Exit Polls पर कितना यकीन करें?
शनिवार (18 मई) को ऑस्ट्रेलिया में हुए आम चुनाव के नतीजे सामने आए, तो वहां के राजनीतिक दलों और आम लोगों के साथ-साथ विशेषज्ञ भी दंग रह गए. वजह थी तमाम ओपिनियन पोल, एग्जिट पोल और सट्टा बाजार के अनुमानों का मुंह के बल गिर जाना.
आम राय से भविष्यवाणी वामपंथी लेबर पार्टी की जीत की थी, लेकिन विजयी लिबरल पार्टी के नेतृत्व वाला दक्षिणपंथी गठबंधन हुआ. इससे सदमे में आए लोगों को तुरंत 2016 का अमेरिका के राष्ट्रपति चुनाव की याद आई. तब वहां तमाम मतदान पूर्व और मतदान उपरांत सर्वेक्षणों में डेमोक्रेटिक पार्टी की हिलेरी क्लिंटन को विजयी होता बताया गया था. नतीजा उलटा आया. डोनल्ड ट्रंप जीत गए. ये बात ध्यान में रखनी चाहिए कि ये दोनों विकसित देश हैं. ऑस्ट्रेलिया में सिर्फ पौने दो करोड़ मतदाता हैं.
भारत में भी ऐसी कहानियां कम नहीं हैं. अभी छह महीने पहले छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश विधान सभा चुनावों में नतीजे लगभग तमाम एग्जिट पोल में लगाए गए अनुमानों के विपरीत गए. बल्कि एक विश्लेषण के मुताबिक 2014 के लोक सभा चुनाव के बाद जितने भी विधान सभा चुनाव हुए, उनमें 80 प्रतिशत में परिणाम एग्जिट पोल के उलटे आए. इसलिए ये हैरतअंगेज नहीं है कि अनेक लोग एग्जिट पोल की विश्वसनीयता को संदिग्ध मानते हैं.
इसलिए ओपिनियन और एग्जिट पोल्स पर यकीन तमाम लोकतांत्रिक देशों में घटता गया है. अनेक देशों में इनके अनुमानों को मैनेज किए जाने के आरोप भी लगते रहे हैं. दुर्भाग्य ऐसे देशों में भारत भी है. इस बार इसको लेकर खूब चर्चा रही कि 19 मई को जब आखिरी दौर का मतदान खत्म हो जाएगा, तब एग्जिट पोल क्या रूझान बताएंगे.
गुजरे पांच वर्षों में मीडिया-खासकर टीवी मीडिया को वर्तमान सत्ताधारी दल ने जिस तरह मैनेज किया, उसके मद्देनजर बहुत से लोगों यह भरोसा नहीं था कि यही चैनल एग्जिट पोल में वही अनुमान दिखाएंगे, जो सचमुच उनकी सर्वेक्षण विधि से सामने आए होंगे.
वैसे जो अनुमान सर्वेक्षण से आए आंकड़ों और उन्हें सीट मे तब्दील करने की विधि से सामने आते हैं, वो भी विवादास्पद ही होते हैं. एक समय था, जब सर्वे के धंधे से जुड़े लोग अपनी विधि को वैज्ञानिक बताते थे. मगर ये बात गौर करने की है कि वैज्ञानिक विधि वह होती है, जो प्रयोग से सिद्ध होती है. उससे जो परिणाम आता है, वह सटीक होता है. जबकि यहां तक कि विकसित देशों के अनुभव से भी साफ है कि ओपिनियन और एग्जिट पोल के साथ ये बात लागू नहीं होती.
अगर विधि वैज्ञानिक है, तो फिर सभी एजेंसियों (और चैनलों) के सर्वे में नतीजे एक जैसे सामने आने चाहिए. मगर ऐसा नहीं होता. कई बार अलग-अलग एजेंसियां एक दूसरे के विपरीत अनुमान व्यक्त करती हैं. ऐसा कैसे हो सकता है? दरअसल, भारत जैसे देश में तो अगर कभी एग्जिट पोल सही होता है, तो वैसा संयोगवश ही होता है. ठीक उसी तरह जैसे कभी-कभी नेत्रहीन व्यक्ति का निशाना भी सही पड़ जाता है. वरना, ज्यादातर मौकों पर ओपिनियन और एग्जिट पोल असली नतीजा आने से पहले महज भ्रम पैदा करने का जरिया बनते रहे हैं.
इसीलिए अब राजनीतिक दल भी इन्हें गंभीरता से नहीं लेते. अनेक दल कई मौकों पर इन पोल्स के झांसे में आकर धोखा खा चुके हैं. ब्रिटेन में 1990 के दशक के आरंभ में लेबर पार्टी का यह हुआ था, जब तत्कालीन प्रधानमंत्री जॉन मेजर आश्चर्यजनक रूप से सत्ता में वापस आ गए थे. अपने देश में 2015 में बिहार में तब तक बीजेपी ने होली मनाई, जब तक असली नतीजों की सही सूरत नहीं उभर आई. इसलिए 17वीं लोक सभा चुनाव के परिणाम को जानने के लिए हमें 23 मई का इंतजार करना चाहिए.