सेटर्स: जबर्दस्त विषय पर बनी कमजोर फिल्म
निर्देशक: अश्विनी चौधरी
कलाकार: आफताब शिवदासानी, श्रेयस तलपड़े, सोनाली सहगल, पवन मल्होत्रा, विजय राज, इशिता दत्ता
पटकथा: सिराज अहमद
हमारे देश में जिस स्तर पर परीक्षाओं की तैयारी होती है उससे भी गहन स्तर पर नकल की तैयारी होती है. लेकिन दोनों ही तैयारियों में कुछ फर्क हैं. परीक्षा की तैयारी वैध तरीके से हर घर में होती है लेकिन नकल की तैयारी अवैध तरीके से कुछ खास लोग घरों से बाहर करते हैं. परीक्षा की तैयारी में छात्रों की खुद की नींद उड़ती है लेकिन नकल माफिया पुलिस वालों की नींद उड़ाते हैं. नकल के लिए भी अक्ल चाहिए. यह बात आपने बहुत बार सुनी होगी लेकिन इसे पर्दे पर उतारने का काम पहली बार फिल्म ‘सेटर्स’ ने किया है.
इस विषय पर अब तक न हॉलीवुड, न बॉलीवुड और न ही क्षेत्रीय भाषा में कोई फिल्म बनी है. इस फिल्म में नकल माफिया के दिमाग को देखकर आप दंग रह जाएंगे. आप देखेंगे कि परीक्षाओं में, खासकर व्यावसायिक परीक्षाओं में क्या इतना बड़ा घोटाला हो सकता है? लोग मेरिट में कैसे आते हैं? किस तरह से इसके पीछे होने वाली साजिश को अंजाम दिया जाता है? इन सारे सवालों के जवाब अश्विनी चौधरी की फिल्म ‘सेटर्स’ काफी अच्छे से देती है.
देश में इंजीनियरिंग और मेडिकल जैसी बड़ी परीक्षाओं में किस तरह से सेटर्स छात्रों को पास कराने के लिए बड़े गेम प्लान बनाते हैं और फिर उसे किस तरह एक्जिक्यूट करते हैं, उसे इस कहानी में बेहद बारीकी से रिसर्च कर दिखाया गया है. ‘सेटर्स’ फिल्म की कहानी बनारस, जयपुर, दिल्ली, मुंबई जैसे शहरों के इर्दगिर्द घूमती है, जहां बनारस का बाहुबली भैयाजी (पवन मल्होत्रा) अपूर्वा (श्रेयस तलपड़े) और अपने दूसरे गुर्गों (जीशान कादरी, विजय राज, मनु ऋषि, नीरज सूद) के साथ मिलकर अलग-अलग स्तर की परीक्षाओं में नकल कराने का काम करता है.
अपूर्वा की अगुवाई में रेलवे, बैंकिंग, लेक्चर्र्शिप आदि के एग्जाम्स पेपर्स को इतनी चतुराई और हाईटेक अंदाज में लीक किया जाता है कि किसी को कानों-कान खबर नहीं होती. एक तरफ भैयाजी अपने गिरोह के साथ बैंकिंग के पेपर्स लीक करने की प्लानिंग कर रहे होते हैं, दूसरी तरफ एसपी आदित्य (आफताब शिवदासानी) को एक टीम गठित करके इस गिरोह का पर्दाफाश करने की जिम्मेदारी दी जाती है.
आदित्य एजुकेशन सिस्टम के इस घपले को सामने लाने के लिए ईशा (सोनाली सहगल), अंसारी (जमील खान) और दिबांकर (अनिल मांगे) जैसे पुलिस वालों की टीम बनाता है. उधर अपूर्वा एजुकेशन सिस्टम में घुसपैठ करने के साथ-साथ भैयाजी की बेटी प्रेरणा (इशिता दत्ता) के प्यार में पड़ जाता है, मगर तब तक पुलिस और चोरों के बीच चूहे-बिल्ली का खेल शुरू हो चुका है. इस खेल में पुलिस जीतती है या फिर नकल माफिया यह जानने के लिए आपको फिल्म देखनी होगी.
चीटिंग के लिए कैसे गजेट इस्तेमाल किए जा सकते हैं? नकल माफिया कितना हाईटेक हो सकता है? पेपर लीकिंग के भाव कहां तक जा सकते हैं? इन सबकी डिटेलिंग फिल्म में काफी अच्छे से की गई है जो रोमांच पैदा करती है. पुलिस के साथ नकल गैंगवालों की लुकाछिपी भी मजेदार लगती है.
अभिनय की बात करें तो श्रेयस तलपड़े जैसे शानदार कलाकार को फिल्म ने लम्बे समय बाद कॉमेडी में खर्च होने से बचने का मौका दिया है. श्रेयस तलपड़े और आफताब शिवदासानी ने कॉमेडी फिल्मों की अपनी हालिया इमेज से बिल्कुल विपरीत जा कर अच्छे किरदार निभाए हैं. ‘इकबाल’ जैसी फिल्म में अद्भुत अभिनय करने वाले श्रेयस अब उस सितारों की श्रेणी में आते हैं, जिनके कंधे पर पूरी फिल्म चलाने का भरोसा किया जा सकता है. इस फिल्म में भी उन्होंने इकबाल जैसा तो नहीं लेकिन अच्छा काम किया है. हालांकि बनारस की स्थानीय भाषा बोलते-बोलते श्रेयस एक दो जगह मुंबइया टोन पकड़ लेते हैं. इस फिल्म में एक्टिंग के मामले में सबसे ज़्यादा नंबर भैया जी बने पवन मल्होत्रा को मिलने चाहिए.
आफताब शिवदासानी को एक अरसे बाद हैंडसम और गंभीर पुलिसवाले की भूमिका में देखना अच्छा लगा है. इशिता दत्ता और सोनाली सहगल जैसी नायिकाओं के हिस्से में कुछ खास करने जैसा नहीं था, सो उन्होंने नहीं किया. फिल्म में सहयोगी कलाकारों की लंबी चौड़ी फौज है, जिसमें विजय राज के अलावा जमील खान, जीशान कादरी, नीरज सूद, अनिल मांगे और मनु ऋषि अपना असर छोड़ने में कामयाब रहे हैं.
निर्देशक अश्विनी चौधरी ने कॉम्पिटिटिव एग्जाम्स के पेपर लीक होने की प्रक्रिया को बहुत ही रोचक अंदाज में दर्शाया है. उन्होंने पेपर लीक और नकल करवाने के सभी हाईटैक तरीकों का इस्तेमाल किया, जिसके कारण दर्शक कहानी से बंधा रहता है. नकल गैंग को उन्होंने पुलिस इन्वेस्टिगेशन के साथ जोड़कर थ्रिलिंग बना दिया है. रियल लोकेशंस फिल्म कहानी को बल देते हैं. हालांकि हर बार स्कैम करनेवाला गिरोह पुलिस की जांबाज और एक्सपर्ट टीम को अंगूठा दिखा जाता है.
फिल्म ‘सेटर्स’ का निर्देशक बहुत जगहों पर कुछ कन्फ्यूज सा भी लगता है. नकल माफिया पर बात फिल्म करते-करते पुलिस वर्सेस बाहुबली के ट्रैक पर फोकस करने लगती है. फिर उसे भी अधूरा छोड़ देती है. दो विरोधी किरदारों (भैया जी और एस पी आदित्य) को दोस्त तो बताती है लेकिन न तो उस दोस्ती का कोई बैकग्राउंड समझाती है, न ही दोस्तों के इमोशंस को स्पेस देती है. इसके बाद फिल्म बेहद उथले तरीके से लवस्टोरी वाला ट्रैक शुरू करती है और फिर उसे अविश्वसनीय अंजाम तक पहुंचा देती है. मतलब जो लड़की नैतिकता के चलते एग्ज़ाम में चीटिंग नहीं करना चाहती, वो एक क्रिमिनल के साथ, उसकी हकीकत जानते हुए प्यार कैसे कर सकती है? किरदारों का ये अधकचरापन पूरी फिल्म भर फैला हुआ है, जो गले नहीं उतरता.
‘सेटर्स’ फिल्म में कई जगह बड़े झोल भी हैं. आदित्य की बीवी और अपूर्वा में दोस्ती होने की क्या रेलेवेंस थी ये समझ नहीं आया. और अंत में तो भैया जी का इतना प्रॉमिसिंग किरदार सिरे से गायब ही कर दिया गया है. कोई खैर-खबर ही नहीं ली गई. इस सबके कारण फिल्म अपने विषय की एक कसी हुई फिल्म बनने से चूक जाती है.
‘लाडो’ और ‘धूप’ जैसी सामाजिक मुद्दे पर संवेदनशील फिल्में बनाने वाले निर्देशक अश्विनी चौधरी बीच में ‘गुड बॉय बैड बॉय’ और ‘जोड़ी ब्रेकर्स’ जैसी फिल्मों से कॉमर्शियल सिनेमा के मायाजाल में उलझ गए थे. लेकिन अपनी नई फिल्म ‘सेटर्स’ से वे वापस अपनी उसी लीक पर लौटे हैं जिसने उनकी हिंदी सिनेमा में एक अलग जगह पक्की की है. संतोष थुंडियल की सिनेमैटोग्राफी और भगत की एडिटिंग पहले सीन से ही फिल्म दर्शकों को अपने साथ कहानी का हिस्सा बनने को मजबूर कर देती है. पूरी फिल्म में आइटम नंबर या जबरदस्ती के गाने डालने के लालच से बचकर निर्देशक ने अच्छा काम किया है.
फिल्म का क्लाइमैक्स थ्रिलिंग जरूर है लेकिन कन्विंसिंग नहीं लगता. इन कमियों के बाद भी एजुकेशन सिस्टम के फर्जीवाड़े जैसे नए और समसामयिक विषय पर बनी यह एक जरूरी फिल्म है. जिसे इसके जबर्दस्त विषय के लिए देखा जा सकता है.