सबको साफ पानी देने के अपने वादे से कोसों दूर है सरकार
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वाटर एड नाम के एक गैर-सरकारी संगठन के मुताबिक 2015 में लगभग 16 करोड़ भारतीयों के पास प्रयोग करने के लिए साफ पानी उपलब्ध नहीं था. इन 16 करोड़ लोगों में ज्यादातर ग्रामीण इलाकों में रहने वाले थे. इन इलाकों में ना केवल पानी की मात्रा बल्कि गुणवत्ता का स्तर भी बहुत खराब है. आश्चर्य की बात है कि सबके घर में साफ पानी पहुंचाने का वादा करने वाली बीजेपी ने इस ओर ना के बराबर प्रयास किया है.
2009 में यूपीए की सरकार ने ‘नेशनल रूरल ड्रिंकिंग वाटर प्रोग्राम’ की शुरूआत की थी. इस योजना के तहत केंद्र सरकार राज्य सरकारों को साफ पानी उपलब्ध कराने के लिए जरूरी आधारभूत ढांचा विकसित करने के लिए फंड देती है.
केंद्र की एनडीए सरकार ने इस योजना के तहत दिए जाने वाले फंड में भारी कटौती की है. 2014-15 में इस योजना के लिए आवंटित किए गए फंड का केवल 0.6 फीसदी राज्यों को दिया गया. वहीं 2018-19 में यह हिस्सा केवल 0.2 फीसद रह गया. ना केवल फंड को बांटने में कोताही बरती गई, बल्कि फंड को खर्च करने में भी सरकार ने आलस दिखाया. 2018 में फंड का केवल 72 फीसद हिस्सा ही खर्च किया गया.
इस योजना की फंडिंग में कमी तब हुई है जब पेयजल और स्वच्छता मंत्रालय ने अपने खर्च में बढ़ोतरी की है. लेकिन इस बढ़ोतरी का ज्यादातर हिस्सा केवल बीजेपी के फ्लैगशिप प्रोग्राम ‘स्वच्छ भारत’ पर ही खर्च हुआ है. वाटर एड के प्रमुख कार्यकारी अधिकारी वीके माधवन का कहना है कि पानी की निर्बाध आपूर्ति सुनिश्चित किए बिना स्वच्छता मिशन के लक्ष्यों को नहीं पाया जा सकता है.
फंड में कटौती का प्रभाव नकारात्मक पड़ा है. इस योजना के तहत 2017 तक 35 फीसदी ग्रामीण घरों को पाइपों की सहायता से पानी की आपूर्ति की जानी थी, 2020 तक इसे 80 फीसदी करना था. लेकिन कैग ऑडिट के अनुसार 2018-19 में केवल 18.2 फीसदी ग्रामीण घरों के लिए ही ऐसा किया जा सका है. मतलब 2018 में योजना ने अपना 2017 का ही लक्ष्य भी पूरा नहीं किया है.
यही नहीं इस योजना के तहत विभिन्न राज्यों में साफ पानी की आपूर्ति को लेकर भी भारी विषमता है. गुजरात, सिक्किम और हिमांचल प्रदेश जैसे राज्यों में जहां आधे से अधिक ग्रामीण घरों में पानी की आपूर्ति की जा चुकी है, वहीं उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे राज्यों में यह प्रतिशत केवल पांच है.