फ़ैज़ की रूमानियत और इंक़लाब की हक़ीक़त एलिस फ़ैज़


romantic spirit in faiz ahmed faiz and reality of revolution in alys faiz

 

फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ केवल भारतीय उपमहाद्वीप और उर्दू साहित्य के ही बड़े नाम नहीं थे बल्कि विश्व साहित्य में भी उन्हें वही दर्जा हासिल है.

साहित्यिक दुनिया में जीते जी एक बड़े लीजेंड बन चुके और पंजाब के सियालकोट के करीब एक छोटे कस्बे में 13 फरवरी 1911 को जन्में फ़ैज़ का जिक्र उनकी हमसफर, उनकी पत्नी एलिस फ़ैज़ के बगैर अधूरा है.

फ़ैज़ के जन्मदिन के मौके पर अगर केवल फै़ज़ की ही बात की जाए तो यह ना केवल एलिस बल्कि खुद फै़ैज़ के साथ भी बड़ी नाइंसाफी होगी. एलिस और फ़ैज़ ऐसे दो व्यक्तित्व हैं जो एक दूसरे की ज़िंदगी की कमियों को पूरा करते हैं, उसे संवारते हैं, निखारते हैं और उसे पूरा बना देते हैं. लेकिन इस साथ जीते जाने और एक दूसरे को पूरा करने में भी एलिस फै़ैज़ की भूमिका अधिक बड़ी और मजबूत है.

कम्युनिस्ट दुनिया में, या कहें तो तीसरी दुनिया के कम्युनिस्टों में शामिल होने वाली नई पीढ़ियों को पुरानी पीढ़ियों से एक सीख विरासत में मिलती है, ‘हमारी ज़िंदगी इंक़लाब के लिए है’. लेकिन पश्चिमी दुनिया या कहें कि लोकतंत्र को अधिक बेहतर तरीके से आत्मसात कर चुकी विकसित दुनिया में यह सीख कुछ यूं बदल जाती है, ‘हमारी ज़िंदगी के लिए इंक़लाब है’. इंक़लाब के लिए ज़िंदगी की सीख जहां इंसानी ज़िंदगी का सफर रूमानियत से इंक़लाब की ओर ले जाता है तो वहीं दूसरी सीख उसे इंक़लाब के लिए जरूरी तैयारियों के काम करने और इंक़लाब की तरफ ले जाने की समझ देती है.

एलिस और फ़ैज़ के रिश्ते में हमें सीख का यह फर्क हमेशा साफ दिखाई देता है. फ़ैज़ जहां अपने कलाम, अपनी रचनाओं को रूमानियत से शुरू करके इंक़लाब की तरफ जाते हैं. वहीं एलिस दुनिया की जद्दोजहद को समझते हुए उससे लड़ते हुए उनसे ज्यादा व्यवहारिक तरीके से निपटती हैं. उर्दू साहित्य की दुनिया में अपनी ज़िंदगी में ही लीजेंड बन चुके फ़ैज़ का घर, उनकी बेटिंयों, उनकी पूरी ज़िंदगी और रूमानियत भरे उनके इंक़लाबी जज्बे को संभालने का काम करती हैं.

एलिस जार्ज का जन्म इंग्लैंड में लंदन के करीब लेटन में 2 सितंबर 1915 को हुआ था. लंदन में जन्मी एलिस जार्ज का पंजाब के फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ के साथ रिश्ता दो अलग संस्कृतियों, भाषाओं और अलग स्तर पर खड़ी सभ्यताओं के दो व्यक्तित्वों का मिलन था.

इस रिश्ते को कामयाबी से पूरी उम्र बिताने में एक औरत की मजबूती किस कदर जरूरी है इसे खुद एलिस अमृता प्रीतम को दिए गए एक इंटरव्यू में बताती हैं. वह कहती हैं, “मैं यह जरूर कह सकती हूँ कि दो मुख्तलिफ, इलहदा-इलहदा सर-जमीनों के मर्द और औरत जब शादी करते हैं, तो मेरा ख्याल है, मर्द के लिए औरत के देश में रहना आसान नहीं, लेकिन औरत अपने मर्द के देश में रह सकती है. नई धरती, नए माहौल को अपनाने की उसमें ताकत होती है. मुख्तलिफ तहजीब के लोगों की शादी आसान बात नहीं.” यह एलिस की मजबूती और कमिटमेंट ही था कि उन्होंने फ़ैज़ की भाषा और संस्कृति दोनों अपना ली. वह सिर घूघंट डाल ससुराल में दाखिल हुई और ससुराल ने भी चांदी के सिक्कों से उन्हें सलामी दी.

एलिस की बेबाकी और खुलेपन का गवाह उनकी शादी का वह किस्सा भी है जिसे एलिस इसी इंटरव्यू में अमृता को आगे बताती हैं. श्रीनगर में हुए निकाह के किस्से को एलिस कुछ यूं बताती हैं, “उनकी बरात में तीन आदमी आए थे. एक फ़ैज़ के बडे भाई इनायत और दूसरे उनके एक राजनीतिक दोस्त नईम. मैंने आते ही फ़ैज़ से पूछा कि आप अंगूठी लेकर आए हैं. तो उन्होंने कहा जरूर. फिर मैंने उनसे कहा कैसे लेकर आए पैसे तो थे नहीं तुम्हारे पास, तो उन्होंने कहा कि इफ्तखारूद्दीन से उधार लिए हैं. वैसे वापस तो देने नहीं मैंने. फिर मैंने पूछा नाप कहां से लिया, तो उन्होंने बताया कि अपनी उंगली से. खैर पहनकर मैंने बाद में देखी क्योंकि शादी से पहले यह बैड लक हो जाता.”

बहरहाल, श्रीनगर में राजा हरि सिंह के परी महल में उनका निकाह पढ़वाया गया और निकाह पढ़वाने वाले थे कश्मीर के इतिहास में अभी तक के सबसे बड़े नेता समझे जाने वाले शेख़ अब्दुल्ला. शादी की खुशी में शाम को एक बड़ी दावत और मुशायरे का आयोजन भी किया गया. मुशायरे में जोश मलीहाबादी और मजाज़ भी शामिल थे.

एलिस की हिम्मत, बेबाकी और हौसले के अनेकों उदाहरण हैं. रावलपिण्डी साजिश केस के समय फ़ैज़ को कैद कर लिया गया. रात के वक्त 50 के लगभग पुलिसवालों ने फ़ैज़ के घर को घेर लिया तो सबसे पहले उनका सामना एलिस से ही हुआ. उन्होंने पुलिसवालों का नेतृत्व कर रहे अफसर से पूछा वारंट लाए हो. इस पर उस अफसर ने जवाब दिया वारंट तो आ ही जायेगा. फ़ैज़ ने जब पूछा कि मैंने किया क्या तो उस अफसर ने कहा कि आप चलिए आपको पता चल ही जाएगा. उसके बाद जब फ़ैज़ जेल चले गए तो एलिस ने ना केवल फ़ैज़ का घर और उनकी दोनों बेटियों को संभाला बल्कि उन्होंने फ़ैज़ के अखबार पाकिस्तान टाइम्स के प्रकाशन में भी एक अहम भूमिका अदा की.

हालांकि वह पहले से इस अखबार के लिए महिलाओं और बच्चों पर एक नियमित कॉलम लिखती रही थी. एलिस ने फ़ैज़ की नज्मों के प्रकाशन और उनके परिवार के आर्थिक मामलों के इंतजाम से लेकर उनके लिए कानूनी लड़ाई के इंतजाम तक का काम किया. एलिस ने हाशिए पर पड़े लोगों, गरीब बच्चों और औरतों के लिए केवल कॉलम ही नहीं लिखे बल्कि उनके लिए लाइब्रेरी खोली, मानव अधिकार आयोग की स्थापना में अपना योगदान किया.

फ़ैज़ और एलिस की बेटी सलिमा हाशिमी बताती हैं कि हमारे अब्बा को हम इस तरह जानते हैं कि वह एक बहुत मुलायम तबियत के इंसान थे और जब हम अम्मा से डांट खा लेते थे तो अब्बा के पास मरहम लगवाने चले आते थे. वह आगे बताती हैं कि हमें कभी नही पता चला कि हमारे अब्बा कितने बड़े आदमी थे और हमारे घर में बेहद जम्हूरी माहौल था. सबका हरेक मसले पर एक वोट था और अक्सर घर के हम तीन वोट अम्मा के खिलाफ एक हो जाते थे. इससे जाहिर होता है कि बावजूद इसके कि एलिस एक औरत थी, फ़ैज़ के घर की वही मुखिया थी और एक काबिल मुखिया थी.

आज जब हम एलिस और फै़ज़ की इस बेमिसाल कामयाब जोड़ी और उनके रिश्ते को याद करते हैं तो हमें अचानक ही जेनी और मार्क्स का रिश्ता याद आ जाता है. एक धनी माता-पिता की संतान होते हुए भी जेनी कार्ल मार्क्स के साथ घोर अभाव का जीवन जीती रही लेकिन कभी उफ् तक नहीं की और हमेशा मार्क्स को हौसला देती रही.

जेनी को फ्रैंकफर्ट में चांदी के बर्तन और कोलोन में फर्नीचर बेचना पड़ा. लंदन में मकान-मालकिन को किराये के बकाया पाउंड चुकाने के लिए चारपाई, कपड़े, बिछौने, दो छोटे बच्चों के पालने और दोनों लड़कियों के खिलौने तक कुर्क करवा दिए. सर्दी से ठिठुर रहे बच्चों को लेकर वह कठोर फर्श पर पड़ी रही. यहां तक कि भारी बारिश और ठंड में उन्हें घर से निकाल दिया गया. ऐसे मुश्किल वक्त में दवावाले, राशनवाले और दूधवाला अपना-अपना बिल लेकर उसके सामने खड़े हो गए. जिनका बिल चुकाने के लिए जेनी को बिस्तर सहित घर का बचा-कुचा सामान भी बेचना पड़ा. इसके बावजूद भी मार्क्स को कदम-कदम ढांढस बंधाते हुए जेनी कहती कि दुनिया में सिर्फ हम ही तकलीफ नहीं झेल रहे हैं.

एलिस का यह खत फै़ज़ को लगातार हौसला देते हैं और फै़ज़ 15 अगस्त 1952 को जेल से लिखते हैं, “तुम्हारा खत मिला और कई दिनों से जारी उदासी के हमले के बाद मेरे अंदर खुशी आई. गर्मी की तपिस के मुकाबले यह वसंत सा है. शाम को हवाएं समुद्री सांस सी लगती हैं और आसमान जेल की दिवारों के नही अपने करीब ताड़ के पेड़ों से भरे दूर तक फैले समुद्र तट के उपर जान पड़ता है.”

इसी तरह एलिस रावलपिण्डी साजिश मामले में जेल में कैद फै़ज़ को खत लिखती हैं और कहती हैं, ” मैं पूरी कोशिश करती हूं कि सब कुछ वैसा ही बना रहे जैसा कि होना चाहिए.  लेकिन कई बार बोझ बहुत भारी होता है और मेरी भावनाएं मुझे विफल कर देती हैं… क्योंकि समय लंबा है और लड़ाई इतनी कड़ी है.  यह न केवल हमारी लड़ाई है बल्कि उससे भी ज्यादा गरीबों, अकेलों, भूखों, असहाय लाखों की है जो कमजोर हैं तड़पते हैं, प्रताड़ित हैं… तो एक जंगली, जानलेवा गुस्से की जगह तब आखिरकार एक आंसू बहाता है… इस सब के लिए रहता है एक अनकहा दुख…और मेरी अपनी थकी हुई भावनाएं.”

एलिस की अक्लमंदी की चमक से भरे यह खत फै़ज़ को नए आशावाद और आदर्शवाद से भर देते हैं. जब एलिस एक पत्र में लिखती हैं कि आपसे मिलना मुझे आज भी एक सपने जैसा लगता है तो फै़ज़ फिर से नई रोमानियत से भर जाते हैं. फै़ज़ अपनी सालगिरह पर याद दिलाते हैं कि आज हमारी 10 वीं शादी की सालगिरह है. हमने बहुत सारे सुख और कुछ दुख देखे हैं. आइए, उन दिनों को याद करें जो बहुत ही प्यारे थे और आइए कल्पना करें कि हमारा भविष्य कितना उज्ज्वल होगा. कम से कम, जो कल्पना मैं करता हूं. यही एलिस जार्ज थी जो एलिस फै़ज़ बनकर अपनी समझदारी व्यवहारिक सूझबूझ से फै़ज़ अहमद फै़ज़ को बेतरतीब होने से बचाती रही, संभालती रही, हौसला देती रही और फै़ज़ साहित्य और इतिहास में अमर हो गए.  

लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.


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