार नहीं है. साढ़े तीन दशक पहले कांग्रेस का एक मजबूत सामाजिक आधार था. तब पार्टी के पास एक स्पष्ट वैचारिक दिशा थी. आज पार्टी के पास कोई विशिष्ट सामाजिक आधार नहीं है. उसकी वैचारिक दिशा क्या है, इस बारे भी गुजरे दशकों में भ्रम ही रहा है. अध्यक्ष बनने के बाद राहुल गांधी इस भ्रम को छांटने की कोशिश में हैं, लेकिन अभी यह महज एक प्रयास ही है.
इसलिए प्रियंका गांधी वड्रा से कांग्रेस के पुराने दिन लौटाने की उम्मीद करना यथार्थवादी नहीं हो सकता. बहरहाल, उन्हें पार्टी का महासचिव बनाना और पूर्वी उत्तर प्रदेश की कमान सौंपना यह ज़रूर बताता है कि कांग्रेस का इरादा अपने पास जो कुछ है, उसे पूरी तरह झोंकते हुए अगले लोक सभा चुनाव में उतरने का है. प्रियंका को पूर्वी यूपी और ज्योतिरादित्य सिंधिया को पश्चिमी यूपी की कमान सौंपने के फैसले का यही मतलब समझा जाएगा.
यह बहुत बड़ा दांव है. इसके ज़रिए कांग्रेस ने बहुत बड़ा जोखिम उठाया है. इसलिए कि उत्तर प्रदेश के सियासी समीकरण में कांग्रेस भारतीय जनता पार्टी की मुख्य प्रतिद्वंद्वी नहीं है. इस बार सूरत 2009 जैसी भी नहीं है, जब कांग्रेस, समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी और बीजेपी अलग-अलग मुकाबले में थीं. तब कांग्रेस ने आश्चर्यजनक रूप से 18.3 प्रतिशत वोट हासिल कर लोक सभा की 21 सीटें जीत ली थीं. इस बार सपा-बसपा ने गठबंधन बना लिया है. बीजेपी के बरक्स मुख्य प्रतिद्वंद्वी के रूप में यही गठबंधन मौजूद है. बीजेपी से खफ़ा मतदाताओं की वह पहली पसंद होगा.
इसके बावजूद कांग्रेस ने यह दांव खेला है. इसीलिए यह माना जाएगा कि इसमें गहरा जोखिम है. जोखिम बंद मुट्ठी के खाक का साबित हो जाने का है. मगर इसमें संभावनाएं भी हैं. राजनीति में नेता और उसके करिश्मे की अहमियत जग-जाहिर है. मीडिया प्रेरित चर्चा और सोशल मीडिया के दौर में इस पहलू का महत्त्व और भी बढ़ गया है. इस पहलू के कारण चुनाव अधिक-से-अधिक धारणाओं के संघर्ष (battle of perception) में तब्दील होते गए हैं. 2014 में नरेंद्र मोदी ने इस महत्त्व को समझा था. इसीलिए गुजरात से आकर उत्तर प्रदेश से लोक सभा चुनाव लड़ने का उन्होंने फैसला किया. अपने इर्द-गिर्द उन्होंने ऐसा सियासी कथानक बुना (या बुनवाया) जिससे एक चुनावी आंधी उठ खड़ी हुई.
अब संभवतः कांग्रेस अपने पास मौजूद सबसे करिश्माई शख्सियत के साथ उसी तरह का प्रयोग करने जा रही है. मुमकिन है कि प्रियंका रायबरेली या पूर्वी उत्तर प्रदेश की किसी दूसरी सीट से लोक सभा चुनाव भी लड़ें. तब कांग्रेस की कोशिश उन्हें केंद्र में रख कर एक बड़ी धारणा बनाने की होगी. क्या वह सचमुच ऐसा कर पाएगी? इस बारे में फिलहाल कयास ही लगाए जा सकते हैं. लेकिन उत्तर प्रदेश में कांग्रेस को लेकर कयास भी लगाए जाने लगें, तो इसे इस पार्टी और उसकी रणनीति की बड़ी सफलता माना जाएगा.
कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने इस रणनीति का जिक्र इस रूप में किया कि कांग्रेस कहीं भी बैक फुट पर नहीं रहेगी, वह फ्रंट फुट पर खेलेगी. मगर उन्होंने सपा-बसपा के साथ सहयोग की संभावना भी खुली रखी है. लेकिन ऐसे सहयोग की संभावना अब और धूमिल हो गई है. अपने ट्रंप कार्ड के साथ अब किसी गठबंधन में कांग्रेस छोटी भूमिका के लिए शायद तैयार नहीं होगी. इसके बावजूद तालमेल की कोई गुंजाइश ये पार्टियां निकाल पाईं, तो बीजेपी की मुश्किलें निश्चित रूप से बढ़ जाएंगी. लेकिन अगर वे समान वोट आधार को बांटने में जुट गईं, तो बीजेपी को उससे राहत भी मिल सकती है.
असल में क्या होगा, फिलहाल कहना कठिन है. अभी तमाम संभावनाएं खुली दिखती हैं. मुमकिन है कि प्रियंका गांधी के चेहरे के साथ कांग्रेस अप्रत्याशित सफलता हासिल कर ले. मुमकिन है कि उसकी मुट्ठी खाक की साबित हो. यह संभव है कि प्रियंका के आने का सीधा लाभ कांग्रेस को ना मिले, लेकिन इससे ऐसा माहौल या कथानक बने जिससे माहौल और भी ज्यादा बीजेपी के खिलाफ़ हो जाए. मगर यह भी संभव है कि यह चेहरा कांग्रेस को कुछ शक्ति तो दे, लेकिन उससे बीजेपी विरोधी वोटों का निर्णायक बंटवारा हो जाए.
बेशक कांग्रेस के रणनीतिकारों ने इन तमाम संभावनाओं पर सोच-विचार किया होगा. राहुल गांधी ने कहा है कि सपा-बसपा की तरह ही कांग्रेस की भी प्राथमिकता बीजेपी को हराना है. अगर कांग्रेस, सपा और बसपा इस प्राथमिकता को ध्यान में रख कर चलतीं, तो वह बेहतर स्थिति होती. मगर मायावती और अखिलेश यादव ने इसका ख्याल नहीं रखा, तो कांग्रेस के सामने संभवतः कोई और विकल्प नहीं था.
राहुल गांधी ने कहा है कि सपा-बसपा से उनकी पार्टी अनेक मुद्दों पर सहमत है, लेकिन उसे अपनी विचारधारा का प्रचार-प्रसार भी करना है. कांग्रेस की इस सोच का परिणाम है कि जब अलग-अलग राज्यों में बीजेपी बनाम विपक्ष के चुनावी मुकाबले की शक्ल ठोस रूप ले रही है, तब उत्तर प्रदेश में चुनावी मुकाबले की सूरत पर असमंजस बढ़ गया है.