फिल्म समीक्षा: राजनीतिक एजेंडे वाली फ़िल्म है ‘दि एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर’


 

फ़िल्म ‘दि एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर’ ऐसी पहली फ़िल्म नहीं है जिसने अपनी रिलीज से पहले ही विवाद खड़ा किया हो. कहा जा रहा था कि आम चुनाव से ठीक पहले इसे रिलीज कर देश के राजनीतिक माहौल को प्रभावित करने की कोशिश की जा रही है. चूंकि फ़िल्म पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के कार्यकाल पर आधारित थी, इसलिए यह स्वभाविक था कि फिल्म की रिलीज के समय और बहुत हद तक उसकी पटकथा में भी राजनीतिक उद्देश्य तलाशा गया. लेकिन इस तरह के सीधे राजनीतिक उद्देश्य वाली फिल्में भी कई बार अपनी प्रस्तुति और कलात्मक पक्ष के चलते सराही जाती हैं.

पर इस नजरिए से भी फ़िल्म दि एक्सीडेंटल प्राइममिनिस्टर में कोई संभावना नजर नहीं आती. पूरी फिल्म एक भी ऐसी नई बात नहीं बताती जो राजनीतिक घटनाओं में दिलचस्पी लेने वाले किसी व्यक्ति को चौंका दे. यहां तक कि अपनी पटकथा और संवाद में भी फ़िल्म वैचारिक पूर्वाग्रह को ढोती नजर आती है जिसके चलते संवादों तक में रचनात्मकता की गुंजाइश खत्म हो जाती है.

चूंकि फिल्म संजय बारू की किताब ‘दि एक्सीडेंटल प्राइममिनिस्टर’ पर आधारित है, इसलिए फिल्म की पटकथा के बारे में काफी कुछ पहले ही सार्वजनिक दायरे में है. बावजूद इसके वास्तविक राजनीतिक और सामाजिक विषयों के फ़िल्मी रूपांतरण कुछ उत्सुकता पैदा करते हैं. कई बार फ़िल्मी रूपांतरण कुछ उन बातों को उकेरने में मदद करते हैं जो सामान्य तरीकों से नहीं कहा जा सकता.

लेकिन निर्देशक विजय रत्नाकर गुट्टे बहुत ही सपाट ढंग से फिल्म का पहला दृश्य प्रस्तुत कर यह अवसर खो देते हैं. इस दृश्य में ही जैसे सब कुछ जाहिर हो जाता है. एक सामान्य दर्शक भी यह भांप जाता है कि फिल्म और उसकी पटकथा किस दिशा में आगे बढ़ने जा रही है. फिल्म के एक पात्र मनमोहन सिंह को ‘भीष्म पितामह’ जैसा बताकर उन्हें परिवार की राजनीति का शिकार बताया जाता है.

यह संवाद ही बता देता है कि फिल्म गांधी परिवार को लेकर बनाए गए एक पूर्वाग्रह के इर्द-गिर्द बुनी गई है. रही-सही कसर राहुल गांधी की भूमिका में अर्जुन कपूर का अभिनय पूरा कर देता है. सोनिया गांधी और राहुल गांधी के बीच इटालियन में बातचीत दिखाने का निहित उद्देश्य क्या है, यह भी बहुत साफ़ है. ऐसी जगहों पर लगता है कि निर्देशक विजय रत्नाकर जैसे बिलकुल कांग्रेस के राजनीतिक विरोधियों के चश्मे से पूरा घटनाक्रम फिल्मा रहे हैं.

मनमोहन सिंह की भूमिका में अनुपम खेर का अभिनय फिल्म से पहले चर्चा का विषय था, लेकिन मनमोहन सिंह के लहजे और हाव-भाव को अपने अभिनय में उतारते वक्त वे कई बार स्वभाविकता खोते हैं. उनके अभिनय में कृत्रिमता हावी दिखती है. सुजैन बर्नर्ट भी सोनिया गांधी का अभिनय करते हुए कई बार हास्यास्पद हो जाती हैं. उनके संवादों में भी स्वभाविकता की कमी दिखती है. फिल्म की पटकथा की बुनावट कसी हुई नहीं है. रियल विजुअल्स थोड़ा आकर्षित अवश्य करते हैं, लेकिन फिल्म में उनकी अधिकता भी परेशान करने लगती है.

कुल मिलाकर, फिल्म देखने के बाद ये धारणा पक्की हो जाती है कि फिल्म का एक सीधा और सपाट राजनीतिक मकसद है. हाल के सालों में शायद ही कोई ऐसी फिल्म बड़े परदे पर आई हो जिसने राजनीतिक घटनाक्रम को इतने इकहरे ढंग से फिल्माया हो. आश्चर्य नहीं है कि फिल्म को आलोचक गांधी परिवार के विरुद्ध प्रोपेगंडा कह रहे हैं.


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