क्या इस सदी में भी मंडराने लगी ‘अकाल मौत’?


premature death due to duplicate vaccine and corruption of big pharma in this century

 

इस साल की शुरुआत में ही अमेरिका जैसे विकसित और साधनसंपन्न देश खसरे से हुई अकाल मौतों से घबरा गया. वाशिंगटन स्टेट हेल्थ डिपार्टमेंट ने क्लार्क काउंटी में ऐसे 71 केस की पुष्टि करके सभी काउंटी के लिए गाइडलाइन जारी की और लगातार निगरानी जा रही है. मामला यहीं नहीं थमा. मेडागास्कर में खसरे के हमले में करीब 900 मौतें हाल ही में हो गईं. खसरे की वापसी पूरी दुनिया को चपेट में ले रही है, ऐसा मानकर विश्व स्वास्थ्य संगठन ने भी गाइडलाइन जारी करने के साथ ही टीकाकरण के लिए प्रोत्साहन और निगरानी शुरू कर दी है. इसी सप्ताह इटली में इस बात का फरमान जारी कर दिया गया है कि बिना टीकाकरण किए बच्चे का स्कूल में दाखिला नहीं लिया जाएगा.

क्या ये वही बात है, जो तमाम वैज्ञानिक कह रहे हैं कि हर सदी में एक बार अकाल मौतों का प्रकोप आने का रिकॉर्ड है. इसका जवाब जो भी हो, लेकिन ये हकीकत है कि अदृश्य मौत का खतरा मंडरा रहा है. कभी सुपरबग बन चुके बैक्टीरिया के रूप में तो कभी लाखों बरसों से मुर्दा बने रहे वायरस के जिंदा होने के रूप में. ऐसे कई मामले भारत में भी आना शुरू हो गए हैं. जिनको वैक्सीन लग चुकी थी, उन्हें फिर भी खसरा हो गया. अपने बाजू पर इस टीके का निशान सभी देख सकते हैं, जिसे माना जाता रहा है कि दोबारा खसरा-चेचक का खतरा नहीं है. हालांकि आ रहे केस इस बात को नकार रहे हैं. इन्हें रोकने का तरीका फिलहाल तक टीकाकरण ही है, जिसके फायदे भी हैं और शायद नुकसान भी.

बच्चों की मौत पर नकारने का चलन

पिछले दिनों देश के कई राज्यों में मीजल्स-रुबेला वैक्सीनेशन अभियान चला. हाल ही में उत्तरप्रदेश में एमआर टीकाकरण अभियान के दौरान कुछ बच्चों की मौत और बेहोश होने की घटनाओं से अभिभावक डर गए. स्वास्थ्य विभाग ने इन घटनाओं की वजह टीकाकरण मानने से इनकार कर दिया. हालांकि इस बात को दोहराया कि जो गाइडलाइन जारी की गई है, उसी तरह टीकाकरण अभियान चलाया जाए. मतलब, स्कूलों में बड़े पैमाने पर टीकाकरण किया गया, जिसमें इस बात का ख्याल हर जगह नहीं रखा गया कि अभिभावकों से या बच्चों से पूछें कि उन्हें इससे पहले टीका कब लगा? बुखार या कोई और बीमारी की दवा चल रही है या नहीं? विभाग ने माना भले ही न हो, लेकिन लापरवाही का अंदाजा तो रहा ही. अन्यथा दोबारा से सबको सचेत करने की जरूरत नहीं होती.

टीकाकरण से मौतें कोई नई बात नहीं

केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय ने पिछले दो वर्षों की तुलना में 2017 में टीकाकरण के बाद दुष्प्रभाव की घटनाओं का अध्ययन किया. राज्यों से रिपोर्ट मिली कि टीकाकरण के बाद 1,139 बच्चों की मृत्यु हो गई. तुलनात्मक रूप से, 2016 और 2015 में 176 और 111 मौतें हुई थीं. नेशनल एईएफआई (एडवर्स इवेंट्स फॉलोइंग इम्युनाइजेशन) कमेटी ने कहा कि 2012-2016 के दौरान एईएफआई को केवल 132 गंभीर मामले मिले थे. जिसमें 54 लोगों की मौत हो गई जबकि 78 का इलाज अस्पताल में किया गया. अलबत्ता, इस बात की गंभीरता से अध्ययन की कोशिशें कम ही हैं. बिल्कुल वैसे ही, कि मौत के बाद विभाग संजीदगी से जांच की जगह विभाग टीकाकरण के दुष्प्रभाव से पल्ला झाड़ ले. इस मानक को दरकिनार कर दिया जाता है कि एक लाख बच्चों में अगर दस केस भी दुष्प्रभाव के आएं, मौत या अस्पताल में भर्ती की नौबत आए तो गंभीर जांच होना चाहिए.

हीमोफिलस इन्फ्लुएंजा टाइप-बी (एचआईबी) और हेपेटाइटिस-बी के टीका पेंटावैलेंट वैक्सीन (पीवी) ने डीपीटी (डिप्थीरिया-प्यूमसिस-टेटनस) वैक्सीन की तुलना में बच्चों की मौतों की संख्या दोगुनी कर दी है. इस तरह का अध्ययन डीवाई पाटिल विश्वविद्यालय (मुंबई) की मेडिकल मैगजीन वोल्टर क्लूवर हेल्थ जर्नल में प्रकाशित हुआ है. सेंट स्टीफन अस्पताल में पीडियाट्रिक्स के प्रमुख डॉ. जैकब पुलियाल और अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान में जीव विज्ञान के प्रोफेसर डॉ. वी श्रीनिवास ने अध्ययन में पाया कि पेंटावैलेंट वैक्सीन लगने के 72 घंटे के भीतर 237 मौतें हुईं. रिपोर्ट में कहा गया है कि हर साल पीवी से 7,020 से 8,190 लोगों की मौत होने की संभावना है. हालांकि ये अभी भी साफ नहीं है कि मौतों की वजह महज इत्तेफाक था या टीका का रिएक्शन. केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय व्यक्तिगत अध्ययनों को तवज्जो नहीं देता.

ऐसे ही कारणों से होता है टीकाकरण का विरोध

वैक्सीनेशन जहां फायदेमंद है, विश्व स्वास्थ्य संगठन वैज्ञानिक शोध के हवाले से विश्वसनीयता का ठप्पा लगाता है. वहीं दुनिया में कई समूह इसका विरोध भी करते हैं. काफी लोगों का यह भी मानना है कि टीकाकरण मल्टीनेशनल कंपनियों की साजिश का भी हिस्सा है. जो भी हो, भारत के बच्चे इसके लगने या न लगने दोनों ही से असुरक्षित मालूम पड़ते हैं. घर के दरवाजे पर जब कोई वालंटियर पल्स पोलियो ड्रॉप पिलाने आता है तो लोग नौनिहालों के मुंह में ‘दो बूंद जिंदगी की’ मानकर टीके की खुराक देते ही हैं. इस बात को बहुत कम लोग जान पाए कि पिछले दिनों लाखों बच्चों को नकली टीका दे दिया गया. इस तरह की बाकायदा बड़ी खेप उत्तरप्रदेश के गाजियाबाद में मौजूद टीका निर्माण कंपनी में पकड़ी गई.

टीके के नाम पर अरबों का कारोबार दुनियाभर में फैला हुआ है. तमाम ऐसे टीके बिना किसी जांच के बरसों से बाजार में मौजूद हैं. इनमें पशुओं को लगाए जाने वाले कई टीके भी हैं. भले ही टीकों के चयन के लिए वैज्ञािनकों, विशेषज्ञों और शोध संस्थानों की समिति मुहर लगाती हो. फिलहाल, डब्ल्यूएचओ ने तो कह ही दिया है कि टीकाकरण से कोई भी मृत्यु नहीं हो सकती है. यदि कोई मृत्यु होती है, तो यह ‘संयोग’ है, न कि टीका के कारण.

बिग मनी, बिग फार्मा, बिग करप्शन

ऐसी कुछ खास संस्थाएं हैं जो अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बरसों से दर्जनों देशों में सिर्फ टीकाकरण अभियान के लिए सक्रिय हैं. उनके पीछे बड़ी-बड़ी फार्मा कंपनियां ताकत हैं. दानदाता फाउंडेशन भी बड़ी भूमिका निभाते हैं. उनकी हैसियत का अंदाजा आम नागरिक नहीं लगा सकता. वे चाहें तो ऐसी वैक्सीन लगवा दें, जो बीमारी नहीं है. वे चाहें तो ऐसा रोग फैलवा दें जिसके बाद वैक्सीन लगवाने के अलावा कोई चारा ही न बचे.

भारत की कंपनियों की अपनी मजबूरी

भारत वैश्विक स्तर पर टीकों का एक प्रमुख आपूर्तिकर्ता है. वर्तमान में संयुक्त राष्ट्र की एजेंसियों को आपूर्ति करता है, जिसमें यूनिसेफ, डब्ल्यूएचओ और पेशेन्ट एक्सेस नेटवर्क फाउंडेशन स्वास्थ्य संगठन शामिल हैं. ऐसे में जब भारत में भी वैक्सीनेशन के दौरान मौतों का आंकड़ा बढ़ जाए तो उसकी गुणवत्ता और मानक पर सवाल उठेगा ही. केंद्रीय औषधि मानक नियंत्रण संगठन की हर महीने आने वाली रिपोर्ट भी किसी नतीजे तक नहीं पहुंच पातीं. जबकि तमाम दवाएं और टीके गैर लाइसेंसी या नकली पाए जाते हैं.

आखिर क्यों दानदाताओं का मुंह तकती है सरकार

बेशक, चैरिटी करने वाले बड़े फाउंडेशन की बदौलत देश में बरसों से बच्चों को लगने वाले टीकों को मुफ्त में हासिल कर लिया गया. इसके बदले क्या चुकाया देश ने? ये कोई नहीं जानता. बड़ी आबादी वाले देश में कुछ सौ मौतों को गंभीरता से नहीं लिया ही नहीं जाता. अमेरिका ने 71 केस आते ही हाईअलर्ट कर दिया. इटली ने बिना वैक्सीनेटेड बच्चे के स्कूल दाखिले पर रोक लगा दी. भारत में बिल एंड मेलिंडा गेट्स फाउंडेशन (बीएमजीएफ)ने बड़ी परियोजनाओं में पोलियो, बाल व मातृ मृत्यु दर, एचआईवी, स्वच्छता के टीकों पर काम किया है. अतिसार रोगों के खिलाफ रोटा वायरस वैक्सीन एक साल में 70 हजार लोगों की जान बचा सकती है. ये भारत में विकसित किया गया है. बीएमजीएफ से वित्तीय सहायता से. विशेषज्ञों का मानना है कि भारत में प्रत्येक बच्चे को टीकाकरण करने के लिए आवश्यक धनराशि बड़ी नहीं है. सालाना केवल छह-सात हजार करोड़ रुपये ही चाहिए. सरकार चाहे तो इस काम को अपने नेटवर्क के जरिए बखूबी कर सकती है. और किसी तरह का मल्टीनेशनल दबाव भी नहीं होगा.


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