व्यंग्य: गांधी के दुलारों को, गोली…


gunshot in shaheen bagh police captured attacker

 

गांधीजी ही थे. बुढ़ापे में भी इतनी तेज चाल कि साथ बने रहने के लिए, करीब दौड़ना पड़ रहा था. दौड़ते-दौड़ते शिकायती स्वर में टोका-शहादत के दिन तो थोड़ा आराम कर लेते. अब कहां दौड़ चले।. एक शब्द का जवाब आया-शाहीनबाग. बुढ़ऊ ने चाल और तेज कर दी.

दौड़ते-दौड़ते पूछा-शाहीनबाग? मगर सुनते हैं कि वह धरना तो गैर-कानूनी है. बिना पुलिस की परमीशन के डेढ़ महीने से रास्ता रोका हुआ है. आप को पता नहीं लोगों को कितनी परेशानी हो रही है. कम से कम आज के दिन तो यहीं राजघाट पर रहते. बड़े-बड़े लोग दर्शन करने आएंगे.

बुढ़ऊ ने कदमों को अचानक ब्रेक लगाया और चश्मे के गोल शीशों के पीछे से एक बार घूर कर देखा. फिर फैसला सुना दिया- आज का दिन है, इसीलिए वहां जा रहा हूं, जहां मेरी सबसे ज्यादा जरूरत है. जिन्हें सिर्फ सालाना दर्शन करना है, उनके लिए वैसे भी मेरी जगह मेरी तस्वीर ही ज्यादा मुफीद रहेगी. तस्वीर कब किसी का हाथ पकड़ती है या किसी से कुछ मांगती है. शाहीनबाग की बात दूसरी है. वहां मेरी जरूरत है और सिर्फ आज नहीं डेढ़ महीने से हर रोज मेरी जरूरत है और आगे भी न जाने कब तक रहेगी.

फिर जैसे उन्हें कुछ और ध्यान आ गया और कहने लगे- और क्या कहा, शहीनबाग का धरना गैर-कानूनी है? लेकिन, क्या धरना भी कानूनी होता है? मैंने रोकने की कोशिश की-बापू आप भी! वो बोले- मैंने तो दक्षिण अफ्रीका से कानून तोड़ने की शुरुआत की थी और याद नहीं कि कितनी बार कानून तोड़ा. और हर बार कहकर कानून तोड़ा. मैंने तर्क करने की कोशिश की-आप के कानून तोड़ने की बात अलग थी.

बापू चिढक़र बोले-क्या इसलिए कि अंगरेज का राज था? अंगरेजी राज नहीं रहा तो क्या हर कानून मान लोगे? कानून किस का है, कौन तोड़ रहा है, इससे फर्क नहीं पड़ता है. फर्क इससे पड़ता है कि कानून कैसे तोड़ा जा रहा है? कानून तोड़े मगर अहिंसक रहे बल्कि खुद को सजा के लिए पेश कर दे कि मैंने कानून तोड़ा है, मैंने इससे ज्यादा कभी कुछ नहीं मांगा. उतना शाहीनबाग की औरतें कर रही हैं बल्कि उससे कुछ फालतू ही. मुझे और क्या चाहिए.

मैंने भी हार नहीं मानी. बापू को समझाने की कोशिश की कि जरूर उन्हें कुछ गलतफहमी हुई है. शाहीनबाग वाले और उनके जैसे दूसरे बहुत सारे एंटीनेशनल लोग, जिस कानून का आंख मूंदकर बल्कि दुश्मन देश के इशारे पर विरोध कर रहे हैं, वह तो उनकी ही इच्छा पूरी करने के लिए बनाया गया है. क्या आपकी इच्छा नहीं थी कि पड़ोस में अल्पसंख्यकों का उत्पीड़न हो तो भारत उनकी मदद करे, उन्हें शरण दे. मोदी जी पड़ोसी देशों के अल्पसंख्यकों को नागरिकता देकर आप की इच्छा पूरी कर रहे हैं और आप हैं कि उनको आशीर्वाद देने के बजाए, उनके विरोधियों को बढ़ावा दे रहे हैं.

बापू एकदम रुक कर खड़े हो गए. कुछ देर तोलकर देखते रहे कि मैं गंभीर ही था, मजाक तो नहीं कर रहा था. फिर व्यंग्य का मारक तीर छोड़ा- बुढ़ापे में जरूर मेरी मति मारी गयी है. मेरी ही इच्छा पूरी की जा रही है और मैं उसे पहचान ही नहीं पाया. आपने बड़ी कृपा की जो मेरे ज्ञान चक्षु खोल दिए. वर्ना सरकार का विरोध कर के अनजाने में, मैं भी एंटीनेशनल बन जाता. पर शहीनबाग तो मैं जाऊंगा. सांप्रदायिक कानून का विरोध तो करूंगा. मुझे नहीं लगता कि कभी मैंने ऐसे कानून की इच्छा की होगी. पर कभी गलती से इच्छा की हो तो भी इसका विरोध तो करूंगा. पर अनजाने में नहीं, अब सोचे-समझे विरोध के लिए एंटीनेशनल कहलाऊंगा.

अब मैंने दूसरा तर्क दिया-सीएए संसद का बनाया कानून है, तब भी? बापू ने कुछ खीझकर कहा-उससे क्या? अब तो ज्यादातर कानून संसदें ही बनाती हैं. मैंने कहा- और आने-जाने वालों की परेशानी? बापू क्षण भर रुके, फिर बोले जिन्हें परेशानी हो रही है, उन्हें समझाना होगा कि अपने देश-भाइयों की परेशानी भी समझें. पड़ोसी की परेशानी समझेंगे तो उनकी परेशानी अपने आप छोटी हो जाएगी. मैंने हार कर पूछा- पर शाहीनबाग ही क्यों? आज तो पूरा देश आप को याद कर रहा है. बापू हंसे- पर शाहीनबाग मुझे याद नहीं, जिंदा कर रहा है.

अचानक रास्ते में शोर उठा – गांधी के दुलारों को, गोली मारो…बापू उसी तरफ लपक लिए. जामिया के छात्रों पर रामभक्त गोपाल बंदूक ताने खड़ा था. मैंने आगाह किया- गोली… बापू व्यंग्य से हंसे-गोडसे की गोली मुझे तब भी नहीं मार पाई, फिर अब काहे का डर.

तीन बार धांय-धांय की आवाज आई. बापू सड़क पर गिर पड़े. लेकिन, ‘देशभक्त’ गोडसे ने उन्हें गोली मारकर अमर कर दिया था, सो फौरन धूल झाड़कर उठ खड़े हुए. मैंने रोकने की आखिरी कोशिश की-अब कहां? बुढ़ऊ की जिद्द सब जानते हैं. बोले शाहीनबाग भी तो जाना है, वहां कपिल गुर्जर की गोली भी खाना है.


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