आरटीआई संशोधन विधेयक को विपक्ष और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने स्वायत्तता छीनने वाला बताया


citizenship amendment bill also passed in rajyasabha

 

विपक्ष के कड़े विरोध और कांग्रेस एवं तृणमूल कांग्रेस के वॉक आउट के बीच सरकार ने लोकसभा में सूचना का अधिकार संशोधन विधेयक 2019 पेश किया है.

संशोधित विधेयक में कहा गया है कि मुख्य सूचना आयुक्त एवं सूचना आयुक्तों तथा राज्य मुख्य सूचना आयुक्त एवं राज्य सूचना आयुक्तों के वेतन, भत्ते और सेवा के अन्य निबंधन एवं शर्ते केंद्र सरकार द्वारा तय किए जाएंगे. मूल कानून में मुख्य सूचना आयुक्त और सूचना आयुक्तों का वेतन मुख्य निर्वाचन आयुक्त एवं निर्वाचन आयुक्तों के बराबर रखा गया था.

सामाजिक कार्यकर्ता आरटीआई कानून में संशोधन के प्रयासों की आलोचना कर रहे हैं. विधेयक को पेश किए जाने का विरोध करते हुए लोकसभा में कांग्रेस के नेता अधीर रंजन चौधरी ने कहा कि मसौदा विधेयक केंद्रीय सूचना आयोग की स्वतंत्रता को खतरा पैदा करता है. कांग्रेस के ही शशि थरूर ने कहा कि यह विधेयक वास्तव में आरटीआई को समाप्त करने वाला विधेयक है जो इस संस्थान की दो महत्वपूर्ण शक्तियों को खत्म करने वाला है.

कॉमनवेल्थ ह्यूमन राइट्स इनिसिएटिव (सीएचआरआई) के मुताबिक नए संशोधन विधेयक के पारा 3 और 5 में उद्देश्य और कारण वाले खंड में ही नई बातें जोड़ी गई हैं.

इससे पहले साल 2018 में  सरकार ने सूचना आयुक्तों के कार्यकाल, वेतन और अन्य भत्तों को नियंत्रित करने के लिए बिल लाई थी लेकिन विरोध के बाद इसे ठंडे बस्ते में डाल दिया गया था. साल 2018 में भी विधेयक को विशेषज्ञों और कार्यकर्ताओं ने प्रतिगामी बताते हुए इसकी आलोचना की थी.

सीएचआरआई ने आरटीआई कानून संशोधन विधेयक 2019 को ‘सूचना का अधिकार कानून 2005’ के तहत सूचना आयोग को मिली स्वायत्तता को छीनने वाला बताया है.

इसके मुताबिक प्रस्तावित संशोधन विधेयक में केन्द्र सरकार के पास शक्तियों को केन्द्रीत करने की कोशिश की गई है. आईटीआई एक्ट में संशोधन से भारत का संघीय ढांचा कमजोर होगा. अब तक राज्यों के सूचना आयुक्तों को राज्य के द्वारा वेतन दिया जाता था जिसपर केन्द्र सरकार का कोई नियंत्रण नहीं होता था लेकिन नए विधेयक में इसे खत्म किया जा रहा है.

इसके साथ ही आलोचनाओं के बावजूद संशोधित विधेयक को प्रभावित होने वाले और जुड़े लोगों के बीच विचार-विमर्श के लिए नहीं रखा गया. यह 2014 के पूर्व-विधान परामर्श नीति का भी उल्लंघन है.

सीएचआरआई ने संशोधन विधेयक की जरूरत पर सवाल उठाते हुए कहा है कि साल 2017 में वित्त कानून के तहत पहले ही कानूनी न्यायाधिकरण (ट्रिब्यूनल) और प्राधिकृत प्राधिकरणों के लिए समान वेतन का फैसला लिया जा चुका था.

जून 2017 में केन्द्र सरकार ने वित्त कानून के माध्यम से अध्यक्ष या पीठासीन अधिकारी के लिए और 19 ट्रिब्यूनल और एडज्यूडिकेटिंग ऑथरिटी के लिए वेतन, भत्ते, योग्यता और नियुक्ति की प्रक्रिया को अपग्रेड किया था. इन 19 में से 17 ट्रिब्यूनल के चेयरपर्सन का वेतन बढ़ाकर (चुनाव आयुक्त 2,50,000 रुपये) एक जैसा कर दिया गया है जबकि इसके सदस्यों का वेतन हाई कोर्ट के जज के समान 2,25,000 रुपये किया जा चुका है.

कानूनी ट्रिब्यूनल के सदस्यों और चेयरपर्सन की सैलरी राष्ट्रपति की ओर से अनुमति मिलने से पहले ही बढ़ाकर सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट के जज के बराबर कर दी गई. वेतन अपग्रेड (बढ़ाने) के छह महीने बाद जनवरी 2018 में कानून को गजट में प्रकाशित किया गया. इससे पता चलता है कि केन्द्र सरकार को कानूनी ट्रिब्यूनल का वेतन सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट के जज से पहले बढ़ाने में कोई दिक्कत नहीं है.

जबकि केन्द्र सरकार आरटीआई एक्ट में सूचना आयोग को संवैधानिक संस्थाओं से अलग बता रही है.

भारत के विधि आयोग ने अक्टूबर 2017 में केन्द्र सरकार के विभिन्न कानूनों के तहत गठित कानूनी ट्रिब्यूनल के लिए सुसंगत वेतन और सेवा शर्तों की अनुशंसा की थी.

सीएचआरआई के प्रोग्राम हेड वेंकटेश नायक ने प्रेस रिलीज जारी कर कहा है कि विधि आयोग की अनुशंसा सभी कानूनी ट्रिब्यूनल के लिए लागू होता है. इसलिए सूचना आयोग के लिए अलग नियम बनाने का कोई कारण नहीं है.

प्रस्तावित संशोधन विधेयक संविधान के अनुच्छेद 14 से मिले चुनाव आयुक्तों के समानता के अधिकार का उल्लंघन करता है. एनजीटी और एफसीएटी को छोड़कर सभी ट्रिब्यूनल मौलिक अधिकारों से जुड़ी हैं. इस आधार पर भी कोई कारण नहीं बनता है कि सूचना आयोग को अन्य ट्रिब्यूनल से अलग माना जाए.


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