याचिकाकर्ताओं ने उठाए राफेल पर कोर्ट के फैसले पर सवाल


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राफेल डील पर डाली गई याचिकाओं पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें खारिज कर दिया. सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले पर याचिकाकर्ताओं यशवंत सिन्हा, अरुण शौरी और प्रशांत भूषण ने एक प्रेस नोट जारी करते हुए अपनी असहमति दर्ज की है. याचिकाकर्ताओं का कहना है कि सर्वोच्च न्यायालय ने रक्षा क्षेत्र से जुड़े इस मामले में बहुत ही रूढ़िवादी नजरिया अपनाया है. याचिकाकर्ताओं के असहमति के बिंदु निम्नलिखित हैं.

1. याचिकाकर्ताओं की सबसे बड़ी असहमति कैग रिपोर्ट को लेकर है. सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कैग की उस रिपोर्ट का जिक्र किया है, जो अभी तक आई ही नहीं है. असल में शुरुआत में राफेल विमान खरीदने के लिए बनाई गई खरीद-फरोख्त समिति ने डील के लिए 5.2 बिलियन यूरो की कीमत तय की थी. इसे बाद में सरकार ने 8.2 बिलियन यूरो कर दिया. खरीद-फरोख्त समिति के तीन सदस्यों ने इसपर आपत्ति भी जताई. आगे उनका ट्रांसफर कर दिया. याचिकाकर्ताओं ने इस तथ्य को कोर्ट के सामने रेखांकित भी किया. कोर्ट ने अपना फैसला सुनाते वक्त इस तथ्य को संज्ञान में ही नहीं लिया.

2. याचिकाकर्ताओं की दूसरी सबसे बड़ी असहमति ऑफसेट पार्टनर के चुनाव पर कोर्ट द्वारा की गई टिप्पणी पर है. असल में राफेल विमान की डील फ्रांस की एक कंपनी दस्सां से तय हुई थी. विपक्ष सरकार पर आरोप लगाता रहा है कि सरकार ने जानबूझकर सरकारी विमान निर्माता उपक्रम ‘HAL’ की जगह डील के कुछ ही समय पहले अनिल अंबानी द्वारा बनाई गई एक प्राइवेट कंपनी को दस्सां के सामने ऑफसेट पार्टनर के तौर पर पेश किया.

फ्रांस के पूर्व राष्ट्रपति होलांद ने भी एक इंटरव्यू में इस बात को स्वीकार किया था. वहीं सरकार लगातार कहती आई है कि दस्सां ने अनिल अंबानी की कंपनी का चयन खुद किया. इसे लेकर सुप्रीम कोर्ट ने आज कहा कि दस्सां 2012 से ही रिलांयस इंडस्ट्री के संपर्क में थी. लेकिन तथ्य यह है कि दस्सां 2012 से अनिल अंबानी की कंपनी की जगह मुकेश अंबानी के संपर्क में थी. आश्चर्यजनक बात तो यह है कि दस्सां के साथ राफेल डील करने वाली अनिल अंबानी की कंपनी 2012 में बनी ही नहीं थी.

3. याचिकाकर्ताओं की तीसरी असहमति यह है कि सरकार ने डील से जुड़े जो पहलू कोर्ट को बंद लिफाफे में सौंपे, उन्हें याचिकाकर्ताओं के सामने पेश ही नहीं किया गया. इस वजह से याचिकाकर्ता अपनी दलील पेश नहीं कर पाए.


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