केसरी: सिखों की बहादुरी और शहादत को चरितार्थ करती फिल्म


review of film kesari

 

निर्देशक – अनुराग सिंह

स्क्रीन प्ले – अनुराग सिंह, गिरीष कोहली

कलाकार – अक्षय कुमार, परिणीति चोपड़ा, राकेश चतुर्वेदी, वंश भारद्वाज, प्रीतपल पाली

12 सितम्बर 1897 को सारागढ़ी (वर्तमान में पाकिस्तान का खैबर पख्तून इलाका) में एक लड़ाई लड़ी गई थी. सुनने में आता है कि आज से तकरीबन 122 साल पहले यह युद्ध ब्रिटिश भारतीय सेना की सिख रेजीमेंट के 21 सैनिकों और दस हजार अफगान सैनिकों के बीच लड़ा गया था. दुनिया भर के युद्ध के इतिहास में किसी भी सैनिक टुकड़ी द्वारा दिखाया गया यह सबसे बड़ा, अद्भुत, रोंगटें खड़े कर देने वाला साहस था.

कहा जाता है उस समय की ब्रिटिश संसद में भी सारागढ़ी के शहीदों के सम्मान में दो मिनट का मौन रखा गया था. ‘केसरी’ उसी ऐतिहासिक घटना पर आधारित फिल्म है. उन्हीं 21 जाबांज सैनिकों के अविश्वसनीय हौंसले को फिल्म में देखना एक कम सुने, जाने गए इतिहास के पन्ने को पढ़कर रोमांचित होने जैसा है.

फिल्म की कहानी में गुलिस्तान फोर्ट पर तैनात हवलदार ईशर सिंह (अक्षय कुमार) ब्रिटिश राज की सेना में काम करता है. अफ़ग़ानी सरगना (राकेश चतुर्वेदी ओम) के हाथों वह एक शादीशुदा औरत का सर कलम होने से बचाता है. चूंकि यह काम उसने अपने अंग्रेज बॉस की मर्जी के खिलाफ किया है, तो सजा के तौर पर उसका ट्रांसफर गुलिस्तान फोर्ट से सारागढ़ी फोर्ट में कर दिया जाता है. इसी बीच उन्हें पता चलता है कि अफगानी सरगना अफगानी पठानों की एक बड़ी फौज तैयार करके सारागढ़ी पर हमला करने वाला है.

अंग्रेजी हुकूमत सही समय पर मदद न भेज पाने के कारण में ईशर सिंह को उसके जवानों समेत किला छोड़कर भाग जाने की सलाह देती है. लेकिन ईशर सिंह को एक अंग्रेज मेजर की बात याद आ जाती है, जिसने कहा था कि ‘तुम हिंदुस्तानी कायर हो, इसीलिए हमारे गुलाम हो’. उस वक्त ईशर सिंह अपनी नौकरी, पैसे या अंग्रेज हुकूमत के लिए लड़ने के बजाय अपने गौरव के लिए शहीद होने का फैसला करता है और उसके इस फैसले में वो 21 जांबाज सिपाही भी अपने प्राणों की आहुति देने को तैयार हो जाते हैं.

अभिनय की बात करें तो लुक और अभिनय के नजरिए से ईशर सिंह के रूप में इसे अक्षय कुमार की अब तक की सबसे उत्कृष्ट परफॉर्मेंस में से एक कहना गलत नहीं होगा. उन्होंने इंसानियत और वीरता के इमोशंस को पर्दे पर बेहतरीन ढंग से अंजाम दिया है. खासतौर से अपनी संवाद अदायगी में अक्षय ने पंजाबी लहजे को बहुत ही खूबसूरती से निभाया है. अक्षय कुमार अपने किरदार में पूरी तरह से रंगे नजर आते हैं. फाइट सीक्वेंस में हमलावरों से घिरे अक्षय का गुस्सा देखने लायक है, उन्हें देखकर लगता ही नहीं है कि वे ईशर सिंह नहीं है.

परिणीति चोपड़ा को स्पेशल गेस्ट के रूप में दिखाकर उनके जैसी उमदा कलाकार को फिल्म बेवजह खर्च ही करती है. अफगान सरगना के रूप में राकेश चतुर्वेदी ओम ने अच्छा काम किया है. विदेशियों से लेकर हमला करने वाले अफगानों और सिख सैनिकों तक, सबकी एक्टिंग ठीक रही, लेकिन इन सबके बीच में अक्षय कुमार अलग से ही चमकते हैं. अक्षय इस फिल्म की जान हैं और पूरी फिल्म को उन्होंने अपने कंधों पर उठाया हुआ है.

निर्देशक अनुराग सिंह ने वैसे तो फिल्म के हर एक फ्रेम पर अपनी पकड़ बनाए रखने की मजबूत कोशिश की है. लेकिन फिल्म की कथा का इतना विस्तार फर्स्ट हाफ तक दर्शकों को ज्यादा बांध नहीं पाता है. युद्ध आधारित इस फिल्म में निर्देशक ने जिस तरह ह्यूमर का इस्तेमाल किया है वह मजेदार लगता है. ब्रिटिश इंडिया की फौज की तरफ से लड़ें जाने के बावजूद अनुराग सिंह ने उसमें आज के परिपेक्ष में देश प्रेम को सफलता से पिरोया है. हालांकि फिल्म अंग्रेजों की साम्राज्यवादी फितरत को लेकर उनकी आलोचना नहीं करती. साथ ही अफगान चरित्रों को मानसिकता से हिंसक और जंगली दिखाया जाना भी मुस्लिम सैनिकों के स्टीरियोटाइप क्रूर कैरेक्टर को ही स्थापित करता है.

फिल्म जिस भव्यता से बनाई गई है उसके कई दृश्य आपको मंत्रमुग्ध करते हैं. फिल्म में अंशुल चौबे की सिनेमैटोग्राफी कमाल की है. पहाड़ियों से घिरी सारागढ़ी के कुछेक रियल शॉट्स बेहद खूबसूरत लगते हैं. फिल्म का लुक परफेक्ट है, मगर स्क्रीनप्ले कमजोर है. कहीं-कहीं संवाद काफी जोशीले हैं जो प्रभावित करते हैं.

फिल्म का बैकग्राउंड स्कोर बहुत अच्छा है. तनिष्क बागची के संगीत में रोमी और बृजेश शांडिल्य का गाया हुआ, ‘सानु केहंदी’ गाना पसंद किया जा रहा है. ‘मनोज मुंतशिर’ का लिखा देशभक्ति से भरा गीत ‘तेरी मिट्टी’ सुनने में अच्छा लगता है. ये गाना पहले ही हिट हो चुका है. मनोज मुंतशिर के बोलों में प्रेम की तीव्रता हमेशा महसूस होती है जैसे, ‘तू कहती थी, तेरा चांद हूं मैं और चांद हमेशा रहता है’.

फिल्म के सेकंड हाफ में जंग के सीन कमाल के हैं. युद्ध के दृश्यों के स्टंट और कोरियॉग्रफी गजब की है और कहीं-कहीं यह आपके रोंगटे खड़े कर देती है. फिल्म की एक्शन कोरियोग्राफी काफी अच्छी की गई है और एक्शन सीक्वेंसेज को भी बखूबी फिल्माया गया है. लगभग पूरी ही फिल्म के एक्शन सीन्स बहुत उम्दा हैं और ज्यादातर वे अतार्किक नहीं लगते. ऐसी फिल्मों में एक वक़्त के बाद एक्शन दोहराए जाने लगने लगते हैं पर ‘केसरी’ में ऐसा बिल्कुल नहीं है. आखिर तक नित नया एक्शन घटता रहता है. वह सीन काफी रोमांचक लगता है जिसमें अक्षय एक आम बंदूक पर दूरबीन बांधकर उसे दुनिया की पहली टेलिस्कोपिक गन बना देते हैं और फिर दुश्मन के शार्प शूटर की बंदूक को ठीक बीच में से दो फाड़ कर देते हैं.

‘केसरी’ फिल्म सिर्फ सारागढ़ी की लड़ाई की कहानी ही नहीं कहती. बल्कि छुआछूत जैसे सामाजिक मुद्दे को भी छूती है. साथ ही देश, समाज में मानवता और करुणा की जरूरत को भी रेखांकित करती है. ऐसा ही एक सीन जो भीतर तक छूता है जिसमें एक सिपाही भोला सिंह को एक बूढ़ी मुस्लिम अम्मा एक बादाम देती है. जीवन भर अछूत समझ कर दुत्कारा जाता भोला सिंह उसे अपने सम्मान के रूप में स्वीकार करता है और उसको पाकर चमत्कृत सा रह जाता है. ‘केसरी’ देखते वक्त आपके ज़हन में सिक्खों के गुरु गोविंद सिंह जी के बोल लगातार घूमते रहते है, ‘सवा लख नाल एक लड़ावां, तां गोविंद सिंह नाम धरावां’.

21 सिखों की बहादुरी और शहादत देखकर आपकी पलकें नम हो सकती हैं. आत्मसम्मान और गौरव की लिए लड़ी गई लड़ाइयों में भले जीत दुश्मन की हो, मगर यह वीरता की ऐसी गहरी छाप छोड़ जाती है कि सदियों बाद भी इन्हें याद किया जाता है. फिल्म इतिहास के एक बहुत कम पढ़े, सुने गए अध्याय से पर्दा उठाती है. लेकिन फिल्म यह जरा भी स्पष्ट नहीं कर पाती कि यह युद्ध अफगानी सैनिकों के अंग्रेजों सरीखे विस्तारवादी प्रवृत्ति के चलते लड़ा गया था या फिर यह अंग्रेजों की साम्राज्यवादी प्रवृत्ति से लड़ने वाले अफगान पठानों का अपनी जमीन बचाने का युद्ध था जिसमें फौलादी इरादों वाले 21 सिख सैनिक शहीद हो गए थे.

सच चाहे जो भी हो, अक्षय कुमार की जबर्दस्त प्रेजेंस और बेहतरीन एक्टिंग वाली यह फिल्म एक बार तो देखनी बनती ही है.


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