राम का संताप


satire on decision of ram temple

 

‘आज खुश तो बहुत होगे तुम’ लाखों लोगों की जुबान पर चढ़े, अमिताभ बच्चन के फिल्म दीवार के डॉयलाग से शुरू कर के मैंने माहौल को कुछ हल्का करने की कोशिश की. पर रामलला के मुंह पर बड़ी मुश्किल से फीकी सी मुस्कुराहट भर आई और वह भी पल भर के लिए. मुझे खटका हुआ. उन्हें कहीं मेरी नातकुल्लफी नागवार तो नहीं हुई? आखिरकार, भगवान थे. खिसियाए से सुर में मैंने कुछ सफाई जैसी देने की कोशिश की. मैंने तो बस मजाक…!

उन्होंने हाथ उठाकर बीच में ही रोक दिया. बोले-परेशान मत हो. मजाक मैं भी समझ लेता हूं. मुझे मजाक पर हंसना भी खूब आता है. पर मजाक समझना और बात है, मजाक बनना और. यहां मेरा मजाक बन रहा है और तुम पूछते हो कि ”खुश तो बहुत होगे”. यह तो नाइंसाफी पर नाइंसाफी है भाई. अपने हल्के से मजाक के साथ उन्होंने रस्मी मुस्कान भी जोड़ी.

मेरा माथा ठनका. क्या वाकई राम जी खुश नहीं हैं? इतने सब के बाद भी…फिर अब तो सारी बाधाएं भी दूर हो चुकी हैं. भारत देश मंदिर वहीं बनाएंगे से मंदिर वहीं बनेगा तक पहुंच चुका है. सुप्रीम कोर्ट का फैसला आ चुका है. सर्वसम्मत फैसला. और मुट्ठी भर सिरफिरों को छोडक़र, पूरे देश ने सर्वसम्मति से मान भी लिया है. कम से कम यह कहा तो जा रहा है. कहीं कोई विरोध नहीं है, कश्मीर के फैसले की तरह.

न हारने वाला, खुद को हारा बता रहा है और न जीतने वाला जीत की अकड़ दिखा रहा है. यानी विन-विन. जिसे भी देखो कह रहा है झगड़ा छूटा, अब आगे चलो. अब भव्य मंदिर बनेगा. मंदिर वहीं बनेगा. मंदिर जल्द बनेगा. इनके भक्तों की सरकार के हाथों मंदिर बनेगा. पर ये तो इतने पर भी खुश नहीं हैं. इन्हें और क्या चाहिए? बड़े अनिश्चित से सुर में कहा–भव्य सही, उसी स्थान पर सही, पर होगा तो आप का एक और मंदिर ही. एक और मंदिर की माया आप को नहीं छुए, बात समझ में आती है. भला आप को अपने पक्ष में जमीन का फैसला होने का मोह क्यों होने लगा. पर इस सब में मजाक बनने वाली क्या बात हुई? खुशामद के स्वर में मजाक का स्वर जोड़कर कहा–आपका मजाक बनाने की किस में हिम्मत है; मरना है क्या?

तनिक रोष मिश्रित आवेश के साथ जवाब आया–यही प्रॉब्लम है- डर. डरना और डराना. खुद मुझसे डरने तक तो फिर भी ठीक था, अब तो मेरे नाम से दूसरों को डराया भी जा रहा है. और अब तो सब डर भी रहे हैं. मेरा मंदिर वहीं बनाएंगे का नारा, दूसरों को डराने के लिए ही तो था. मुझसे डरने वाले थे तुलसीदास. सारी जिंदगी मेरा भजन किया, पर उन्होंने तो कभी मेरा जन्मस्थान दिलाने का दावा नहीं किया. उनसे भी पहले हुए कबीर. उन्होंने तो मुझे न दशरथ पुत्र रहने दिया, न अयोध्या का वासी. पर वह और जमाना था. अब तो मेरा नाम लेकर दूसरों को डराने के लिए ही तो अवतार कहते-कहते भी, मेरा ही जन्मस्थान खोजा गया. जन्मस्थान भी किसे चाहिए था, मंदिर वहीं बनाएंगे के बहाने, दूसरों को डराने का बहाना खोजा गया. खैर, डराने वालों के डराने तक तो फिर भी गनीमत थी, अब तो डराए जाने वाले बिना किसी के डराए खुद ही डर रहे हैं. और लोग कह रहे हैं कि डर की एक और दीवार गिर गयी है. यह सब मेरे नाम पर हो, यह मेरा मजाक बनाना नहीं तो और क्या है? और तुम कह रहे हो कि मुझे खुश होना चाहिए. आर यू सीरयस!

बात पूरी तो नहीं, पर कुछ-कुछ समझ में आ रही थी. लेकिन, उससे मेरी दुविधा और बढ़ गयी. इतनी मुश्किल से तो शांति हुई थी. कहीं कोई विरोध करने वाला तक नहीं. हार-जीत में फर्क करने वाला नहीं. फिर, विरोध में किसी हिंसा और आगजनी की तो बात ही कहां उठती है. 1992 और 2019 के इस अंतर को कोई कैसे भूल सकता है? भड़काने वाले चाहे भूल भी जाएं पर, भुगतने वाले कैसे भूल सकते हैं? और यह भी कोई कैसे भूल सकता है कि यह शांति सिर्फ कमजोर के डरने की वजह से नहीं है, ताकतवर की कुर्बानियों की वजह से भी है. इतनी बड़ी जीत और जीत का रत्तीभर जश्न नहीं. पटाखे तो पटाखे, मिठाइयां बांटना तक नहीं. ऊपर से भागवत का यह आश्वासन और कि बस हुआ, अब और नहीं. और क्या चाहिए?

मैंने सोचा कि भगवान हैं तो क्या हुआ, दीन-दुनिया का थोड़ा सा ज्ञान तो उन्हें दिया ही जा सकता है. आप समझ नहीं रहे हैं–मैंने समझाने की कोशिश की. जो हुआ, अच्छा हुआ. इसके सिवा और कुछ भी होता तो आग लग जाती. तबाही के सिवा और कुछ हाथ नहीं आता. अपने लिए न सही, अपने श्रद्धालुओं के मुसीबत से बचने के लिए ही सही, आप को थोड़ी खुशी तो दिखानी ही चाहिए. पर खुशी दिखाने की जगह वह कुछ चिढक़र बोले–अजीब जबर्दस्ती है. जिन्होंने खुद अपने सिर पर आफत न्यौती है या दूसरों को यह आफत अपने सिर पर डालने दी है, उन पर आफत नहीं टूटी है, इसके लिए तो मुझे खुश होना चाहिए! और जो मेरा सम्मान कराने के नाम पर मुझे डरावना बनाकर मेरा मजाक बनाया गया है, उसे मुझे यूं ही पी जाना चाहिए! ऐसा भोले भंडारी मैं नहीं हूं.

फिर एक बात सच-सच बताना. तुम्हें क्या सचमुच लगता है कि यह शांति, सचमुच की शांति है. यह मजबूरी की नहीं, मंजूरी की शांति है. यह डर की नहीं, प्रेम की शांति है. अन्याय भी करोगे. शिकायत भी नहीं करने दोगे. और मरघट के सन्नाटे को सचमुच की शांति भी कहोगे. औरों को बेवकूफ बना सकते हो, मुझे नहीं. भय से प्रीति नहीं होती, मेरे परमभक्त तुलसी इसकी उल्टी बात कहें तब भी नहीं. और हां, प्रीति के बिना सचमुच की शांति नहीं होती. अन्याय से नाराजगी भीतर-भीतर पलेगी, तो नासूर बनकर निकलेगी. ऐसी शांति से तो विरोध की अशांति भली. आज न सही, कभी तो उसका इलाज निकल सकता है, नासूर का तो इलाज ही नहीं होता.

दिमाग उनकी बात का विरोध करना चाहता था, मगर दिल ने साथ नहीं दिया. मैंने बात बदलने की कोशिश की. छोड़िए जो हुआ सो हुआ, कम से कम अयोध्या का भला तो होगा. जिस मस्जिद में कोई इक्का-दुक्का ही जाता होगा, उसकी जगह भव्य मंदिर बनेगा. देश-विदेश से दर्शक/ पर्यटक/ श्रद्धालु आएंगे. धर्म ही नहीं हरेक कारोबार चमकेगा. मंदी के जमाने में रोजगार मिलेंगे. हिंदुओं का भी एक वैटिकन होगा. कौन जाने एक दिन आपके जन्मस्थान का मंदिर, विश्व धरोहर ही बना दिया जाए.

अपनी प्रिय अवधपुरी की तरक्की का रास्ता खुलने से तो आप खुश हो ही सकते हैं. पर उनका ध्यान कहीं और भटक रहा था. बुदबुदाते से बोले–इस सब में मैं कहां हूं? मैंने चौंक कर कहा–क्यों सब कुछ के केंद्र में. उन्होंने याद दिलाया–वहां तो किसी धनुर्धारी की विशाल प्रतिमा होगी, कौन जाने पटेल और शिवाजी से भी ऊंची या कुछ नीची? वहां मैं बालक कहां? देखते-देखते वे बालक बन गए, कुछ भी सुनने और कहने से दूर. और फिर दूर से दूर होते हुए, नजरों से ही ओझल हो गए. तब से मैं यही सोच रहा हूं कि यह सपना था हकीकत.


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