आधुनिकता के दौर में नौजवानों के द्वन्द्व को उकेरती फिल्म


review of satyajit ray film pratidwand

 

‘मैं यहां की अराजकता, क्रांति और अमेरिका विरोध भरा माहौल देखकर अपनी आने वाली फिल्म को लेकर बहुत चिंतित हूं. ये फिल्म यहां की पहली समकालीन फिल्म होने वाली है. और यह एक तरह से क्रांति के समर्थन में है, क्योंकि मुझे लगता है कि अब क्रांति से कम में काम नहीं चलेगा.’

आमतौर पर अपनी फिल्मों को राजनीति से दूर रखने वाले सत्यजीत रे ने ये पंक्तियां अपनी जीवनीकार मैरी सिटोन (प्रोट्रेट ऑफ डायरेक्टर) को ‘प्रतिद्वंदी’ रिलीज होने से पहले कही थी. जहां उनके समकालीन फिल्मकार मृणाल सेन को कभी अपनी राजनीतिक पक्षधरता दिखाने में कभी आपत्ति नहीं हुई, वहीं सत्यजीत रे अपनी राजनीति से परे मानवीय संवेदनाओं और संबंधों पर यथार्थवादी फिल्में बनाते रहे.

सत्यजीत रे और मृणाल सेन दोनों ही कलकत्ता के थे. एक शहर जिसने आजादी से पहले बंगाल का भीषण अकाल देखा, आजादी के वक्त बंगाल का विभाजन देखा और आजादी के बाद कम्युनिस्टों के विद्रोह को देख रहा था. एक बना-बनाया शहर उजड़ रहा था और रे इससे अनछुए नहीं थे. 1970 आते-आते कलकत्ता के युवाओं की बेचैनी रे को भी परेशान करने लगी थी. माहौल भड़क रहा था, छात्र सड़कों पर थे, शहर में धमाके होना आम था. ऐसे में सिनेमा को समाज का आईना मानने वाले रे ने कलकत्ता और उसके युवाओं के बारे में फिल्म बनाई- ‘प्रतिद्वंदी’.

प्रतिद्वंदी सिद्धार्थ नामक एक नौजवान के इर्द-गिर्द घूमती है. पिता की अचानक हुई मौत के बाद उसे अपनी मेडिकल की पढ़ाई बीच में ही छोड़नी पड़ती है और वो कलकत्ता में नौकरी की तलाश में भटक रहे नौजवानों की भीड़ में शामिल हो जाता है.

सिद्धार्थ का जीवन भी उसके शहर की तरह ही हो जाता है- अजनबी और डरावना. सिद्धार्थ के परिवार में उसकी मां और दो छोटे भाई बहन हैं. उसकी बहन घर की कमानेवाली एकमात्र सदस्य है जो एक निजी दफ्तर में काम करती है. हालांकि सिद्धार्थ यह मानता है कि उसे नौकरी उसकी योग्यता की वजह से नहीं बल्कि उसकी खूबसूरती की वजह से मिली है और उसने अपनी बहन और उसके बॉस के अफेयर के बारे में अफवाह भी सुनी होती है फिर भी वह कुछ नहीं कर पाता.

वहीं सिद्धार्थ का छोटा भाई पढ़ाई में बहुत तेज है. पर वह धीरे-धीरे क्रांतिकारी होता जा रहा है. नक्सल आंदोलन के प्रति उसका झुकाव सिद्धार्थ के मन में उसके प्रति सम्मान की भावना तो लाता है, पर उसकी सुरक्षा के प्रति चिंता भी बढ़ा देता है. सिद्धार्थ अपने दोनों भाई-बहनों के प्रति फिक्रमंद है, पर उनमें से कोई भी सिद्धार्थ की बात सुनने को तैयार नहीं है.

सिद्धार्थ कोई क्रांतिकारी नहीं है, पर इसका मतलब यह नहीं है कि उसके अंदर सामाजिक चेतना नहीं है. फिल्म का एक दृश्य इस मायने में काफी महत्वपूर्ण है जिसमें एक जॉब इंटरव्यू में सिद्दार्थ से पूछा जाता है, ‘आपके हिसाब से पिछले एक दशक की सबसे महत्वपूर्ण घटना कौन सी थी?’

सिद्धार्थ को नौकरी की आवश्यकता है, पर फिर भी वह जवाब देता है, ‘वियतनाम युद्ध.’

‘इंसान के चांद पर जाने से भी महत्वपूर्ण?’

‘जी, मुझे ऐसा लगता है’, सिद्धार्थ कहता है, ‘ऐसा नहीं है कि चांद पर इंसान का जाना अप्रत्याशित नहीं था, वह बड़ी घटना थी, लेकिन यह एक न एक दिन होने ही वाला था.’

सामने बैठा इंटरव्यू लेने वाला पूछता है, ‘क्या वियतनाम का युद्ध अप्रत्याशित था?’

सिद्धार्थ जवाब देता है, ‘वियतनाम का युद्ध अप्रत्याशित नहीं था, पर जो अप्रत्याशित था वह था वियतनाम की जनता का स्वरूप. साधारण लोगों की प्रतिरोध की क्षमता जिसकी उम्मीद नहीं थी. इसमें कोई तकनीक नहीं थी, बस इंसानी साहस था.’

एक चुप्पी के बाद इंटरव्यू लेने वाला पूछता है, ‘क्या तुम कम्युनिस्ट हो?’

सिद्धार्थ कहता है कि वियतनाम और वहां की जनता का प्रशंसक होने के लिए उसका कम्युनिस्ट होना जरूरी नहीं है. यह बताने की भी जरूरत नहीं है कि सिद्दार्थ को नौकरी नहीं मिलती है.

सिद्धार्थ काम के मामले में खाली है. वह उम्मीदवार है, और हमेशा उम्मीदवार ही रहता है. उसे नौकरी कभी नहीं मिलती है. वह कोई आदर्श या काल्पनिक उम्मीदवार नहीं है, इसलिए जब उससे पूछा जाता है कि उसका जिंदगी में ध्येय क्या है तो वह कहता है,’नौकरी पाना.’

यह अजीब सी बात है कि नक्सली क्रांति के दौर में बनी इस फिल्म में नायक नक्सली न होकर एक भाई है. पर सत्यजीत रे का मानना था कि क्रांतिकारी लोग कम दिलचस्प होते हैं, क्योंकि वे हमेशा अपने बारे में नहीं सोचते. पर नौकरी की चाह रखने वाला, अपने बारे में सोचने वाला युवा हमेशा दिलचस्प होता है, चाहे सत्ता में कोई भी हो. उसका विरोध भी व्यक्तिगत स्तर पर होता है, न कि किसी विचारधारा का प्रदर्शन.

सत्यजीत रे ने इस फिल्म में कई नई तकनीकों का इस्तेमाल किया था, जैसे पूरा दृश्य निगेटिव में दिखाना. सिद्दार्थ के पिता की मौत को निगेटिव में दिखाया गया है, ताकि उनका फिल्म पर कोई असर नहीं पड़े. बंगाली दर्शकों के रूढ़िवाद की वजह से एक लड़की का सिगरेट पीने वाला दृश्य भी निगेटिव में है.

बीच-बीच में फ्लैशबैक है. सिद्धार्थ का अपने बचपन में खो जाना. बार-बार उस चिड़िया की आवाज को याद करना जो उसे बहुत पसंद थी. सिद्धार्थ को बार-बार अपनी मेडिकल की क्लास भी याद आती रहती है. साथ ही इमेजिनरी फ़्लैश फॉरवर्ड का भी इस्तेमाल है जिसमें सिद्धार्थ के मन की उधेड़बुन दिखाई देती है, जैसे कि वो अपनी बहन के बॉस पर गोलियां चलाने के बारे में सोच रहा है. एक दिन वह आईने में देखता है और उसको खुद का नहीं चे ग्वेरा का चेहरा दिखाई देता है. वह सोचकर देखता है कि एक क्रांतिकारी के तौर पर वह कैसा होगा.

सिद्दार्थ कभी-कभी यूनानी पौराणिक कथाओं के किरदार सिसिफस की तरह नजर आता है जो रोज सुबह उठकर नौकरी की खोज करने जाता है और रात तक असफल होकर वापस लौटता है, और दूसरे दिन फिर उसी खोज में चल देता है. सिसिफस को यूनानी देवताओं ने सजा दी थी कि वह एक बड़ा सा पत्थर लेकर एक पहाड़ पर चढ़ेगा. उस सजा का दूसरा हिस्सा यह था कि चोटी के करीब पहुंचते ही वह पत्थर फिसलकर वापस नीचे आ जाएगा और सिसिफस अनंतकाल तक यही क्रिया दोहराता रहेगा. रे अपनी फिल्म में भारतीय नौजवानों की एक ऐसी दशा दिखाते हैं जो अब तक खत्म नहीं हुई है, 1970 से हम 2019 में आ गए हैं पर सिद्धार्थ जैसे नौजवानों की संख्या बढ़ी ही है.

सिद्धार्थ का लड़कियों से भी रिश्ता अजीब सा है. सड़क पार करते हुए एक सुंदर लड़की को देखकर उसे महिला स्तनों की संरचना के बारे में अपनी पुरानी क्लास याद आ जाती है. वह एक वेश्या के पास जाता है पर वहां से असहज होकर भाग आता है.

यह फिल्म सुनील गंगोपाध्याय के उपन्यास प्रतिद्वंदी पर आधारित है. 1971 के राष्टीय फिल्म पुरस्कारों में इसे तीन पुरस्कार मिले जिनमें एक सर्वश्रेष्ठ निर्देशन के लिए भी था. फिल्म का संगीत सत्यजीत रे ने खुद ही कंपोज किया था. यह पूरी तरह से शहरी नव-यथार्थवाद पर आधारित फिल्म है.

सिद्धार्थ कुछ मायनों में सत्यजीत रे का एंग्री यंग मैन है, पर वह न क्राइम की दुनिया में जाता है, और न ही क्रांति करता है. वह महत्वपूर्ण इसलिए है क्योंकि उसका कोई सामाजिक या राजनीतिक महत्व नहीं है. वह कोई बने-बनाए ढांचों में नहीं ढलता है, लेकिन इतना भी अलग नहीं है कि सिस्टम को चोट पहुंचा सके.

सत्यजीत रे का सिद्धार्थ एक तरह से एंटी-हीरो है, जिसे धृतिमान चटर्जी बखूबी निभाते है. वह हर्मन हेस की किताब पर आधारित फिल्म ‘सिद्धार्थ’ का सिद्धार्थ नहीं है जो सत्य की तलाश में हर चीज को नकारता जाता है, और न ही वह सुधीर मिश्रा की ‘हज़ारों ख्वाहिशों ऐसी’ का सिद्धार्थ है जो क्रांति करने के लिए अपनी आरामदायक जिंदगी छोड़कर जंगलों में चला जाता है. यह सिद्धार्थ एक शांत, स्थिर और कम बोलने वाला नवयुवक है जो अपने आप को बचाए रखने की हरसंभव कोशिश कर रहा है.

‘प्रतिद्वंद्वी’ किसी क्रांति के बारे में नहीं है, और न ही बेरोजगारी के बारे में. यह एक क्रूर होती सभ्यता में अपने मूल्यों पर सिर उठाकर जीने के बारे में है. आधुनिकता के दौर में नौजवानों के मन में चल रहे अंतर्द्वंद्व के बारे में है. बने-बनाए रास्तों के बीच में अपने आप को खोने से बचाने के संघर्ष के बारे में है.

सिद्धार्थ पूरी फिल्म में एक अज्ञात प्रतिद्वंदी से लड़ रहा है. कौन है वह प्रतिद्वंदी? उसके आर्थिक हालात, या फिर कलकत्ता की सड़कों पर उसी की तरह भटकते नवयुवक या उसकी किस्मत या उसे तिरस्कार भरी नजरों से देखने वाला अभिजात्य वर्ग, या फिर उसका खुद का शहर जिससे वह जूझ रहा है.

कभी-कभी फिल्म देखते हुए लगता है कि सत्यजीत रे सिद्धार्थ के जरिए बुद्ध की बात कर रहे हैं. अतिवाद से बचते हुए रास्ता तलाशता हुआ, न ही भौतिक सुख में डूबा हुआ, न दुनिया को बदलने की राह पर. इन दोनों के बीच से मध्यम मार्ग तलाशता हुआ, जो जैसा है उसे उसी रूप में स्वीकारते हुए अपना रास्ता बनाते हुए, खुद का ही प्रतिद्वंद्वी.


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