प्रियंका गांधी: मोदी और योगी के सामने नई चुनौती
लोकसभा चुनाव से ठीक पहले कांग्रेस ने प्रियंका गांधी को महासचिव नियुक्त करते हुए पूर्वी उत्तर प्रदेश की कमान सौंप दी है. माना जा रहा है कि इस चुनावी मौसम में प्रियंका गांधी को पूर्वी उत्तर प्रदेश का कमान मिलना बीजेपी,मोदी और योगी के सामने एक बड़ी चुनौती होगी. प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी भी पूर्वी उत्तर प्रदेश के वाराणसी लोकसभा क्षेत्र से सांसद है.
ऐसे में इतना तो कहा ही जा सकता है कि अगले लोकसभा में नरेन्द्र मोदी वाराणसी लोकसभा क्षेत्र से चुनाव लड़ते है तो उनकी सीधी टक्कर प्रियंका गांधी से होगी. वहीं पूर्वी उत्तर प्रदेश में गोरखपुर योगी आदित्यनाथ का गढ़ माना जाता है हालांकि यहां हुए मध्यावधि चुनाव में बीजेपी को हार का मुँह देखना पड़ा था.
हालांकि इससे पहले भी गाहे-बगाहे पार्टी के अंदर से ये मांग उठती रही है कि प्रियंका गांधी को सक्रिय तौर पर किसी बड़ी जिम्मेदारी में लाया जाए. इसके लिए पार्टी कार्यकर्ताओं ने देश भर में तमाम पोस्टर लगाए और नारे उठाए हैं. पार्टी में ऊपर से लेकर कार्यकर्ता स्तर तक उनकी लोकप्रियता का आलम यह है कि हर जगह उनके स्वागत में “प्रियंका गांधी आंधी है, दूसरी इंदिरा गांधी है“ नारा उठाया जा रहा है.
यह नारा इस बात को साबित करता है कि जनता और कार्यकर्ता को उनके व्यक्तित्व में इंदिरा गांधी की छाप साफ दिखाई पड़ती है. यह बात सिर्फ यहीं तक नहीं रह जाती है बल्कि मीडिया और विपक्षी दलों में भी उन्हें मजबूत, कद्दावर और काबिल शख्सियत के तौर पर देखा जाता है.
मनोविज्ञान में ग्रेजुएट है प्रियंका गांधी
साहित्य में गहरी दिलचस्पी रखने वाली प्रियंका गांधी राजीव और सोनिया गांधी की दूसरी संतान है. वो 12 जनवरी 1972 को नेहरू परिवार में पैदा हुई. उस वक्त इंदिरा गांधी देश की प्रधानमंत्री थी. इसके ठीक साढ़े तीन साल बाद आपातकाल का दौर शुरू हो गया था. देश की राजनीति करवट बदल रही थी. इसके बाद मार्च 1977 में भारत को एक नया गैर-कांग्रेसी प्रधानमंत्री मिला और गांधी-नेहरू परिवार अपनी सत्ता गंवा चुका था. उस वक्त प्रियंका गांधी करीब पांच साल की थी.
बाद में जनता पार्टी का समाजवादी धरा अलग हो गया जिसकी वजह से पार्टी टूट का शिकार हो गई और जनता पार्टी को सरकार से बाहर जाना पड़ा. इसके बाद 1980 में हुए आम चुनाव में कांग्रेस को भारी बहुमत मिला और जनता पार्टी को हार का सामना करना पड़ा.
सरकार से बाहर हुई कांग्रेस अपने 343 सीट के साथ वापसी में आई. इंदिरा गांधी फिर से प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठी. करीब साढ़े चार साल बाद 31 अक्टूबर 1984 को उनकी हत्या कर दी गई जिसके एवज में देश को दंगे का शिकार होना पड़ा. प्रियंका गांधी उस वक्त नौ साल से भी कम उम्र की थी.
यह एक राजनैतिक उठा-पटक का युग था जिसको प्रियंका गांधी काफी कम उम्र में बेहद करीब से देख रही थी. दादी इंदिरा गांधी की हत्या के बाद पिता राजीव गांधी देश के प्रधानमंत्री थे. लेकिन परिवार डरा हुआ था. शायद यही वजह रही होगी कि प्रियंका को अपने भाई राहुल गांधी के साथ पढ़ाई घर पर रह कर करनी पड़ी.
बाद में प्रियंका गांधी ने ग्रेजुएशन के लिए दिल्ली यूनिवर्सिटी के जीसस एंड मेरी कॉलेज में मनोविज्ञान विषय में दाखिला लिया. साल 2010 में बुद्धिस्ट स्टडीज में मास्टर्स की डीग्री भी हासिल की.
राजनीतिक सफर
प्रियंका गांधी के राजनीतिक सफर की शुरुआत आज से ठीक 20 साल पहले 1999 से होती है. उस वक्त उन्होंने कांग्रेस की तरफ से चुनाव अभियान में हिस्सा लिया था. तब यह चर्चा जोर पकड़ने लगी की प्रियंका गांधी सक्रिय राजनीति में शामिल होंगी या नहीं.
इस बात का जवाब उन्होंने बीबीसी के एक इंटरव्यू में काफी शालीनता से देते हुए कहा था कि, “मेरे दिमाग में यह बात बिल्कुल साफ है कि राजनीति ताकतवर नहीं है बल्कि जनता महत्वपूर्ण है और मैं उनकी सेवा राजनीति से बाहर रहकर भी कर सकती हूँ.”
बीबीसी को दिए इस इंटरव्यू और 23 जनवरी 2019 के दरम्यान प्रियंका गांधी पार्टी और राजनीति में बगैर किसी पद के सक्रिय राजनीति का हिस्सा रही हैं. 2004 के लोकसभा चुनाव में वो अपनी मां के लिए चुनाव अभियान को पूरी तरह संभाला था और राहुल गांधी की भी काफी मदद की थी.
प्रियंका की सबसे बड़ी खासियत यह है कि वह अवाम से बगैर किसी प्रोटोकॉल के मिलती है. एक-दम बेहिचक. उनके और जनता के बीच संवाद में दूसरे नेताओं की तरह खाई नहीं होती है. यही वजह रही है कि सक्रिय राजनीति से दूर रहते हुए भी उनकी लोकप्रियता दूसरों में रश्क पैदा करती है. अमेठी की जनता में वो इस तरह रच-बस गई है कि हर-एक चुनाव में एक नारा उठता है ‘अमेठी का डंका, बिटिया प्रियंका ‘.
साल 2007 के विधानसभा चुनाव में उन्होंने अमेठी और रायबरेली के 10 सीट पर फोकस किया था. इस दौरान वो करीब दो सप्ताह तक वहां रही थी. इस चुनाव के दौरान उन्होंने न सिर्फ टिकट बंटवारा किया बल्कि पार्टी के अंदर चल रहे झगड़ों का भी निपटारा किया था. और एक बेहतर लीडरशिप के साथ 10 में से सात सीटों पर जीत दर्ज करवाई थी.
2009 और 2014 के लोकसभा चुनाव में भी प्रियंका ने अमेठी और रायबरेली में चुनाव प्रचार का का हिस्सा बनकर अपने मां और भाई को जीत दिलाई थी. वैसे नेहरू-गांधी परिवार का गढ़ माना जाने वाला यह दोनों इलाका प्रियंका के लिए नया नहीं है. लेकिन बात सिर्फ यहीं तक नहीं है, वो कार्यकर्ताओं से हमेशा संपर्क में रहती है. कार्यकर्ता उनसे दिल्ली तक आकर बेहिचक मिलते हैं.
2019 का लोकसभा चुनाव और महासचिव प्रियंका
2014 में कांग्रेस मोदी लहर में सरकार से बाहर हो गई थी. उत्तरप्रदेश में बीजेपी को छोड़कर तमाम पार्टी खस्ताहाल रह गई. 80 लोकसभा सीट वाले राज्य में कांग्रेस 21 से खिसक कर दो पर आ गई. समाजवादी पार्टी लुढ़कते हुए 23 से पांच पर रह गई. बसपा के खाते में 20 सीट के बाद सिर्फ शून्य रह गया था.
हिन्दुत्वादी राजनीति के इसी दौर में तीन साल बाद विधानसभा चुनाव हुआ. इस चुनाव में प्रियंका गांधी ने काफी सक्रिय भूमिका निभाई थी. कांग्रेस के प्रदेश प्रभारी गुलाम नबी आजाद ने तब यहां तक कह दिया था कि प्रियंका कमांडर-इन-चीफ हैं. गुलाम नबी आजाद ने यह शायद इसलिए भी कहा था कि प्रियंका की वजह से ही कांग्रेस और सपा में गठबंधन की जमीन तैयार हुई थी.
अब लोकसभा चुनाव तीन महीने पहले सक्रिय राजनीति में कांग्रेस की तरफ से प्रियंका की महासचिव के पद पर नियुक्ति एक नए बयार का संकेत है. इतना तो कयास लगाया ही जा सकता है कि प्रियंका की लोकप्रियता बीजेपी के सामने एक बड़ी चुनौती होगी. वो जनता में काफी प्रभावी हैं और ऐसा माना जा रहा कि इसका पूरा फायदा कांग्रेस को मिलेगा.