रोमियो अकबर वॉल्टर: गुमनाम देशभक्तों पर बनी एक कमजोर फिल्म


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देशभक्ति का कोई एक खास रंग या काम नहीं होता. वह असंख्य तरीकों से जी जा सकती है. यदि एक अध्यापक इस नजर से छात्रों को पढ़ाने में अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करता है कि इन छात्रों के माध्यम से वह राष्ट्र की बौद्धिक संपदा का निर्माण कर रहा है तो वह भी देशभक्ति से प्रेरित है.

कुछ लोगों के लिए देशभक्ति सिर्फ किसी खास मौके या वक्त पर दिखाया गया जज्बा होता है. लेकिन ऐसे भी बहुत लोग हैं जो साल भर गुमनाम तरीके से इसी देशभक्ति के लिए जानलेवा खतरों से खेलते हैं.

ऐसे ही लोग होते हैं खुफिया जासूस जो सालों तक चुपचाप सर पर कफन बांधे अपने काम को अंजाम देते रहते हैं. वे गुमनामी में जीते हैं और गुमनाम ही मर जाते हैं. उनका ना नाम होता है और ना उनके काम को ही हम जान पाते हैं. देश के ऐसे ही गुमनाम लेकिन बेहद अहम इन्सानों की जिन्दगी पर बनी है फिल्म ‘रोमियो अकबर वॉल्टर’(RAW). फिल्म अपने विषय के प्रति संवेदना तो जगाती है लेकिन कमजोर पटकथा के कारण ढह जाती है.

फिल्म की कहानी 1971 में पाकिस्तान के साथ हुए युद्ध के पहले की है. कहानी अकबर(जॉन अब्राहम) से शुरू होती है, जिसे पाकिस्तानी इंटेलिजेंस अफसर खुदाबख्श(सिकंदर खेर) के हाथों खूब टॉर्चर किया गया है. थर्ड डिग्री का इस्तेमाल करके उसके साथ दिल दहलाने वाले अत्याचार किए जा चुके हैं, क्योंकि पाकिस्तान इंटेलिजेंस को अकबर के भारतीय रॉ का जासूस होने का शक है. इसके बाद कहानी फ्लैशबैक में चली जाती है.

जॉन अब्राहम अर्थात् रोमियो उर्फ रहमतुल्लाह अली एक साधारण मुस्लिम परिवार से है जो अपनी बैंक की नौकरी में काफी खुश है. रोमियो ईमानदार होने के साथ बहादुर भी है. वह अपनी मां के साथ रहता है और उसे श्रद्धा(मौनी रॉय) से प्यार है. किसी वजह से इंडियन इंटेलिजेंस एजेंसी ‘रॉ’ की उस पर नजर पड़ती है. रॉ चीफ श्रीकांत राय (जैकी श्रॉफ) उसे एक खुफिया मिशन के लिए फिट पाते हैं और उसे पाकिस्तान में अकबर नाम का जासूस बनाकर भेज देते हैं. अकबर का मिशन इजहाक अफरीदी(अनिल जॉर्ज) नाम के एक खूंखार पाकिस्तानी के इर्द-गिर्द रहना और काम की खबरें भारत पहुंचाना है.

जासूस के रूप में उसे कड़ी ट्रेनिंग दी जाती है. पाकिस्तान आकर वह अफरीदी का दिल जीतता है और जल्दी ही उसका विश्वासपात्र बन जाता है. अकबर भारत को पाकितान की तरफ से बदलीपुर में होने वाले हमले की योजना की जानकारी देता है. सब कुछ ठीक चल रहा होता है, मगर श्रद्धा के पाकिस्तान में डिप्लोमैट के रूप में आने पर खुदाबख्श को कुछ ऐसा सुराग मिलता है, जिससे उसे अकबर पर शक हो जाता है. उसके बाद अकबर रोमियो में बदल जाता है. अपने मिशन के दौरान रोमियो को पाकिस्तान की तरफ से प्लान किए जा रहे एक अटैक की खबर लगती है. क्या वह अटैक रोक पाता है? या पकड़ा जाता है? अगर हां तो फिर उसका अंजाम क्या होता है? इन सब सवालों के जवाब फिल्म देखकर पाए जा सकते हैं.

‘रोमियो अकबर वॉल्टर’ फिल्म पूरी तरह से जॉन के कन्धों पर टिकी हैं. यह फिल्म हमें उनके अंदर के लगातार बेहतर होते एक्टर से भी मिलवाती है. कलाकार और फिल्मकार के रूप में जॉन अब्राहम का जबरदस्त ट्रांसफॉर्मेशन हुआ है और यह रूपांतरण उनकी ‘विकी डोनर’, ‘मद्रास कैफे’ और पिछली फिल्म ‘परमाणु’ में देखने को मिलता है.

एक्टिंग की बात करें तो जॉन अब्राहम ही हैं जो फिल्म संभालते हैं. वे एक बैंकर से लेकर जासूस तक हर किरदार में काफी विश्वसनीय तरीके से फिट होते हैं. जैकी श्रॉफ का किरदार अधपका था, लेकिन वो अपने एक्टिंग टैलेंट के दम पर निभा ले जाते हैं. खुदाबख्श के रूप में सिकंदर खेर चौंकाते हैं. उन्होंने अपने किरदार का एक्सेंट बढ़िया ढंग से पकड़ा है.

पाकिस्तानी आईएसआई अधिकारी के रूप में उन्होंने दमदार अभिनय किया है. मौनी रॉय के होने और न होने से फिल्म में कोई फर्क नहीं पड़ता है क्योंकि फिल्म में उनका कोई रोल है ही नहीं. इजहाक अफरीदी के रूप में अनिल जॉर्ज ने बेहतरीन काम किया है. वे अपनी भूमिका में याद रह जाते हैं. रघुवीर यादव ने अपनी छोटी-सी भूमिका में भी ध्यान खींचा है.

फिल्म में कुछ चीजें तो हद दर्जे तक अतार्किक लगती हैं. जैसे जासूसी की राजदाराना बातें पब्लिक स्पेस में होना, दुश्मन देश के जासूस को उसका कवर ब्लो होने के बाद भी पाकिस्तानी आर्मी द्वारा जिम्मेदारी का काम सौंपना आदि. फिल्म के काफी सारे दृश्य आसानी से प्रेडिक्ट किए जा सकते हैं इस कारण कोई थ्रिल पैदा नहीं करते. कई जगहों पर मार खाने वाली फिल्म अंत आते-आते थोड़ी संभल जाती है और आखिर के 15-20 मिनट वो काम करती है, जो उसको पूरे समय करना चाहिए था.

एक अच्छी स्पाई थ्रिलर फिल्म में गानों की कोई भूमिका नहीं होती. इस फिल्म में भी गाने वक्त जाया करने वाले और पूरी तरह गैर जरूरी ही लगते हैं. ‘रोमियो अकबर वॉल्टर’ में गाने न होते तो यह और कसी हुई होती जो कि फिल्म के हक में अच्छा ही होता. हां फिल्म का बैकग्राउंड स्कोर काफी अच्छा है.

‘रोमियो अकबर वॉल्टर’ में तुषार बसु की सिनेमेटोग्राफी काफी अच्छी है. खास तौर पर बारिश वाले दृश्य बेहतरीन बन पड़े हैं. उन्होंने फिल्म के कलर टोन को विषय के मुताबिक रखा है. रॉबी ग्रेवाल ने फिल्म को लेकर बहुत ही डिटेल रिसर्च की है और उनकी डिटेलिंग पर्दे पर नजर भी आती है. मगर फिल्म की सबसे बड़ी समस्या है फिल्म का बेहद धीमा फर्स्ट हाफ.

निर्देशक ने फर्स्ट हाफ में बैकड्रॉप और किरदारों को सेट करने में बहुत ही ज्यादा वक्त लगा दिया है. साथ ही कई जगहों पर कन्फ्यूजन और गैर मौजूं चीजें भी फिल्म में काफी खटकती हैं. फिल्म ‘रोमियो अकबर वॉल्टर’ की सबसे कमजोर कड़ी है इसकी पटकथा है. जासूसी वाली इस फिल्म में न सिर्फ थ्रिल का अभाव है बल्कि जॉन अब्राहम से जिस एक्शन की उम्मीद थी वह फिल्म में नदारद नजर आता है.


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