आरसीईपी: जनस्वास्थ्य पर विदेशी हमला
विदेशी दवा कंपनियों की नजर भारतीय दवाओं के उत्पादन तथा उनके निर्यात पर है. क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक भागीदारी (आरसीईपी) के माध्यम से पुरजोर कोशिश की जा रही है कि भारत जैसे देशों को कड़े पेटेंट कानून की जद में लाया जाए. हालांकि, हालिया खबर है कि बैंकॉक में यह समझौता पूरी तरह से परवान न चढ़ सका लेकिन जापान और दक्षिण कोरिया इस कोशिश में लगे हुए हैं कि किसी तरह से भारतीय दवाओं पर नकेल कसी जाए ताकि उनके देश को जीवनरक्षक और आवश्यक दवाओं की बिक्री पर एकाधिकार मिल जाए.
मामला दवाओं के पेटेंट अधिकार को हथियाकर उसपर अपना एकाधिकार कायम करने का है. आरसीईपी के माध्यम से जापान और दक्षिण कोरिया जैसे विकसित देश कोशिश कर रहें हैं कि उनके देश की दवा कंपनियों के लिए अकूत मुनाफा सुनिश्चित किया जा सके. जाहिर है कि इस बहती गंगा में अमेरिका, जर्मनी, फ्रांस तथा अन्य विकसित देशों की दवा कंपनियां भी हाथ धोने से नहीं चूकेंगी. इस कारण से मोदी सरकार की जिम्मेदारी बनती है कि वह अपने बाशिंदों तथा सैकड़ों छोटे-छोटे देशों के मरीजों को जीवनरक्षक तथा आवश्यक दवाओं की आपूर्ति जारी रखना सुनिश्चित करे.
पेटेंट कानून तथा विश्व-व्यापार-समझौता
पेटेंट का मुद्दा पुराना है. पेटेंट यानी आविष्कारकर्ता को अपने अनुसंधान पर लगे धन और समय के बदले में उस पर नियत समय के लिए एकाधिकार मिले ताकि वह धन अर्जन कर सके. जल्द ही इस नियत समय के एकाधिकार वाली बात ने धन्ना सेठों की नजर को अपनी ओर खींच लिया तथा वे समझ गए कि दुनिया की सबसे कीमती संपदा, बौद्धिक संपदा है जिससे अकूत धन कमाया जा सकता है.
यूं तो दुनिया के हर देश ने अपनी आर्थिक, वैज्ञानिक तथा सामाजिक स्थिति को देखते हुए अपने देश में बौद्धिक संपदा का कानून यानी पेटेंट कानून बनाया जिसमें निश्चित समय के लिए आविष्कारकर्ता को एकाधिकार मिलने लगा.
भारत ने भी साल 1970 में अपना पेटेंट कानून बनाया था जिसमें दवाओं पर उत्पाद का एकाधिकार देने के बजाए उत्पादन पद्धति पर एकाधिकार दिया जाता था. फलस्वरूप भारत की दवा कंपनियों के द्वारा विश्व में नवीन आविष्कृत दवाओं को भारत में अन्य विधि से बनाया जाने लगा. जिससे भारतीय मरीजों को नई दवा कम समय में ही मिलने लगी तथा उनका दाम भी विश्व बाजार की तुलना में कम हुआ करता था. उदाहरण के तौर पर आज व्यापक रूप से जिस एंटीबायोटिक सिप्रोफ्लॉक्सॉसिन का उपयोग भारत में किया जाता है वह विश्व बाजार में साल 1987 में आया था लेकिन भारतीय पेटेंट कानून के कारण महज तीन साल के भीतर ही उसे भारतीय बाजार में पेश कर दिया गया था. जिसका सीधा लाभ मरीजों को मिला.
जाहिर है विदेशी धन्ना सेठ की नजर दुनियाभर में घटने वाली इस तरह की घटनाओं पर था तथा उन्होंने इसका तोड़ पेटेंट कानूनों के वैश्वीकरण के रूप में निकाला. उन्हें इसमें सफलता भी मिली तथा डंकल प्रस्ताव के माध्यम से विश्व व्यापार संगठन बना जिसने दुनियाभर के देशों को मजबूर कर दिया कि वे अपने देशज पेटेंट कानून में बदलाव करें. भारत ने भी इसी कारण से अपने देश के पेटेंट कानून में साल 2005 में बदलाव किया.
गौरतलब है कि उस समय लोकसभा में 61 वामपंथी सांसद थे जिन्होंने विश्व व्यापार समझौते में मौजूद लचीलेपन का लाभ उठाने के लिए यूपीए 1 सरकार को मजबूर कर दिया.
साल 2005 में ही इस संशोधन के माध्यम से विश्व व्यापार संगठन की जरूरतों को पूरा कर दिया था. आगे हम जिस आरसीईपी की बात करने जा रहें हैं उसके लिए जापान तथा दक्षिण कोरिया के द्वारा दबाव बनाया जा रहा है कि इसमें शामिल सभी देश अपने पेटेंट कानून में फिर से ऐसा बदलाव करें जो बहुराष्ट्रीय कंपनियों की दवाओं के उत्पादन तथा विक्रय को बढ़ा देगा.
क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक भागीदारी (आरसीईपी)
आरसीईपी दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों के संघ के दस सदस्य देशों और इसके छह एफटीए भागीदारों के बीच एक प्रस्तावित मुक्त व्यापार समझौता है. इसको लेकर औपचारिक रूप से बातचीत नवंबर 2012 में कंबोडिया में आसियान (ASEAN) शिखर सम्मेलन में शुरू की गई थी. यह वास्तव में सोलह देशों के बीच एक प्रस्तावित मेगा मुक्त व्यापार समझौता है जिसे क्षेत्रीय फ्री ट्रेड एग्रीमेंट भी कहा जाता है. इसमें आसियान के दस सदस्य देश ब्रुनेई, कंबोडिया, इंडोनेशिया, लाओस, मलेशिया, म्यांमार, फिलीपींस, सिंगापुर, थाईलैंड, वियतनाम के साथ छह अन्य देश ऑस्ट्रेलिया, चीन, भारत, जापान, दक्षिण कोरिया और न्यूजीलैंड शामिल हैं.
इस समझौते की प्रस्तावना की नींव साल 2012 के आसियान शिखर सम्मेलन के समय पड़ चुकी थी. तब से इस प्रस्तावित समझौते पर काम किया जा रहा है और अब तक इस पर कई बार बैठकें हो चुकी हैं. मौजूदा बैठक थाईलैंड की राजधानी बैंकॉक में संपन्न हुई है लेकिन समाचारों के हवाले से खबर है कि मंत्री स्तरीय इस बैठक में पूरी सहमति नहीं बन पाई है. दावा किया जा रहा है कि नवंबर तक इस समझौते को पूरा लिया जाएगा.
आरसीईपी के एजेंडे में बौद्धिक संपदा का अधिकार भी शामिल किया जाना चिंतनीय है. जब एक बार विश्व व्यापार समझौते के तहत इस पर वैश्विक तौर पर समझौता हो चुका है तब इसे अन्य मंचों पर दोबारा लाने के पीछे का मकसद क्या है?
क्या कहते हैं आरसीईपी के लीक हुए दस्तावेज?
आरसीईपी के लीक हुए दस्तावेजों के अनुसार बौद्धिक संपदा या पेटेंट से संबंधित पांच मुद्दे हैं-
पहला, पेटेंट अधिकार देने में हुई देरी के लिए या पेटेंट हो चुके दवा को बाजार में उतारने की अनुमति देने के कारण जो देरी हुई है उसकी भरपाई के लिए पेटेंट के समय को बढ़ाया जाए. इसे पेटेंट टर्म एक्सटेंशन कहते हैं.
दूसरा, दवाओं को बाजार में उतारने के लिए ड्रग ऑथारिटी के पास क्लीनिकल ट्रायल का जो ब्यौरा जमा दिया गया है उसे गोपनीय रखा जाए. किसी अन्य को उसी डाटा के आधार पर दवा बेचने की अनुमति नहीं दी जाए.
तीसरा, विश्व व्यापार समझौते के अनुसार अनिवार्य लाइसेंसिंग और अल्प विकसित देशों को जो लचीलापन दिया गया है उसे खारिज किया जाए.
चौथा, विश्व व्यापार समझौते से आगे बढ़कर सीमा उपायों को अपनाया जाए.
पांचवा, निवेशक-राज्य विवाद निपटारे को अपनाया जाए.
दो मोर्चों पर जीत तीन पर जंग बाकी
पेटेंट टर्म एक्सटेंशन का अर्थ होता है कि वर्तमान में बीस साल के लिए दवाओं पर एकाधिकार मिलता है उसे किसी भी तरह से बढ़ावा दिया जाए ताकि भारतीय दवा कंपनियों को उसके उत्पादन और बिक्री से रोका जाए. ऐसे में भारतीय मरीज विदेशों की महंगी दवा खरीदने के लिए मजबूर हो जाएं.
भारत के ड्रग्स एंड कॉस्मेटिक एक्ट 1940 के तहत किसी पेटेंटधारी को मात्र चार साल के लिए ही उसके द्वारा जमा कराए गए तथ्यों और आंकड़ों पर एकाधिकार मिलता है और चार साल की गणना उसी दिन से शुरू हो जाती है, जिस दिन से इसके लिए आवेदन किया गया हो. जब कोई दवा कंपनी ड्रग कंट्रोलर जनरल ऑफ इंडिया के दफ्तर में दवा को हमारे देश में बेचने और बनाने की अनुमति लेने जाती है, तो उसे उस दवा के बारे में और मनुष्यों पर पड़ने वाले प्रभाव के बारे में विस्तार से जानकारी देनी पड़ती है. विदेशी दवा कंपनियां नहीं चाहती हैं कि उनके द्वारा जमा कराए गए इस डाटा का उपयोग करके कोई दूसरी दवा कंपनी इसी दवा को भारत में बेच सके.
अनिवार्य लाइसेंसिंग के तहत सरकार को अधिकार होता है कि वह किसी भी पेटेंट दवा को उसे पेटेंट होल्डर से अनुमति लिए बगैर ड्रग कंट्रोलर जनरल ऑफ इंडिया के माध्यम से किसी अन्य दवा को उत्पादन, विक्रय तथा वितरण का अधिकार दे सके. इसके पीछे कारण होता है कि वह पेटेंट दवा सर्वव्यापी उपलब्ध नहीं है तथा उसके दाम अत्याधिक हैं.
यूपीए 1 सरकार ने नौ मार्च, 2012 को भारत में दवा पर पहली बार अनिवार्य लाइसेंसिंग की अनुमति दी की थी. दरअसल, उस समय बहुराष्ट्रीय दवा कंपनी बायर द्वारा किडनी तथा लीवर कैंसर की दवा नेक्सावर (सोराफेनिब) की एक माह की खुराक को दो लाख 80 हजार रुपये में बेचा जा रहा था.
जिसके बाद मनमोहन सिंह की सरकार ने इस दवा को बनाने का अधिकार भारतीय दवा कंपनी नैक्टो को दे दिया. इस भारतीय कंपनी ने उसी दवा को भारतीय बाजार में एक माह की खुराक को महज नौ हजार रुपये में उपलब्ध करा दिया गया था. अब आरसीईपी के माध्यम से जापान तथा दक्षिण कोरिया की कोशिश है कि विश्व व्यापार संगठन के द्वारा जनहित में दिए गए इस लचीलेपन के अधिकार को खत्म कर दिया जाए.
निशाने पर है भारत का दवा निर्यात
आरसीईपी के माध्यम से विश्व व्यापार समझौते से आगे बढ़कर सीमा उपायों को अपनाए जाने की कोशिश जारी है. साल 2005 में भारतीय पेटेंट कानून में इस बात का प्रावधान रखा गया था कि भारत अपने देश में बनी दवाइयों को ऐसे छोटे देशों को निर्यात कर सकता है जिनके पास उन दवाओं को बनाने की क्षमता नहीं है. लेकिन इन दवाओं को कई ऐसे देशों के बंदरगाहों तथा हवाई अड्डों से होकर गुजरना पड़ता है जहां पर उस दवा पर किसी दूसरे कंपनी को पेटेंट एकाधिकार मिला हुआ होता है. ऐसे में उन बंदरगाहों तथा हवाई अड्डों पर भारतीय दवा को जब्त कर लिया जाता है. सीमा उपायों को अपनाए जाने का अर्थ इसे ही अमलीजामा पहनाना है.
निशाने पर है भारत का दवा बाजार
भारत के दवा बाजार पर विकसित देशों की टेढ़ी नजर होने के दो कारण हैं. पहला, भारत का विशाल दवा बाजार और भारत के द्वारा दुनिया के करीब 165 छोटे-बड़े देशों में दवाओं का निर्यात किया जाना. गौरतलब है कि भारत सरकार के रसायन एवं उर्वरक मंत्रालय के औषध विभाग की साल 2017-18 की सलाना रिपोर्ट के अनुसार साल 2016-17 के दौरान भारत का दवा बाजार दो लाख 19 हजार 755 करोड़ रुपये का रहा है, जिसमें एक लाख सात हजार 618 करोड़ रुपयों का निर्यात किया गया.
भारतीय दवा कंपनियां मोजाम्बिक, रवांडा, दक्षिण अफ्रीका और तंजानिया जैसे कम विकसित देशों को एड्स की दवा कम कीमत पर निर्यात करती हैं. भारतीय दवा कंपनियां अमेरिका जैसे विकसित देशों को भी कम कीमत में उच्च गुणवत्ता वाली दवा की सप्लाई करती हैं. जाहिर है कि इस कारण से अमेरिकी दवा कंपनियों को अपनी दवाओं के दाम कम करने पड़ते हैं.
उदाहरण के तौर पर साल 2001 में भारतीय दवा कंपनी सिपला ने अफ्रीकी देशों के एड्स मरीजों को 350 डॉलर के मूल्य पर एक मरीज के लिए एक साल की दवा सप्लाई की. फलस्वरूप, इसी दवा की खुराक को 10 से 15 हजार डॉलर में बेचने वाली विदेशी दवा कंपनियों को अपनी दवाओं के दाम कम करने पड़े थे.
युद्द से खतरनाक व्यापार युद्ध
युद्ध में सैनिक मारे जाते हैं तथा जमीन पर कब्जा कर लिया जाता है. वहीं व्यापार युद्ध में बिना गोली चलाए दूसरे देश के बाजार पर कब्जा कर लिया जाता है. आरसीईपी के माध्यम से भी एक तरह का व्यापार युद्ध लड़ा जा रहा है. इन व्यापारिक बहसों तथा समझौते में जनता सीधे तौर पर भाग नहीं लेती है लेकिन उससे सबसे ज्यादा प्रभाव या कुप्रभाव उसी पर पड़ता है.
भारत सरकार के रसायन एवं उर्वरक मंत्रालय के औषध विभाग की साल 2017-18 की सलाना रिपोर्ट के अनुसार साल 2016-17 के दौरान भारत ने एक लाख 7 हजार 618 करोड़ रुपये की दवाओं का निर्यात किया था. जाहिर है कि इसी के अनुपात में देश को विदेशी मुद्रा भी मिली है. भारत से दुनिया के करीब 165 छोटे-बड़े देशों को निर्यात की जाने वाली दवाओं को क्षेत्रीय आरसीईपी के पेंच में फंसाकर रोकने की कोशिश हो रही है. इसका फायदा अन्य विकसित देशों को भी होगा.
राष्ट्रवाद का लिटमस टेस्ट
आरसीईपी को मोदी सरकार के लिए लिटमस टेस्ट माना जा रहा है. क्या अपने राष्ट्रीय हितों की रक्षा देश के वार्ताकार तथा मंत्रीगण कर सकेंगे? लीक हुए डाक्यूमेंट के अनुसार मुक्त व्यापार समझौते के तहत डिस्प्युट सैटेलमेंट की व्यवस्था करने की बात है. क्या एक स्वतंत्र देश को यह मंजूर होगा कि विदेशी दवा कंपनी भारत सरकार को जनस्वास्थ्य के हित में फैसला लेने के कारण निवेशक-राज्य विवाद निपटारे के तहत किसी अन्य कोर्ट या मंच पर चुनौती दे?