दरकार है जन-स्वास्थ्य पर घोषणा पत्र लाने की


budget allocation on health services is very low

 

हालिया विधानसभा चुनाव के दौरान और बाद में किसानी की समस्या एक राजनीतिक मुद्दा बन गई है. जिन तीन राज्यों में सत्तारूढ़ भाजपा हारी है और कांग्रेस जीती है वहां किसानों ने ही एक को सत्ता से बेदखलकर दूसरे की ताजपोशी करने में अहम भूमिका निभाई है.

सामने 2019 का लोकसभा चुनाव है इसलिए किसानों से संबंधित मुद्दों पर धड़ाधड़ फैसले लिए जा रहे हैं. जैसे कर्जमाफी, फसल का न्यूनतम समर्थन मूल्य और किसानों के लिये पेंशन. बेशक, इसके लिए किसानों ने असंगठित और संगठित तौर पर आंदोलन और विरोध करके अपने लिए सोचने पर राजनीतिक दलों को मजबूर किया है. इससे यह साबित होता है कि लोकतंत्र में वोटों की शक्ति राजनीतिक दलों को नवउदारवादी राह से थोड़ा हटकर चलने के लिए बाध्य कर सकती है.

सामने 2019 का लोकसभा चुनाव है ऐसे में जनता के स्वास्थ्य को लेकर यदि राजनीतिक दलों को सोचने तथा करने के लिये मजबूर किया जा सके तो गलत न होगा. दरअसल, हमारे देश में मरीज कोई वोट बैंक नहीं होता है इसलिए आज तक उसकी नहीं सुनी गई है. लेकिन इसका मतलब यह कत्तई नहीं है कि जनस्वास्थ्य के मुद्दों को चुनावी मुद्दा न बनाया जा सके.

उदारीकरण-वैश्वीकरण और निजीकरण के युग में ‘अच्छा स्वास्थ्य’ एक वस्तु बनकर रह गया है. जिसे पैसे चुकता कर खरीदना पड़ता है. अगर स्वस्थ्य रहना है तो अपनी अंटी से खर्च करना पड़ता है. बीमार पड़ने पर कौन से जांच करवाने हैं, कौन-कौन सी दवा लेनी है, कौन सी सर्जरी करवानी है इसका फैसला मरीज नहीं कर सकता है. इस कारण से जिस बाजार से स्वास्थ्य खरीदना पड़ता है वहां मरीज बिल्कुल असहाय सा खड़ा रह जाता है. जबकि जनकल्याणकारी राज्य की अवधारणा ही है कि शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधा कम पैसों में या मुफ्त में मुहैय्या हो.

घोषणा पत्र का उद्देश्य

जनस्वास्थ्य पर घोषणा पत्र का उद्देश्य राजनीतिक दलों को अपने चुनावी घोषणा पत्रों में इन मुद्दों को शामिल करवाने के लिए दबाव बनाना है. इसलिए इस घोषणा पत्र पर व्यापक बहस और सुधार की जरूरत है.

बता दे कि गुलाम भारत में स्वास्थ्य पर सुझाव देने के लिए एक समिति का गठन किया गया था. इस समिति के अध्यक्ष सर जोसेफ भोरे थे.

इस समिति ने 1946 में अपनी अनुशंसाएं पेश की थी. जिसकी प्रमुख अनुशंसा थी कि दाम चुकता न कर पाने के कारण किसी को भी स्वास्थ्य सुविधा से वंचित न होना पड़े. हम स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद धूल खाती भोरे समिति की इसी अनुशंसा को प्रस्थान बिंदु के रूप में तय करना चाहते हैं. वह यह कि सभी को स्वास्थ्य सुविधा मिलनी चाहिए और इसे सुनिश्चित करना राज्य का अहम कर्त्वय है.

रणनीति का मुद्दा

मोटे तौर पर हमारे देश में 32 फ़ीसदी लोग सरकारी अस्पतालों में जाते हैं, 20 फ़ीसदी लोगों तक आधुनिक स्वास्थ्य सुविधा पहुंच ही नहीं पाती है और बाकी के बचे 48 फ़ीसदी लोग बीमार पड़ने पर निजी स्वास्थ्य संस्थानों की शरण में जाते हैं. इस कारण से कोशिश होनी चाहिए कि बाकी के बचे 20 फ़ीसदी लोगों तक भी सरकारी स्वास्थ्य सेवा की पहुंच बने.

दूसरा निजी क्षेत्र में जाने वाले 48 फ़ीसदी लोगों के लिए स्वास्थ्य को सस्ता बना दिया जाए. याद रखिए जब तक सरकारी क्षेत्र के चिकित्सा संस्थानों की मजबूत उपस्थिति दर्ज नहीं हो जाती है तब तक निजी क्षेत्र अपने दाम कम नहीं करने वाला है.

जन-स्वास्थ्य के लिए हमारी रणनीति होनी चाहिए कि पहला तो इसे सस्ता बनाया जाए दूसरा ज्यादा से ज्यादा लोग इस सुविधा का लाभ उठा सके. वर्तमान में हमारे देश में स्वास्थ्य के क्षेत्र में सरकारी के अलावा निजी क्षेत्र का भी योगदान है.

यह दिगर बात है कि निजी क्षेत्र स्वास्थ्य सुविधा उपलब्ध करवाने के लिए अच्छी-खासी रकम वसूलती है. अब यदि यह सोचा जाए कि स्वास्थ्य सेवा से निजी क्षेत्र को तुरंत ही हटा दिया जाए तो यह एक अराजकतावादी सोच होगी. क्योंकि न तो आज सरकारी स्वास्थ्य संस्थान इस स्थिति में हैं कि पूरे देश के मरीजों को संभाल सके न ही निजी क्षेत्र के अस्तित्व को नकारा जा सकता है.

इसलिए रणनीति होनी चाहिए कि धीरे-धीरे सरकारी अस्पतालों को निजी क्षेत्र के अस्पतालों से बेहतर बनाया जाए ताकि जनता स्वास्थ्य के लिए सरकारी क्षेत्र को प्राथमिकता दें. चिकित्सा, रोग की जांच, दवा और सर्जरी को इतना सस्ता बना दिया जाए कि इस तक जनता की पहुंच आसान हो जाए. दूसरा आधुनिक चिकित्सा पद्धति के दायरे में देश की करीब-करीब पूरी आबादी को ही लाया जा सके.

चिकित्सा के खर्च को अगर कम करना है तो केवल दवाओं की कीमत कम करना काफी नहीं होगा. हमें चिकित्सा उपकरणों, यंत्रों और प्रत्यारोपित किए जाने वाले यंत्रों की कीमत भी कम करने की दिशा में पहल करनी होगी.

वित्त की व्यवस्था

केन्द्र और राज्य सरकारों द्वारा मिलकर साल 2015-16 में स्वास्थ्य पर 1.40 लाख करोड़ रुपये खर्च किए गए. इस तरह से प्रति व्यक्ति स्वास्थ्य पर 1112 रुपये खर्च किए गए. कुल मिलाकर देश के सकल घरेलू उत्पादन का मात्र 1.02% स्वास्थ्य पर खर्च किए गए. इसमें केन्द्र सरकार की भागीदारी 31 फ़ीसदी और राज्य सरकारों की भागीदारी 69 फ़ीसदी रही है.

अर्थात् मोटे तौर पर यह माना जा सकता है कि केन्द्र सरकार ने 30 हजार करोड़ रुपये और राज्य राज्य सरकारों ने मिलकर 70 हजार करोड़ रुपये खर्च किए हैं. स्वास्थ्य पर खर्चे को बढ़ाकर सकल घरेलू उत्पादन के तीन फ़ीसदी के करीब लाया जाना चाहिए. यदि स्वास्थ्य पर सकल घरेलू उत्पादन का तीन फ़ीसदी खर्च करना है तो साल 2015-16 के आंकड़ों के हिसाब से यह करीब 4.20 लाख करोड़ रुपयों के बराबर का होता है. जिसमें केन्द्र सरकार की हिस्सेदारी बढ़कर 1.26 लाख करोड़ रुपये प्रतिवर्ष और राज्य सरकारों की हिस्सेदारी बढ़कर 2.94 लाख करोड़ रुपयों के बराबर का बैठता है.

बेशक, रकम बड़ी है लेकिन सरकार अपनी प्राथमिकता में बदलाव करके आसानी से इसकी व्यवस्था कर सकती है. मिसाल के तौर पर यदि केन्द्र सरकार के हिस्से को ही लें तो पिछले तीन सालों में पब्लिक सेक्टर बैंकों ने कॉर्पोरेट सेक्टर के 2.41 लाख करोड़ रुपयों के बैड लोन को ‘राइट-ऑफ’ किया है. यह जानकारी अप्रैल 2018 को सरकार द्वारा राज्यसभा में दी गई थी.

अगर इस रकम को तीन हिस्सों में बांटा जाता है तो यह हर साल करीब 80 हजार करोड़ रुपयों का होता है. यदि बड़े घरानों से कर्ज की वसूली करके इसे स्वास्थ्य पर खर्च किया जाता है तो पहले से खर्च हो रहे 30 हजार करोड़ रुपयों में 80 हजार करोड़ रुपये जुड़कर 1.20 लाख करोड़ रुपये का हो जाता है. इसी तरह से केन्द्र सरकार हर साल कॉर्पोरेट सेक्टर के हजारों करोड़ रुपयों का कॉर्पोरेट टैक्स माफ करती रहती है. उल्लेखनीय है कि साल 2015 में सरकार ने 78 हजार करोड़ रुपयों का कॉर्पोरेट टैक्स माफ किया था.

इसी तरह से राज्य सरकारें भी अपनी प्राथमिकता में बदलाव करके जनता के स्वास्थ्य पर किये जाने वाले खर्च में बढ़ोतरी कर सकती हैं.

सरकारी चिकित्सा संस्थान

सरकारी चिकित्सा संस्थान चाहे वे प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र हो या सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्र या जिला चिकित्सालय या मेडिकल कॉलेज के अस्पताल यह जनता के लिए आदर्श होना चाहिए चिकित्सा के मामले में, दवा के मामले में और जांच के मामले में भी. अब तक किए जा रहे खर्च में तीन गुना बढ़ोतरी करने से इसमें मदद मिलेगी. बढ़े हुए पैसों से सरकारी अस्पतालों की साफ-सफाई, भर्ती मरीजों के लिए सुविधाएं, बेहतर पैथोलैब, रेडियोलॉजी विभाग और उच्च गुणवत्ता वाली दवाओं का इंतजाम किया जा सकेगा. इसी के साथ सरकारी चिकित्सकों, नर्सों और टेक्निशियनों की संख्या में बढ़ोतरी की जा सकेगी ताकि बढ़ने वाली मरीजों की भीड़ को राहत पहुंचाई जा सके.

खुद सरकारी आंकड़ों के अनुसार प्रति 11,039 लोगों के लिए एलोपैथिक का एक चिकित्सक सरकारी क्षेत्र में है. आदर्श स्थिति तब होगी जब प्रति 1000 व्यक्तियों पर एक एलोपैथिक चिकित्सक हों. इसी तरह से 1,76,004 व्यक्तियों के लिए एक दांत का चिकित्सक सरकारी अस्पतालों में है.

देश में चिकित्सकों की कमी को देखते हुए सरकार, रेलवे, कोल इंडिया, एनटीपीसी जैसे संस्थान मेडिकल कॉलेज खोलने की पहल करें. निजी क्षेत्र के मेडिकल कॉलेजों में डोनेशन के आधार पर भर्ती बंद की जानी चाहिए. डोनेशन देकर जो चिकित्सक बनेंगे वे सबसे पहले इसे अपने ही मरीजों से वसूल करेंगे.

सरकार द्वारा जो स्वास्थ्य बीमा की योजना चलाई जा रही है उसके माध्यम से करदाताओं के पैसे निजी क्षेत्र में प्रवाहित हो रहे हैं.

दवा, मेडिकल उपकरण और इंम्प्लांट पर मूल्य नियंत्रण

जो लोग सरकारी अस्पतालों में नहीं जाते हैं उन्हें भी राहत दी जानी चाहिए. इसके लिए सभी दवाओं, मेडिकल उपकरणों और मेडिकल इम्प्लांट पर केन्द्र सरकार द्वारा कड़ा मूल्य नियंत्रण लागू करना चाहिये. मिसाल के तौर पर आज स्वास्थ्य मंत्रालय द्वारा जारी ‘आवश्यक दवाओं की राष्ट्रीय सूची’ के आधार पर दवा मूल्य नियंत्रण लागू है वह भी बाजार आधारित है.

अब जमीनी हक़ीक़त यह है कि जैसे ही सरकार दमे की दवा थीयोफाइलिन को मूल्य नियंत्रण के अंतर्गत लाती है तो दवा कंपनियां अपना सारा जोर गैर मूल्य नियंत्रण वाली दमे की दवा डौक्सोफाइलिन पर देने लगती है. दवा कंपनियां जिन दवाओं पर मूल्य नियंत्रण लागू होता है उसका उत्पादन बंद करने लगती है हार कर चिकित्सकों को नई और महंगी दवाएं लिखनी पड़ती है.

इससे बचने के लिए सभी आवश्यक और जीवन रक्षक दवाओं पर मूल्य नियंत्रण लागू किया जाना चाहिए वह भी बाजार आधारित नहीं बल्कि पहले के समान उसके उत्पादन के लागत के आधार पर किया जाना चाहिए. दवाओं के मूल्य का निर्धारण बाजार के बाजारूपन पर नहीं छोड़ा जा सकता है.

वर्तमान में हार्ट के स्टेंट, नी इंम्प्लांट, इंट्रा-यूटेराइन डिवाइसेस और कंडोम पर मूल्य नियंत्रण लागू है. फौरी जरूरत है कि सभी मेडिकल इम्पलांट और चिकित्सा में लगने वाले सभी उपकरणों जैसे सीरिंज, आईवी फ्लूइड, कैथेटर, यूरो बैग, सर्जरी के औजार, पेस-मेकर, वेन्टिलेटर, ईसीजी मशीन, एक्सरे-सोनोग्राफी-सीटी स्कैन और एमआरआई के मशीनों पर भी मूल्य नियंत्रण लागू किया जाए जिससे चिकित्सा सस्ती हो सकेगी.

हैरत की बात है कि स्लीप एप्निया से पीड़ित मरीजों को जो सीपैप (कंटीन्यूस पॉजीटिव प्रेशर) की मशीन दी जाती है उसका मूल्य 50 हजार रुपये से लेकर 1 लाख रुपये तक का होता है जबकि इसमें एक पंप होता है जो निर्धारित दबाव पर सांस लेने के लिए हवा छोड़ती है. और जब इसका मास्क खराब हो जाता है तो वो भी 3500 रुपये से लेकर 10 हजार रुपयों में मिलता है. जाहिर है कि निजी देशी और विदेशी कंपनियां मरीजों को लूट रही है. इसलिए यह केन्द्र सरकार की जिम्मेवारी है कि वह हस्तक्षेप कर मरीजों को फौरन राहत प्रदान करें.

सार्वजनिक क्षेत्र के दवा-उपकरण कंपनी

देश का कुल दवा बाजार 2.19 लाख करोड़ रुपयों का है. जिसमें से देश में 1.12 लाख करोड़ की दवा का खपत हुआ और 1.07 लाख करोड़ रुपये की दवा का निर्यात किया गया. देश के 1.12 लाख करोड़ रुपये के दवा बाजार में सार्वजनिक क्षेत्र के पांच दवा कंपनियों की हिस्सेदारी मात्र 550 करोड़ रुपये की अर्थात् आधे फ़ीसदी के करीब की है. जबकि होना यह चाहिए कि सार्वजनिक क्षेत्र के पांचों दवा कंपनी आईडीपीएल, एचएएल, बेंगाल केमिकल, कर्नाटक एंटीबायोटिक और राजस्थान ड्रग्स की हिस्सेदारी इतनी होनी चाहिए कि सरकार भारतीय दवा बाजार में हस्तक्षेप कर सके. चूंकि, सरकार दवा बाजार में हस्तक्षेप करने की स्थिति में नहीं है इसलिए देशी और विदेशी दवा कंपनियां अपनी मर्जी के मुताबिक दवाएं बेचती हैं मनमाने दामों पर. यदि सार्वजनिक क्षेत्र की दवा कंपनियां मजबूत स्थिति में होती तो न तो दवा के दाम इतने बढ़ते न ही सरकारी संस्थानों में दवाओं की कोई कमी होती.

उदाहरण के तौर पर बीएसएनएल को ही लीजिए. भारतीय टेलीकाम बाजार में इसकी मजबूत स्थिति दर्ज है. इस कारण से जैसे ही बीएसएनएल ने मोबाईल में इनकमिंग कॉल को फ्री किया तो दूसरी कंपनियों को भी प्रतियोगिता में टिके रहने के लिए ऐसा ही करना पड़ा. याद करिए कि सबसे पहले बीएसएनएल ने ही रोमिंग काल को फ्री किया था.

दवा बाजार के उलट मेडिकल डिवाइस इंडस्ट्री की हालात है. जहां दवा के मामले में निजी क्षेत्र के दम पर ही सही देश आत्मनिर्भर है वहीं देश में लगने वाले कुल मेडिकल डिवाइस का 75 फ़ीसदी विदेशों से आयात करना पड़ता है. इस कारण से उनके दाम भी अधिक होते हैं.

सार्वजनिक क्षेत्र के सभी दवा कंपनियों का पुनरुद्धार कर उन्हें इस लायक बनाया जाए कि दवा बाजार में सरकार का हस्तक्षेप बढ़े. इसके लिए इन कंपनियों का पुनर्निर्माण करना पड़ेगा. जिस तरह से सड़कों, पुल और रेल लाइनों के विस्तार के लिए निवेश किया जा रहा है ठीक उसी तरह से सार्वजनिक क्षेत्र के दवा कंपनियों में निवेश करना पड़ेगा. केन्द्र सरकार और राज्यों को मिलकर देश में मेडिकल डिवाइस का निर्माण करने वाले संयत्रों की स्थापना करनी पड़ेगी.


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