साध्वी प्रज्ञा की उम्मीदवारी मोदी सरकार की विफलता की स्वीकारोक्ति है?


Malegaon blast case: Pragya Thakur, two other accused exempted from court appearance

 

प्रज्ञा सिंह ठाकुर को भोपाल से उम्मीदवार बनाना जिसका भी दांव था, उल्टा पड़ गया है. यह मोदी सरकार की अपनी पांच साल की विफलताओं को स्वीकारने वाला कदम बन गया है. मोदी 2014 में आक्रामक हिंदुत्व का चेहरा ज़रूर थे लेकिन उन्होंने 2002 के गुजरात दंगों में कैद छवि को तोड़ने का भरसक प्रयास किया था. इन चुनावों में उनका मुख्य वादा विकास था और उसका नारा था— सबका साथ, सबका विकास.

ख़ुद को विकास पुरुष बनाने के लिए उन्होंने पिछले कई साल काफी मेहनत की थी. अंबानी और अडानी जैसे कॉर्पोरेट को साधकर उन्होंने गुजरात मॉडल को देश का आदर्श विकास मॉडल बनाने का प्रयास किया था. यह तथाकथित गुजरात मॉडल ‘वाइब्रेंट गुजरात समिट’ के मार्फत फुलाया गया गुब्बारा था. इसके माध्यम से लोगों को यह यकीन दिलाने की कोशिश की गयी थी कि मोदी देश को उदारीकरण और उद्योगीकरण की ओर किसी अन्य नेता की अपेक्षा अधिक तेजी से ले जा सकते हैं.

यानी मोदी ने 2014 का चुनाव विपक्ष द्वारा गढ़ी हुई छवि को तोड़कर ख़ुद गढ़ी हुई छवि के आधार पर लड़ना सही समझा था. विकास का यह गुब्बारा पिचकते-पिचकते भी पीछे गुजरात विधानसभा चुनावों तक इतना प्रासंगिक था कि कांग्रेस ने इसके तोड़ के रूप में “विकास गांडयो थयो छे” यानी “विकास पगला गया है” का नारा दिया था.

लेकिन चुनाव नज़दीक आते-आते मोदी-शाह की जोड़ी ने विकास के नारे को स्थगित करना बेहतर समझा. क्योंकि उनके अपने अंदरूनी आकलन में जनता विकास के उनके दावों को नकार चुकी है. इसके बावजूद अगर वो विकास के नारे के साथ आगे बढ़ते तो उसका जनता पर नकारात्मक असर होना तय था.

इसके अलावा मोदी की नोटबंदी और अतार्किक जीएसटी ने जनता में और ज्यादा खीझ पैदा की है. देश में व्यापार-वाणिज्य की गिरती हालत किसी से छुपी नहीं है. बैंकिंग सेक्टर को मोदी ने कॉर्पोरेट बैड लोन की तकरीबन साढ़े बारह लाख करोड़ की ऋणमाफी से खोखला कर दिया है. किसी बड़े आढ़ती से लेकर रघुराम राजन जैसे शीर्ष के अर्थशास्त्रियों तक किसी से भी देश की बदहाली की का हाल पूछा जा सकता है.

इसलिए चुनावी रणनीति के तहत आरएसएस और बीजेपी ने एक बार फिर चुनाव को हिंदुत्व के इर्दगिर्द खड़ा करना बेहतर समझा. राममंदिर काठ की हांडी है जिसे चढ़ाकर बीजेपी देख चुकी है कि अब वो जल चुकी है. इसलिए उग्र और आक्रामक हिंदुत्व में सैन्य अधिनायकवाद का तड़का लगाकर एक नया पैकेज बनाया गया है.

यह बीजेपी की हताशा थी कि जिस मुद्दे पर वो 2014 का चुनाव नहीं लड़ी, 2019 में पांच साल सरकार चलाकर उसे उस मुद्दे पर लौटना पड़ा है. और संयोगवश, प्रज्ञा सिंह ठाकुर जो इस उग्र हिंदुत्व ब्रांड की ब्रांड एम्बेसडर बनकर उभरी हैं, को भोपाल से टिकट देकर उसने सोचा कि यह उसका “मास्टरस्ट्रोक” बन जाएगा. संयोगवश इसलिए क्योंकि दिग्विजय सिंह के ख़िलाफ़ मध्य प्रदेश का कोई बड़ा नेता चुनाव लड़ने को तैयार नहीं हुआ. इस हालत में बीजेपी को लगा कि प्रज्ञा सिंह ठाकुर दिग्विजय सिंह के सामने खड़ी होकर व्यापक ध्रुवीकरण में सहायक हो सकती हैं.

बीजेपी को दिग्विजय सिंह से कुछ ज्यादा ही डर लगता है. इसीलिए पिछले कुछ सालों से राहुल गांधी, सोनिया गांधी और मनमोहन सिंह के बाद जिस एक कांग्रेस के नेता को बीजेपी की आईटी सेल ने सबसे ज्यादा ट्रोल किया है, वो दिग्विजय सिंह हैं.

बाकी सब लोगों को ट्रोल करने की अपनी अलग वजहें हैं. दिग्विजय सिंह को ट्रोल-टारगेट बनाने की वजह उनका एंटी-आरएसएस स्टैंड रहा है. दिग्विजय सिंह कांग्रेस के कुछ गिने-चुने नेताओं में हैं जो देश के लिए आरएसएस के ख़तरे को पहचानते और उसके खिलाफ़ मोर्चा लेते रहे हैं.

सनद रहे कि मुंबई हमलों में शहीद हुए हेमंत करकरे की हत्या में संघ की साजिश होने का बयान सबसे पहले दिग्विजय सिंह ने ही दिया था. आरएसएस के लिए “हिन्दू आतंकवाद” की साजिश का पर्दाफ़ाश होना बहुत जोखिम भरा काम था. इसलिए उसने न सिर्फ़ करकरे की हत्या की साजिशें रची थीं जिनका खुलासा महाराष्ट्र के पूर्व इंस्पेक्टर जनरल ऑफ़ पुलिस एस० एम० मुशरिफ ने अपनी किताब “हू किल्ड करकरे” में किया है बल्कि उसने अपनी सोशल मीडिया विंग को भी करकरे और उनकी पत्नी के चरित्र हनन में लगा दिया था.

हिंदुत्व आतंकवाद के इन्हीं सूत्रों को तलाशते हुए एंटी टेररिस्ट स्क्वाड मालेगांव, मक्का मस्जिद और समझौता एक्सप्रेस कांडों में प्रज्ञा सिंह ठाकुर और असीमानंद जैसों तक पहुंचे थे जिनका आरएसएस से सीधा सम्बन्ध था.

बीजेपी सरकार ने आते ही इन सभी मामलों में अभियुक्तों के खिलाफ़ सबूत मिटाने और गवाहों को धमकाने के साथ-साथ प्रज्ञा सिंह ठाकुर आदि को कांग्रेसी साजिश का शिकार सिद्ध करने का प्रयास किया. हालांकि इन लोगों के खिलाफ़ सबूत अभी भी इतने ताक़तवर हैं कि प्रज्ञा जमानत पर ही बाहर लाई जा सकी हैं और उसके खिलाफ़ कोर्ट का रवैया अभी भी काफ़ी सख्त रहा है.

भोपाल सीट पर दिग्विजय सिंह के खिलाफ़ प्रज्ञा सिंह को उतारने के पीछे दरअसल यही एंगल काम कर रहा था. बीजेपी का आकलन था कि इससे एक तो प्रज्ञा सिंह ठाकुर जैसे आतंकी को मुख्यधारा की राजनीति में लाकर हिंदुत्व आतंकवाद के विमर्श को दफ़नाया जा सकता था. दूसरे, प्रज्ञा ठाकुर यदि लोगों की सहानुभूति जुटाने में किसी तरह कामयाब हो गयी तो इस तरह की कार्यवाहियों में अभियुक्त बने अन्य लोगों को भी धीरे-धीरे राजनीति में लाकर आक्रामक हिंदुत्व को डॉक्ट्रिन की तरह पेश किया जा सकता था. तीसरा, प्रज्ञा को दिग्विजय सिंह के सामने उतारकर आरएसएस के खिलाफ़ सबसे सख्त रवैया अपनाने वाले कांग्रेसी को बदनाम करने की मुहीम को और आगे बढ़ाया जा सकेगा.

लेकिन बीजेपी-आरएसएस का यह दांव उल्टा पड़ गया है. प्रज्ञा ठाकुर ने मुंह खोलते ही करकरे के बारे में अपने विवादित ‘श्राप’ वाला बयान देकर आफ़त मोल ले ली. बीजेपी ने तुरंत इस बयान से अपना पल्ला झाड़कर इसे प्रज्ञा ठाकुर की निजी राय बता दिया. बाद में ख़ुद प्रज्ञा ठाकुर ने इस बयान पर माफ़ी मांगते हुए कहा कि देश के दुश्मन मेरे इस बयान से फायदा उठा रहे हैं इसलिए वो यह बयान वापस लेती हैं और उसके लिए माफ़ी मांगती हैं.

मुश्किल यह है कि बीजेपी-आरएसएस ने प्रज्ञा ठाकुर अपना दांव खेलकर अपनी सबसे कमजोर कड़ी को उजागर कर दिया है. आम जनता में इस बात को लेकर जबरदस्त रोष व्याप्त हुआ कि कोई आतंकवाद कि अभियुक्त किसी शहीद पुलिस अधिकारी के लिए ऐसे अपशब्द कैसे बोल सकती है?

लेकिन एक चीज जो चुनावी इतिहास के अनुभव से एकदम साफ़ है. बीजेपी का हिंदुत्व के आधार पर तैयार वोट बैंक लाख कोशिशों के बावजूद कभी सत्ता तक नहीं पहुंच सकता है. इसीलिए चाहे ‘इंडिया शाइनिंग’ हो या ‘सबका साथ, सबका विकास’ बीजेपी को सत्ता के करीब तक पहुंचने के लिए विकास का कार्ड खेलना पड़ता था. लेकिन इस बार पांच साल सरकार चलाकर उसे विकास के मुद्दे को छोड़कर वापस हिंदुत्व पर आना पड़ा है इसका सीधा सा अर्थ है कि बीजेपी सरकार का आत्मविश्वास डगमगाया हुआ है.

(लेखक आज़ादी की लड़ाई को समर्पित संगठन राष्ट्रीय आंदोलन फ्रंट के संयोजक और दिल्ली विश्वविद्यालय के देशबंधु कॉलेज में इतिहास के सहायक प्रोफ़ेसर हैं.)


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